ललित सुरजन की कलम से - प्रायोजित पत्रकारिता की चुनौतियां- 2
'इन दिनों नीरा राडिया के टेपों के संदर्भ से मीडिया की नैतिकता पर मीडिया के भीतर ही खूब बहस छिड़ी हुई है;
'इन दिनों नीरा राडिया के टेपों के संदर्भ से मीडिया की नैतिकता पर मीडिया के भीतर ही खूब बहस छिड़ी हुई है। पत्रकारों के बीच अपने ही आचरण को लेकर ऐसी बहस पहले कभी देखने नहीं मिली।
बहस है तो जाहिर है कि इसके दो पक्ष भी हैं। एक पक्ष है जो कहता है कि कारपोरेट घरानों या उनके बिचौलियों के साथ बात करके अथवा राजसत्ता के समक्ष उनकी पैरवी करके पत्रकारों ने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया।
वे यहां तक कहते हैं कि खबरें जुटाने के लिए इनके साथ इस स्तर के संपर्क बनाना ही पड़ते हैं। वे कारपोरेट घरानों और राजसत्ता के बीच संदेशवाहक बनने में भी कोई बुराई नहीं देखते।
गनीमत है कि इस तरह की सोच रखने वाले पत्रकार फिलहाल अल्पमत में दिखाई दे रहे हैं। जब एडीटर्स गिल ऑफ इंडिया के वर्तमान अध्यक्ष राजदीप सरदेसाई ने गत सप्ताह एक कार्यक्रम में टेपकांड से जुड़े पत्रकारों की वकालत की तो वहां उपस्थित लगभग सारे पत्रकार एक सिरे से उखड़ गए, और श्री सरदेसाई को अपना वक्तव्य वापस लेना पड़ा।'
(9 दिसंबर 2010 को देशबन्धु में प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/05/2_6305.html