एक करोड़ सब्सक्राइबर्स वाला डीबी लाइव और सार्थक पत्रकारिता
देशबन्धु समूह के सहयोगी उपक्रम डीबी लाइव के यूट्यूब पर सब्सक्राइबर्स की संख्या एक करोड़ के पार हो गई है;
- सर्वमित्रा सुरजन
प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ नए जमाने के मीडिया यानी इंटरनेट के कारण पत्रकारिता का माहौल, कार्यशैली, प्राथमिकताएं बदल गईं। अब सोशल मीडिया ने एक इसमें बिल्कुल नया आयाम जोड़ दिया है। सोशल मीडिया की तमाम अच्छाइयों और बुराइयों, फायदे और नुकसान के बीच यह एक अकाट्य तथ्य है कि इस माध्यम के जरिए आम जनता तक सबसे तेजी से पहुंचा जा सकता है।
देशबन्धु समूह के सहयोगी उपक्रम डीबी लाइव के यूट्यूब पर सब्सक्राइबर्स की संख्या एक करोड़ के पार हो गई है। मंगलवार 7 अक्टूबर को जब डीबी लाइव चैनल इस अहम पड़ाव पर पहुंच रहा था, उसी समय सर्वोच्च न्यायालय में बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई चल रही थी। देशबन्धु और डीबीलाइव के प्रधान संपादक राजीव रंजन श्रीवास्तव अपने सहयोगी अमलेन्दु उपाध्याय के साथ इस सुनवाई पर लाइव कार्यक्रम कर रहे थे, जिसमें 10 हजार से ज्यादा दर्शक जुड़े हुए थे। इन हजारों दर्शकों की मौजूदगी में ही डीबी लाइव ने एक बड़े पड़ाव तक पहुंचने का सफर पूरा किया। इस विवरण को यहां साझा करने के दो मकसद हैं, पहला, यह कि देश में एक बड़ा तबका है जिसका रुझान गंभीर विषयों पर सार्थक चर्चा की तरफ है, जो खबरों को बिना घालमेल के देखना पसंद करता है। और दूसरा निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए देशबन्धु, डीबी लाइव की एक अहम उपलब्धि पाठकों तक पहुंचाना।
वास्तव में यह उपलब्धि देश के उन तमाम लोगों की है, जिनका यकीन लोकतंत्र और संविधान में बरकरार है, जो देश को इनके दायरे में ही देखने के आकांक्षी हैं। आजादी की लड़ाई में अखबारों, परचों आदि के जरिए अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का काम स्वाधीनता सेनानी करते थे। इसमें आर्थिक तंगी, ब्रिटिश हुकूमत के दमन, सत्ता समर्थक सुविधाभोगी वर्ग की गद्दारी, संसाधनों की कमी सारी दिक्कतें पेश आती थीं, मगर फिर भी एक जज़्बा होता था कि अच्छे विचार लोगों तक पहुंचे। गुलामी नागरिकों के आत्मसम्मान को कुचलती है, उनके अधिकारों का सौदा करती है, यह बात स्वाधीनता सेनानी जानते थे और जनता को इस तरफ से जागरुक करना चाहते थे। इसके लिए अखबारों, रेडियो आदि को माध्यम बनाया गया। आजादी के बाद देश में लोकतंत्र कायम हुआ, संविधान को अंगीकार किया गया, तब भी प्रेस की भूमिका वैसी ही बनी रही। पहले ब्रिटिश सरकार के दमन और उत्पीड़न के खिलाफ लिखा जाता था, आजादी के बाद निर्वाचित सरकारों पर पैनी निगाह बनाए रखना जरूरी हो गया। हालांकि तमाम क्षेत्रों की तरह मीडिया भी भ्रष्टाचार का शिकार हुआ। सत्ता के निकट रहने के लिए पक्षपाती खबरें बनाना, जनहित के मुद्दों पर पर्याप्त चर्चा न होना, अंधविश्वास का प्रसार, भ्रामक खबरों से समाज का माहौल बिगाड़ना, ऐसी तमाम बुराइयां मीडिया में भरती गईं। लेकिन इन बुराइयों का अर्थ यह नहीं है कि मीडिया का महत्व इनसे कम हो गया। जैसे संसद या विधानसभाओं में जो जनप्रतिनिधि पहुंचते हैं, उनसे हमारी सहमति हो या न हो, लेकिन इस बात से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि उन्हें जनता ने चुना है, लिहाजा उनका महत्व है, यही तर्क पत्रकारिता पर भी लागू होता है कि जनहित और देशहित में सूचनाओं का प्रसारण इसका दायित्व है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है।
प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ नए जमाने के मीडिया यानी इंटरनेट के कारण पत्रकारिता का माहौल, कार्यशैली, प्राथमिकताएं बदल गईं। अब सोशल मीडिया ने एक इसमें बिल्कुल नया आयाम जोड़ दिया है। सोशल मीडिया की तमाम अच्छाइयों और बुराइयों, फायदे और नुकसान के बीच यह एक अकाट्य तथ्य है कि इस माध्यम के जरिए आम जनता तक सबसे तेजी से पहुंचा जा सकता है। इसी वजह से राजनीति, खेल, व्यापार, कला, पत्रकारिता हर क्षेत्र में सोशल मीडिया पर उपस्थिति बनाई जा रही है। टीवी पर आने वाले तमाम समाचार चैनल अब सोशल मीडिया के जरिए भी खबरों का प्रसारण करते हैं। राजनैतिक दलों की मौजूदगी भी इस