विचार शून्यता और लोकतंत्र
श्रीकांत वर्मा की एक कविता है - 'कोसल में विचारों की कमी है।' अपने समय पर जब भी नजर दौड़ाता हूं तो यह कविता गूंजती है;
- अरुण कुमार त्रिपाठी
हमारे बीसवीं सदी के विचारकों ने जिस तरह के भारत की कल्पना की थी और उसके लिए जिस राजनीतिक परंपरा की नींव डाली और जो संविधान बनाया वह यूरोपीय तर्ज का गणतंत्र नहीं था। भले ही उसका बाहरी ढांचा कुछ यूरोपीय देशों से मिलता हो, लेकिन उसके पीछे का दर्शन अपने में अद्वितीय था। भारत जिस तरह का देश पहले था और विभाजन व आजादी के बाद उसकी जो संरचना बनी, वह भी काफी हद तक यूरोपीय मॉडल से भिन्न थी।
श्रीकांत वर्मा की एक कविता है - 'कोसल में विचारों की कमी है।' अपने समय पर जब भी नजर दौड़ाता हूं तो यह कविता गूंजती है। ऐसा नहीं है कि देश में नीतिवान, श्रुतिवान गुणज्ञों की कमी है, लेकिन वे तात्कालिकता, व्यावहारिकता, पार्टीबंदी, स्वार्थ, व्यक्तियों और कंपनियों के हितों में इस कदर उलझ गए हैं कि उनके पास न तो दिशा देने वाली विश्वदृष्टि बची है और न ही राष्ट्रीय दृष्टि। हमारे दौर की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि धन और शक्ति वाले ही विद्वानों और बौद्धिकों का निर्धारण करते हैं और यही वजह है कि विचार करने वाले भी वही कहते हैं जो उन्हें सुहाए। जो लोग बलवानों की दृष्टि का विरोध करते हैं उनकी संख्या बहुत थोड़ी है और वे भी किसी पार्टी, किसी व्यक्ति या किसी संगठन के दायरे से आगे बढ़कर सोच पाने में अक्षम हैं।
यही वजह है कि हमारा समाज और राष्ट्र एक बेपेंदी का लोटा हो गया है। अमेरिकी झिड़की और अपमान से आहत होकर वह चीन और रूस की ओर भागता है और जैसे ही अमेरिका से थोड़ी सी अनुकूल पुचकार मिलती है वह दोगुने स्वर से उसका गुणगान करने लगता है। वह एक ओर 'ब्रिक्स' (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन) को साधना चाहता है तो दूसरी ओर 'क्वाड' (अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया का रणनीतिक मंच) को। वह 'एससीओ' (शंघाई सहयोग संगठन) से जुड़ता है, तो द्वितीय विश्वयुद्ध की 80 वीं चीनी परेड से बच निकलता है। यानी वह खंडित विश्वदृष्टि से अपना और दुनिया का भविष्य संवारना चाहता है और विश्वगुरु भी बनना चाहता है।
आजाद भारतीय राष्ट्र ऐसी केंचुआ-वृत्ति का शिकार अपने संपूर्ण इतिहास में तब भी नहीं हुआ है जब उसके पास संसाधनों की बेहद कमी थी। युद्ध हारने के बावजूद उसने अपने विचार नहीं छोड़े थे। गांधी जी ने 'हिंद स्वराज' में ठीक ही कहा है कि गुलामी संसाधनों की कमी से नहीं आती, लालच और भय से आती है। वह नैतिकता की कमी से आती है। वे कहते हैं भारत को अंग्रेजों ने गुलाम नहीं बनाया। हमने भारत उन्हें सौंप दिया। भारतीय शासक वर्ग और उसके साथ जुड़ा बौद्धिक वर्ग आज भारत को बेचने और सौंपने को तैयार है। जो चाहे, जब चाहे अपने ढंग से उसे झुका ले और खरीद ले। यह सारा खेल राष्ट्रीय हित के नाम पर हो रहा है। ध्यान देने की बात है कि ऐसा तब हो रहा है जब पूरे देश के बौद्धिक क्षितिज पर भारतीय ज्ञान परंपरा का कोहराम मचा है, हालांकि उसमें से भारतीय गणराज्य के आंतरिक मूल्यों और संप्रभुता को अक्षुण्ण रखने का कोई सूत्र प्रकट नहीं होता।
पिछले दिनों '12 वें क्रिएटिव थ्योरी कोलोकियम' में योगेंद्र यादव ने इस बात पर जोर देकर कहा कि आज हमारा गणराज्य ढह रहा है। वह जिन विचारों, मूल्यों और सिद्धांतों पर खड़ा हुआ है वे सब एक-एक कर ढहाए जा रहे हैं। इसके लिए वे ही दोषी नहीं हैं जो ठगी की राजनीति करते हैं। दोषी वे भी हैं जो विचार और सिद्धांत का निर्माण करते हैं और संविधान की बात करते हैं। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? इसे कैसे रोका जा सकता है?
