हर नागरिक को है सरकार से सवाल पूछने का अधिकार
भारत के संविधान के तहत सरकार की आलोचना करने का नागरिक का अधिकार सुरक्षित है;
- डॉ. ज्ञान पाठक
सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करना—खासकर बाहरी खतरे के समय—राष्ट्र-विरोधी नहीं, बल्कि अक्सर देशभक्ति का सर्वोच्च रूप होता है। स्पष्ट कर दें: राहुल गांधी एक राजनीतिक व्यक्ति और विपक्ष के नेता हो सकते हैं, लेकिन सरकार से सवाल करने का उनका अधिकार—यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों पर भी—संविधान द्वारा संरक्षित है।
भारत के संविधान के तहत सरकार की आलोचना करने का नागरिक का अधिकार सुरक्षित है। फिर भी, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज महीश की एक बेंच ने 4 अगस्त, 2025 को भारत के विपक्ष के नेता राहुल गांधी की देशभक्ति पर सवाल उठाया। राहुल गांधी ने 2022 में अपने भारत जोड़ो यात्रा अभियान के दौरान टिप्पणी की थी कि भारत ने अपनी 2000 वर्ग किलोमीटर ज़मीन खो दी है जिस पर चीन का कब्ज़ा। बेशक, यह एक संवेदनशील मुद्दा है, लेकिन फिर लोकतंत्र में, सरकार की आलोचना न केवल एक अधिकार है, बल्कि एक सच्चे नागरिक का कर्तव्य भी है।
क्या सुप्रीम कोर्ट ने 'एक सच्चा भारतीय ऐसा नहीं कहेगा' या 'अगर आप एक सच्चे भारतीय होते, तो आप यह सब नहीं कहते' जैसी टिप्पणी करके गलती की है, जैसा कि बताया गया है? क्या उनकी भारतीयता पर सवाल उठाना समस्याजनक नहीं है?
आइए, भारत के संविधान पर एक नजऱ डालें, जो 'सच्चे भारतीय' शब्द को परिभाषित नहीं करता। हर नागरिक क़ानून के सामने समान है, चाहे उसके राजनीतिक विचार कुछ भी हों या सरकार की आलोचना कुछ भी हो। न्यायपालिका का काम क़ानून की व्याख्या करना और क़ानूनी व्याख्या के आधार पर अपना फ़ैसला सुनाना है, न कि देशभक्ति पर नजऱ रखना। सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता निष्पक्षता पर टिकी है। नैतिक या राजनीतिक निर्णय का संकेत देने वाली टिप्पणियां -जैसे किसी को 'सच्चा' या 'असच्चा' भारतीय कहना- क़ानूनी रूप से अस्पष्ट हैं और उनका कोई संवैधानिक आधार नहीं है।
ध्यान रखना ज़रूरी है कि राहुल गांधी की टिप्पणी, चाहे कोई इससे सहमत हो या न हो, चीनी घुसपैठ से निपटने में सरकार की विफलता की आलोचना करने वाली एक राजनीतिक टिप्पणी थी, न कि भारत के प्रति बेवफ़ाई का बयान। सेना की स्थिति और चीन के हाथों हुई तकलीफ़ों या भारतीय क्षेत्र में चीन की घुसपैठ पर सरकार के कुप्रबंधन की आलोचना करना लोकतांत्रिक विमर्श का एक हिस्सा मात्र है, देशद्रोह या भारत-विरोधी नहीं। ऐसे भाषणों या बयानों को 'अभारतीय' कहना ख़तरनाक बयानबाज़ी है- खासकर देश की सर्वोच्च अदालत से।
तो क्या यह टिप्पणी न्यायिक अतिक्रमण थी? संभवत: हां। बेशक, न्यायाधीश गैर-ज़िम्मेदाराना भाषण की निंदा कर सकते हैं, लेकिन 'आप सच्चे भारतीय नहीं है' कहना क़ानून और विचारधारा के बीच की रेखा को धुंधला कर देता है। 