मंच पर बढ़ती जा रही है। खासकर नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में जब यह महसूस होने लगा है कि अपनी आवाज उठाने के लिए, अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्थान नहीं मिल रहा है, तो राजनैतिक दलों ने सोशल मीडिया का रुख करना शुरु कर दिया है। मीडिया में जिस भ्रष्टाचार का जिक्र ऊपर मैंने किया था, उसकी एक बड़ी वजह मीडिया में पूंजी का दखल था। बिना पूंजी के तो अखबार या चैनल पहले भी नहीं चलते थे, लेकिन तब पूंजी उतनी ही लगाई जाती थी, जैसे भोजन में नमक डाला जाता है, यानी स्वादानुसार, जितनी जरूरत हो उतनी ही। लेकिन अब पूंजी के लिए मीडिया संस्थान चलाए जा रहे हैं। जितना ज्यादा निवेश होगा, उतना अधिक मुनाफा कमाने के मौके बनेंगे। इसमें पत्रकारिता गौण होकर हाशिए पर चली गई है, पूंजी ही प्रधान हो गई है। ऐसी पूंजी से संचालित मीडिया केवल अपने मालिकों और उनके साथियों के हितों की बात करता है।
पिछले 11 सालों में भ्रष्टाचार, आतंकवाद, सांप्रदायिक नफरत, आर्थिक बदहाली, संवैधानिक संस्थाओं की दुर्गति, न्यायपालिका की विसंगतियां, संसदीय गरिमा को गिराने वाले अनगिनत प्रकरण हुए हैं, लेकिन सत्ता के समर्थन से और सत्ता के समर्थन में चलते हुए चैनलों और अखबारों में इनकी गिनी-चुनी खबरें आई हैं। विपक्ष की आवाज को तो यहां बिल्कुल ही तरजीह नहीं दी जाती। बल्कि विपक्षमुक्त भारत बनाने वाले नरेन्द्र मोदी के सपने को साकार करते हुए मुख्यधारा के चैनल अपनी चर्चाओं में बमुश्किल विपक्ष के किसी व्यक्ति को बिठाते हैं और चार-पांच लोग मिलकर उसका घेराव करते हैं। यह सिलसिला पिछले एक दशक से चल रहा है, हालांकि इसमें खुद विपक्ष का भी दोष है कि वह खुद के शिकार के लिए आमंत्रण क्यों देता है। लोकतंत्र की लड़ाई अब केवल लिखित सिद्धांतों से नहीं लड़ी जा सकती, उसके लिए व्यावहारिक चातुर्य भी दिखाना होगा। अगर विपक्ष इन चैनलों पर अपने प्रवक्ताओं, प्रतिनिधियों को भेजना बंद कर दे, तो भाजपा का विपक्ष मुक्त, संविधान मुक्त भारत का सपना आधा तो वहीं धराशायी हो जाएगा। और बचे आधे को मिटाने का काम इस देश की जनता कर देगी। जो अगर मुख्यधारा के चैनल देखती है, तो उसके साथ डीबी लाइव जैसे चैनल को भी करोड़ से ज्यादा सब्सक्राइब कर अपना समर्थन देती है।
पिछले कुछ बरसों में कई पत्रकार यूट्यूबर की भूमिका में आ गए हैं। पत्रकारिता में यह बड़ा बदलाव क्यों आया है, इस सवाल को भी शायद पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल करने की जरूरत है। समय के साथ पत्रकारिता के तौर-तरीकों, पत्रकारों के हुलिए, भाषा सब में बदलाव आया है, लेकिन उनका सरोकार नहीं बदला है। पत्रकार पहले भी जनता से जुड़े मुद्दों को समाज और सरकार के सामने रखते थे, उन पर गंभीर चर्चा, समाधान की मांग करते थे या समाधान सुझाते थे और अब भी उनका दायित्व वही है। लेकिन कई मीडिया संस्थानों ने अपने पत्रकारों को दबाव में पत्रकारिता करने के लिए मजबूर किया। बहुत से लोग इस मजबूरी में अपना उद्धार तलाश रहे हैं, लेकिन कई लोगों ने दबाव में आना नामंजूर किया और बड़े-बड़े वेतन वाली नौकरियां छोड़कर फिर से जमीनी पत्रकारिता करने उतर गए हैं। जिसमें महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक नफरत, महिलाओं, बच्चों, मजदूर, किसानों, दलितों, आदिवासियों के अधिकार, संवैधानिक संस्थाओं की साख जैसे गंभीर मुद्दों पर खबरें, चर्चाएं, विमर्श होते हैं। जहां चीखने-चिल्लाने की जगह संयमपूर्ण तरीके से अपनी बात कहने और दूसरे की बात सुनने का माहौल रहता है। हालांकि अब इन पर भी किसी न किसी तरह का अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है। कई पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज हुए, कई चैनल बंद हुए, कई लोगों को न्यायिक रक्षा कवच पहना दिया गया है कि इनका नाम खबरों में किसी तरह भी न आए। लेकिन इन अड़चनों के बावजूद एक वैकल्पिक मीडिया देश में खड़ा हो चुका है। और अगर देश के करोड़ों नागरिक इन चैनलों को देख रहे हैं, तो इसका मतलब यही है कि मुख्यधारा का मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। डीबी लाइव और इस तरह के बाकी तमाम चैनल अब नागरिकों की लोकतांत्रिक आस्था का आधार बन गए हैं।