संकट में उठने वाले यही सवाल नए राजनीतिक विचारों और सिद्धांतों को जन्म देते हैं। आधुनिक भारत के राजनीतिक सिद्धांतकारों से उनकी शिकायत है कि वे इन आरोपों का जवाब नहीं दे पाए कि हमारा आधुनिक गणराज्य यूरोप की नकल पर खड़ा हुआ है, उसकी भारतीय जड़ें नहीं हैं। हमारे सिद्धांतकार इन आरोपों के विपरीत ऐसे विचारों की इमारत खड़ी नहीं कर पाए कि हमारे आधुनिक लोकतंत्र की संस्थाओं की जड़ें यूरोप में नहीं, 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' और बीसवीं सदी के विचारकों के जीवन और सिद्धांतों में हैं।
हालांकि गणतंत्र के विदेशी होने के आरोप का जवाब गांधी, आंबेडकर, लोहिया और नेहरू ने अपने-अपने ढंग से दिया है, पर हमारे सिद्धांकारों ने उसे पश्चिमी सिद्धातों की कसौटी पर खरा उतारने पर जितना समय खर्च किया, उतना भारतीय यथार्थ और बीसवीं सदी के चिंतन पर कसने का प्रयास नहीं किया। योगेंद्र ने सही सवाल उठाया कि पश्चिम का कौन सा राजनीतिक सिद्धांतकार है जो अपनी भाषा और जमीन से पूरी तरह कटकर विचार करता है? इसीलिए भारतीय भाषाओं को त्यागकर सिद्धांत गढ़ना एक प्रकार का स्कैंडल यानी घोटाला है। यह तेवर गांधी के उस भाषण में भी था जो उन्होंने चार फरवरी 1916 को 'बनारस हिंदू विश्वविद्यालय' में दिया था। गांधी उस सभा में हिंदी में बोले थे जहां सब लोग अंग्रेजी में अपना व्याख्यान दे रहे थे। जिस भाषण को सुनने के बाद जनता गदगद हो गई थी और एनी बेसेंट से लेकर सारे मंचासीन लोग उखड़ गए थे।
हमारे बीसवीं सदी के विचारकों ने जिस तरह के भारत की कल्पना की थी और उसके लिए जिस राजनीतिक परंपरा की नींव डाली और जो संविधान बनाया वह यूरोपीय तर्ज का गणतंत्र नहीं था। भले ही उसका बाहरी ढांचा कुछ यूरोपीय देशों से मिलता हो, लेकिन उसके पीछे का दर्शन अपने में अद्वितीय था। भारत जिस तरह का देश पहले था और विभाजन व आजादी के बाद उसकी जो संरचना बनी, वह भी काफी हद तक यूरोपीय मॉडल से भिन्न थी।
यूरोपीय समाज इतनी विविधता की कल्पना कर ही नहीं सकता, न ही वह इसे सह सकता है, लेकिन विडंबना है कि जिस पार्टी ने देश की आजादी और आधुनिक गणतंत्र के निर्माण की लड़ाई लड़ी, वह उन खतरों और दायित्वों के प्रति बेफिक्र हो गई जिसके बारे में हमारे पुरखों ने चेताया था। अगर ऐसा न होता तो भारत जैसे प्राकृतिक संसाधन संपन्न और विविधता वाले देश को लूटने के लिए 'उदारीकरण' की ऐसी नीति न चलाई गई होती, जिसमें लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगने लगे।