'सच्चे भारतीय' शब्द के अर्थ भिन्न हो सकते हैं यदि इसे देश की लोकतांत्रिक राजनीतिक पृष्ठभूमि में देखा जाए। अब भारत में हर कोई जानता है कि आरएसएस-भाजपा का 'सच्चा भारतीय' किसी भी अन्य राजनीतिक दल के 'सच्चे भारतीय' से गुणात्मक रूप से भिन्न है। लोगों के 'सच्चे भारतीय' के मानक पर भी अलग-अलग विचार हैं। कोई यह समझ नहीं पा रहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने 'सच्चा भारतीय' कहकर क्या अभिप्राय व्यक्त किया। यह अस्पष्ट है। जब हम इस मुद्दे को न्यायिक नैतिकता के दृष्टिकोण से देखते हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की ऐसी टिप्पणी न्यायिक निष्पक्षता को संभावित रूप से नुकसान पहुंचा सकती है। इस अर्थ में, ऐसी टिप्पणी न केवल अस्पष्ट और निरर्थक है, बल्कि एक बुरी मिसाल भी है।
क्या इस टिप्पणी को निरर्थक कहना पीठ, सर्वोच्च न्यायालय या न्यायपालिका का अनादर है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि यह केवल न्यायालय की एक गलत चुनी गई टिप्पणी की आलोचना है, उससे अधिक कुछ नहीं, क्योंकि न्यायाधीशों से कानून के निष्पक्ष निर्णायक होने की अपेक्षा की जाती है। यह अच्छी बात है कि इस टिप्पणी के बावजूद हमारे माननीय न्यायाधीशों ने राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि की कार्रवाई पर रोक लगा दी और मामले से जुड़े पक्षों को नोटिस जारी किए।
जब सर्वोच्च न्यायालय देश के वर्तमान विपक्ष के नेता, एक नागरिक की देशभक्ति पर सवाल उठाता है, तो वह वैधता के बजाय अदालत से निकलकर चुनावी अभियान में उतर जाता है -जहां तर्क की जगह बयानबाजी ले लेती है। कानून के बिंदुओं के बजाय एक पीठ द्वारा देशभक्ति पर सवाल उठाने से न्यायिक निष्पक्षता से राजनीतिक बयानबाजी में बदलने का जोखिम पैदा हो गया है, जो न्याय और लोकतांत्रिक संवाद, दोनों को कमजोर कर रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कई अन्य कारणों से भी बेहद परेशान करने वाली है। इनमें से पहला यह है कि यह तथ्यात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण है जब अदालत ने राहुल गांधी से पूछा, 'आपको कैसे पता कि चीन ने 2000 वर्ग किलोमीटर कब-कब हासिल किया था? विश्वसनीय सामग्री क्या है?'
इसलिए, हमें यह जानने की ज़रूरत है कि 2000 वर्ग किलोमीटर कहां से आया, जो आधिकारिक तौर पर चीन के कब्जे में 43,180 वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि, जिसे भारत सरकार स्वीकार करती है, के अलावा है, जिसमें चीन को पाकिस्तान द्वारा सौंपी गई 5180 वर्ग किलोमीटर भूमि भी शामिल है। 2000 किलोमीटर की विवादित सीमा कई विश्वसनीय स्रोतों से आई है, जिनमें भारतीय सुरक्षा एजेंसियां, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी और खोजी रिपोर्ट शामिल हैं, जिन्होंने पुष्टि की है कि जून 2020 में चीन-भारत संघर्ष के बाद से, भारत ने पूर्वी लद्दाख के इस क्षेत्रफल को खो दिया है। यह ज़मीन औपचारिक रूप से नहीं सौंपी गई है, लेकिन भारतीय गश्ती दल को पहुंच से वंचित कर दिया गया है, बफर ज़ोन का विस्तार किया गया है, और ज़मीनी स्तर पर चीनी नियंत्रण मज़बूत हो गया है। लद्दाख पुलिस, स्वतंत्र रिपोर्टों और आंतरिक आकलनों ने 65 में से 26 गश्ती बिंदुओं पर गश्त के अधिकारों के नुकसान को भी स्वीकार किया है, जो अप्रत्यक्ष रूप से गांधी द्वारा कही गई बात की पुष्टि करता है।
