चुप-चोरी आई श्रमिक संहिताओं के राज
मजदूरों से जुड़ी चार संहिताओं को आये आज लगभग दो सप्ताह (इनकी अधिसूचना 21 नवंबर को हुई थी) हो गए लेकिन कहीं से इस बारे में कोई खास उत्साह या विरोध का स्वर सुनाई नहीं दे रहा है;
- अरविन्द मोहन
सबसे ज्यादा घालमेल न्यूनतम मजदूरी तय करने के मामले में किया गया है। छह कार्यस्थितियों में कौशल की चार श्रेणी के आधार पर कुल 24 न्यूनतम मजदूरी दर का हिसाब कौन मजदूर किस तरह रख पाएगा। यह इस सदी के श्रम आंदोलन का सबसे बड़ा सवाल बनाना चाहिए। मजदूरों को मूल वेतन पर ज्यादा से ज्यादा पचास फीसदी भत्ते पाने का हद देकर यह संहिता अपनी पीठ थपथपा रही है लेकिन असल में मजदूरों के हाथ में कम पैसे मिलेंगे।
मजदूरों से जुड़ी चार संहिताओं को आये आज लगभग दो सप्ताह (इनकी अधिसूचना 21 नवंबर को हुई थी) हो गए लेकिन कहीं से इस बारे में कोई खास उत्साह या विरोध का स्वर सुनाई नहीं दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय ऋण संस्थानों की लाइन को ब्रह्मवाक्य मानने वाले हमारे कुछ कथित अर्थशास्त्रियों ने इसे 'क्रांतिकारी कहा पर उस श्रेणी वाले ज्यादातर जानकार लोग भी इन्हें अपर्याप्त बताते नजर आए। विरोध और गलत बताने वाला स्वर तो और भी गायब है। यह देश में मजदूर आंदोलन की स्थिति से भी जुड़ा है क्योंकि अब देश में सबसे बड़ा मजदूर संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा भारतीय मजदूर संघ बन गया है। उसके एक नेता ने पिछले दस वर्षों में एक भी इंडियन लेबर कांफ्रेंस न होने का रोना तो रोया लेकिन संघ ने इन बदलावों का स्वागत कर दिया है। तमिलनाडु और बंगाल जैसे राज्यों ने इन संहिताओं को न लागू करने की घोषणा की है लेकिन वहां से भी आलोचना का कोई साफ स्वर नहीं सुना गया है। लेबर कांफ्रेंस ऐसा मंच है जिसमें मालिक, मजदूर और सरकार के प्रतिनिधि साझा रूप से कानूनी मामलों की चर्चा करते हैं। वैसे यह जानना भी जरूरी है कि जब छह साल पहले इन संहिताओं को संसद से पास किया गया था(उन्हीं दिनों खेती से जुड़े तीन विवादास्पद कानून भी ये थे) तब भी विपक्ष ने संसद का बहिष्कार किया था और ये संहिताएं बिना बहस के पास हुई थीं।
अब यह संहिता शब्द आपको चुभ रहा होगा तो यह स्पष्टीकरण भी जरूरी है कि कानून या अधिनियम की जगह यह पद भी बहुत सोच समझकर लाया गया है। जिन 29 कानूनों को हटाकर इन चार संहिताओं को लाया गया है उनके खिलाफ विश्व बैंक और अंतत: मुद्रा कोष के लोग ही नहीं, देश में उदारीकरण के पैरवीकार भी काफी कुछ बोलते रहे हैं और इनको देश के औद्योगिक विकास में बाधक बताते रहे हैं। कानून में फेरबदल के लिए संसद या विधान सभाओं की मंजूरी जरूरी है और उसमें श्रमिकों के हितों की अनदेखी मुश्किल होती है। संहिता होते ही यह सुभीता हो गया है कि जिस सरकार को जरूरत लगे एक कार्यकारी आदेश से बदलाव कर सकती है। वैसे भी श्रम के समवर्ती सूची में होने के चलते इधर राज्य सरकारों ने पुराने कानूनों को हटाने और नए को लाने में पूरी उदारता बरती है। नई संहिताओं के अधिकांश बड़े प्रावधान राज्यों ने पहले ही लागू कर दिए हैं। लेकिन अब घोषित संहिताओं ने देश और दुनिया में चले लंबे श्रमिक आंदोलनों से हासिल कानूनी लाभों पर पूरा पानी फेर दिया है। यहां तक कि आठ घंटे काम करने के नियम को भी हाशिये पर ला दिया गया है।