दूसरी ओर एक ऐसा विचार और संगठन पनपा जिसकी भारतीयता की अवधारणा यूरोपीय नकल में गढ़े गए राष्ट्र-राज्य के इतिहास और उससे निकली दृष्टि पर आधारित थी। वह एक प्रकार से हीनताबोध से ग्रसित दृष्टि है जो लगातार अपनी श्रेष्ठता साबित करने में लगी रहती है। वह राष्ट्रीय एकता की जितनी बात करती है, उतना ही उसे खंडित करती है। वास्तव में संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के विचारों को विदेशी नकल बताने वाले न तो भारतीय आत्म को समझते हैं और न ही स्वदेशी और स्वराज को। उनके लिए आजादी, स्वराज और स्वदेशी महज नारा है जिसका नैतिकता की बजाए रणनीति से लेना-देना है।
वे धर्म को नैतिकता और अध्यात्म से निकालकर अंधविश्वास और कट्टरता में डुबो देना चाहते हैं। इसी दृष्टि से निकला है यह दक्षिणपंथी बयान कि गांधी एक 'चालाक बनिया' था। इसी बात को वामपंथी नजरिए से गांधी को समझने में लगे लोग थोड़ा सभ्य भाषा में कहते हैं कि गांधी रणनीतिकार बड़े थे। यानी गांधी अधिक-से-अधिक चाणक्य और मैकियावेली की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। उन्हें एक विराट नैतिक मानव और पूरी मानवता के दार्शनिक की श्रेणी में रखने का कोई मतलब नहीं है। उन्हें मसीहा मानने का भी कोई मतलब नहीं है।
मानवीय मूल्यों को जीवन का अनिवार्य विश्वास मानने की बजाय रणनीति मानने के इस चलन ने मूल्यों को धीरे-धीरे मर जाने दिया। उनकी जगह बाजार, प्रौद्योगिकी-जनित लाभ, सत्ता-जनित सुख और परपीड़ा स्थापित हो गए। हम प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन को क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन मानने लगे। दूसरी ओर राजनीतिक तौर पर सत्ता परिवर्तन को ही अभीष्ट मान लिया गया। सिर्फ 'हंगामा खड़ा करना' ही हमारा मकसद रह गया। 'सूरत बदलने' की कोशिशें दकियानूसी कही जाने लगीं। नतीजतन एक ओर सांप्रदायिकता हमारे गणतंत्र पर चढ़ बैठी तो दूसरी ओर जातिवाद और उन सबसे ऊपर 'याराना (क्रोनी) पूंजीवाद' हावी हो गया।
नील पोस्ट ने प्रौद्योगिकी के आगे संस्कृति यानी श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों के समर्पण की अवस्था को 'टेक्नोपोली' की संज्ञा दी है। यह वह अवस्था है जहां हर चीज प्रौद्योगिकी के सहारे तय होंगी। विश्वविद्यालयों से लेकर तमाम दूसरे संस्थानों तक फैले प्रौद्योगिकी के इस जाल ने मानवीय गुणों और रचनात्मकता को मशीन में बदल दिया है। हम ऐसी सभ्यता बन गए हैं जहां भले ही तात्कालिक रूप से हमारी विजय भी हो जाए, लेकिन जिस ढलान पर जा रहे हैं उसमें 'कोसल' अधिक दिनों तक ठहर नहीं सकता। क्योंकि 'कोसल' में विचारों की कमी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय' में प्रोफेसर रहे हैं।)