इसलिए, राहुल गांधी की टिप्पणियां यंू ही नहीं की गईं। वे इस चल रही वास्तविकता पर आधारित थीं, जो उन चिंतित नागरिकों और सैनिकों की ओर से व्यक्त की गई थीं जो सरकार की चुप्पी और अस्पष्टता को एक गंभीर विफलता मानते हैं। गांधी की चेतावनी एक ऐसे विषय पर पारदर्शिता और राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने का एक प्रयास थी, जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार की कूटनीतिक चुप्पी छाई हुई है।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने पूछा कि राहुल गांधी ने संसद में नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पोस्ट में यह सवाल क्यों उठाया? ...आप संसद में सवाल क्यों नहीं पूछ सकते? ऐसे सवाल देश के विपक्ष के नेता पर दबाव डालते हैं, जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव निवारक होता है। विपक्ष के नेता के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें सार्वजनिक राजनीतिक अभियान, सोशल मीडिया, संसद या अपनी पसंद के किसी भी अन्य स्थान पर राष्ट्र से जुड़े मुद्दे उठाने का अधिकार है। उन्हें संसद के अंदर और बाहर, दोनों जगह सरकार की आलोचना करने का अधिकार है।
पीठ ने कहा था कि सिर्फ इसलिए कि आपके पास अनुच्छेद 19(1)(ए) है, आप कुछ भी नहीं कह सकते। यह विपक्ष के नेता पर एक और दबाव है। न्यायपालिका का काम संविधान की रक्षा करना और क़ानूनी मामलों पर फैै सला सुनाना है, न कि यह तय करना कि कौन 'सच्चा भारतीय' है या नहीं। देशभक्ति की कोई संवैधानिक कसौटी नहीं है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। जैसे ही इसकी व्याख्या राष्ट्रवाद के चश्मे से की जाती है, हम क़ानून की जगह एक व्यक्तिपरक नैतिक संहिता को वैध ठहराने का जोखिम उठाते हैं। आरएसएस-भाजपा द्वारा भारत के लोगों पर अपनी व्यक्तिपरक नैतिक संहिता थोपने के निरंतर प्रयास, और जिनकी नैतिक संहिताएं कभी-कभी भारत के संविधान में निहित मूल्यों के बिल्कुल विपरीत होती हैं, की पृष्ठभूमि में न्यायालय की टिप्पणी जोखिम भरी है।
पीठ की इस तरह की टिप्पणियों से अदालत की निष्पक्षता में जनता का विश्वास कम होने का खतरा है। ऐसे समय में जब राजनीतिक सत्ता और संस्थागत स्वतंत्रता के बीच की रेखा पहले से ही तनावपूर्ण है, इस तरह की टिप्पणी इन सीमाओं को और धुंधला कर देती है।
इतिहास हमें सिखाता है कि सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करना—खासकर बाहरी खतरे के समय—राष्ट्र-विरोधी नहीं, बल्कि अक्सर देशभक्ति का सर्वोच्च रूप होता है।
स्पष्ट कर दें: राहुल गांधी एक राजनीतिक व्यक्ति और विपक्ष के नेता हो सकते हैं, लेकिन सरकार से सवाल करने का उनका अधिकार—यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों पर भी—संविधान द्वारा संरक्षित है। देशभक्ति वाली टिप्पणी के ज़रिए उस अधिकार को खारिज करना लोकतंत्र और सच्चाई, दोनों के लिए नुकसानदेह है।
असली ख़तरा असहज सवाल पूछने में नहीं, बल्कि उन लोगों को चुप कराने में है जो सवाल पूछने की हिम्मत करते हैं। फिर जब सर्वोच्च न्यायालय दूसरा रास्ता चुनता है, तो राहुल गांधी को यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि 'सच्चा भारतीय' होने का क्या मतलब है। बल्कि, हमें यह पूछना होगा कि क्या न्यायपालिका अपनी संवैधानिक भूमिका निभा रही है—या उस राजनीति की ओर बढ़ रही है जिससे ऊपर उठने की उसने शपथ ली है।