इन संहिताओं की सबसे चर्चित चीज कंपनियों के लिए मजदूरों की छंटनी करने और ठेके पर लेने के नियम आसान करना है। अब 'हायर एंड फायर' सहूलियत का लाभ लेने के लिए आपके यहां नियुक्त कर्मचारियों की संख्या सौ की जगह तीन सौ कर दी गई है। इससे देश की 90 फीसदी इकाइयां इस दायरे से बाहर चली गई हैं। और इसमें भी ठेका देने में 20 फीसदी का नियम ही नहीं खत्म किया गया है आपको एक ही काम और मजदूर को बार-बार ठेके पर रखने की छूट भी दे दी गई है। अब आप पचास फीसदी ठेका मजदूर रखकर काम करा सकते हैं। काम स्थायी प्रकृति का हो और मजदूर आपके उद्योग परिसर में ही काम करता हो तब भी ठेके पर रखने में कोई वैधानिक परेशानी नहीं है और अब इंस्पेक्टर नहीं रहे। उनकी जगह 'इंस्पेक्टर कम फेसिलिटेटर' आ जाएंगे जो आपकी मदद ही करेंगे और बारह घंटे काम कराने में कोई कानूनी परेशानी नहीं है। जबकि आठ घंटे का नियम जाने कितने संघर्ष के बाद आया है। हम पत्रकारों के अपने कानून के हिसाब से तो साढ़े छह घंटे की ड्यूटी ही पर्याप्त थी जिसमें आधे घंटे का अवकाश भी होता था।
सबसे ज्यादा घालमेल न्यूनतम मजदूरी तय करने के मामले में किया गया है। छह कार्यस्थितियों में कौशल की चार श्रेणी के आधार पर कुल 24 न्यूनतम मजदूरी दर का हिसाब कौन मजदूर किस तरह रख पाएगा। यह इस सदी के श्रम आंदोलन का सबसे बड़ा सवाल बनाना चाहिए। मजदूरों को मूल वेतन पर ज्यादा से ज्यादा पचास फीसदी भत्ते पाने का हद देकर यह संहिता अपनी पीठ थपथपा रही है लेकिन असल में मजदूरों के हाथ में कम पैसे मिलेंगे। बाकी पैसा वेलफेअर के नाम पर कटेगा और वह कब और कैसे मिलेगा इसका हिसाब भी उतना ही जटिल है जितना न्यूनतम मजदूरी का। साफ दिखाता है कि पुरानी कानूनी सुरक्षा खत्म करने के बदले मजदूरों को कुछ लाभ दिलाने का जो दिखावा किया गया है उस कमाई का ज्यादातर हिस्सा सरकार के पास जाएगा जो मजदूरों तक पैसा पहुंचने के पहले उसका सदुपयोग करेगी। बिना बिजली वाली इकाई में अगर 40 लोग काम करते हों और बिजली वाली में 20 तो वह फैक्टरी की परिभाषा से बाहर हो जाएगा। पहले यह सीमा क्रमश: बीस और दस की थी। वे सब श्रम संहिता के दायरे से बाहर होंगे। अब बेसिक मजदूरी बढ़ाने से मजदूर खुश होंगे, सरकार का खजाना भरेगा लेकिन नियोक्ताओं पर बोझ बढ़ेगा जो अंतत: उत्पाद और उपभोक्ताओं पर ही जाएगा। उल्लेखनीय है कि आज ओला/उबर और आनलाइन मार्केटिंग के हंगामे में जो करोड़ों गिग और प्लेटफार्म वर्कर बन गए हैं उनको किसी भी तरह के पेंशन, पीएफ और ऐसी स्थायी लाभ की योजनाओं से दूर रखा गया है।
इन संहिताओं को लागू करने में सरकार हिचक रही थी क्योंकि खेती से जुड़े तीनों कानूनों का भारी विरोध हुआ और अंतत: उन्हें वापस लेना पड़ा। तब इनको लेकर भी नाराजगी दिख रही थी और मजदूर संगठन विरोध की तैयारी में थे। इन छह वर्षों में वह सब स्थिति बदल गई है। विद्यार्थी परिषद के नंबर एक होने के बाद शिक्षा के निजीकरण समेत किसी भी मुद्दे पर छात्रों के आंदोलित होने का खतरा नहीं रहा तो बीएमएस के नंबर एक मजदूर संगठन बनाने से मजदूरों का आंदोलन भी दूर की चीज हो गई है। और इस बीच सरकार ने संहिताओं की अधिसूचना रोक कर राज्यों से कहा कि वे अपने हिसाब से कानून बना लें। टाइम्स आफ इंडिया की रिपोर्ट है कि अब तक 19 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने कंपनी के लिए न्यूनतम 300 मजदूर वाली सीमा बढ़ा दी है। 25 राज्यों ने ठेका मजदूरी वाले प्रावधानों को लागू कर दिया है और 31 राज्यों ने महिला मजदूरों से नाइट शिफ्ट कराने का कानून भी ला दिया है। यह साफी यही कि पुराने 29 कानूनों से कई तरह की दिक्कत थी-नियोक्ताओं से ज्यादा मजदूरों को थी कि प्रावधान परस्पर विरोधी थे। लेकिन इस बार के बदलाव ने तो तराजू का पलड़ा मालिकों की तरफ मोड़ दिया है और कमाल यह है कि कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही है।