शहरी हरियाली को बचाने जागरूक होते नागरिक

जयपुर तथा अन्य स्थानों में जमीनी स्तर पर आकार ले रहे आंदोलन हमें बताते हैं कि पर्यावरण के मुद्दे दरअसल आम लोगों के मुद्दे हैं;

Update: 2025-08-08 22:22 GMT

- लेखा रत्तनानी

जयपुर तथा अन्य स्थानों में जमीनी स्तर पर आकार ले रहे आंदोलन हमें बताते हैं कि पर्यावरण के मुद्दे दरअसल आम लोगों के मुद्दे हैं। आम नागरिक खासकर युवा, प्रकृ ति के अधिकारों के लिए, स्वच्छ हवा में सांस लेने और अपने आसपास प्रकृति के साथ रहने के अपने अधिकारों के लिए शहरी परिदृश्यों में भी तेजी से खड़े हो रहे हैं।

जयपुर में पिछले लगभग तीन दशकों से फल-फू ल रहा तकरीबन 105 एकड़ का प्राकृतिक रूप से विकसित वन अभ्यारण्य 'डोल का बाध' इस समय एक नई लड़ाई का केंद्र बन गया है जिस पर पूरे देश का ध्यान केंद्रित हो रहा है। इसे बचाने की कोशिश कर रहे एक आंदोलन और एक मॉल, एक फिनटेक पार्क और आवासीय भवनों के निर्माण के लिए ध्वस्त करने पर तुले बुलडोजरों के बीच छिड़े मुकाबले में गुलाबी शहर के अंतिम 'ग्रीन लंग' का भाग्य दांव पर लगा है।

इस योजना का विकास कर रहे राजस्थान औद्योगिक विकास एवं निवेश निगम (रीको) का तर्क है कि मॉल और टेक पार्क एक बड़ी व्यावसायिक परियोजना का हिस्सा हैं जो आर्थिक विकास और रोजगार सृजन के लिए आवश्यक है। इस योजना के विरोधियों का कहना है कि ये ढांचे कहीं और भी खड़े किए जा सकते हैं और 2,400 पेड़ों, पक्षियों की 80 से ज़्यादा प्रजातियों (जिनमें से कुछ लुप्तप्राय हैं, कई प्रवासी हैं) तथा नीलगाय, साही, नेवला, सांप, मोर आदि जैसे देशी वन्य जीवों वाले इस जंगल को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।

शहर के केंद्र में प्रकृति के इस दुर्लभ रत्न को संरक्षित करने और पर्यावरण विरोधी विकास एजेंडे के देश के अन्य हिस्सों में ऊपर से नीचे की, जमीनी स्तर से उठे अन्य आंदोलनों में इसकी गूंज दिखाई देती है। इस अर्थ में जयपुर के आंदोलन में मुंबई के आरे जंगल को बचाने के लंबे समय से चले आ रहे प्रयासों की प्रतिध्वनि है, जहां मेट्रो रेल कार शेड के लिए जगह बनानी पड़ी है या दक्षिण दिल्ली के जहांपनाह जंगल में साइकिल यात्रा की योजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन अथवा एक जलाशय परियोजना से खतरे में पड़े देहरादून के खलंगा जंगल का मामला है, जिसके लिए साल प्रजाति के लगभग 2,000 वृक्षों को काटना पड़ेगा।

शहरी वन कई मूल्यवान पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करते हैं जिनमें कार्बन पृथक्करण, बेहतर वायु और जल गुणवत्ता एवं कम ध्वनि प्रदूषण शामिल हैं। उदाहरण के लिए मुंबई में आरे वन क्षेत्र में बड़ी संख्या में पेड़ काटे जाने के पहले जिस किसी भी व्यक्ति ने वहां का दौरा किया है, उसने पूरे वर्ष तापमान में स्पष्ट गिरावट देखी; ठंडी और स्वच्छ हवा ने हज़ारों लोगों को बेहतर सांस लेने व उसे 'भारत के सबसे व्यस्त शहरों' की भीड़-भाड़ से दूर रहने के लिए इस क्षेत्र की ओर आकर्षित किया।

जयपुर से बहुत दूर स्थित कोच्चि शहर भी अनियोजित शहरी विस्तार के कारण घटते वृक्षावरण की वजह से बाढ़ और अत्यधिक गर्मी के खतरों का सामना कर रहा है। उपग्रह आंकड़ों के अनुमान बताते हैं कि कोच्चि की लगभग 31 प्रतिशत आबादी 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान में रहती है और शहर की करीब 26 फीसदी आबादी बाढ़ के मैदानों में रहती है। स्थानीय अधिकारी तथा नेता शहर की नई आपदा प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन योजना में वनों की व्यापक भूमिका की मांग कर रहे हैं। कोच्चि नगर निगम अब केरल राज्य का महिलाओं द्वारा संचालित गरीबी उन्मूलन मिशन 'कुदुम्बश्री' जैसे स्थानीय समुदाय-आधारित संगठनों और अन्य समूहों के साथ मिलकर वृक्षारोपण एवं वनों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है।

शहरी शासन और विकास पर काम करने वाली संस्था 'नागरिका' ने शहरी वृक्षावरण के क्षरण के मुद्दे की जांच की है व कम कार्बन उत्सर्जन वाले शहरों के लिए शहरी वानिकी के महत्व पर प्रकाश डाला है। शहरी वानिकी की चुनौतियां तथा लाभ एक जटिल प्रणाली है लेकिन इस सर्वमान्य और प्रमाण आधारित दृष्टिकोण से इनकार नहीं किया जा सकता कि वृक्षावरण के क्षरण से शहरी ऊष्मा द्वीप बढ़ सकते हैं जिससे तापमान में वृद्धि होगी और ठंडक पाने के लिए ऊर्जा की खपत बढ़ेगी।

बहुत से लोग शहरों को पेड़ों से नहीं जोड़ते और यह नहीं समझते कि शहरी क्षेत्र स्वस्थ वनों पर निर्भर हैं। शहरों के भीतर लगे पेड़ गर्मी को कम करते हैं, मिट्टी व पानी को रिचार्ज करते हैं और मनोरंजन के लिए जगह प्रदान करते हैं। शहरों के आसपास के जलग्रहण क्षेत्रों में लगे पेड़ पीने के पानी को छानते हैं और बाढ़ और भूस्खलन रोकने में मदद करते हैं।

जयपुर तथा अन्य स्थानों में जमीनी स्तर पर आकार ले रहे आंदोलन हमें बताते हैं कि पर्यावरण के मुद्दे दरअसल आम लोगों के मुद्दे हैं। आम नागरिक खासकर युवा, प्रकृ ति के अधिकारों के लिए, स्वच्छ हवा में सांस लेने और अपने आसपास प्रकृति के साथ रहने के अपने अधिकारों के लिए शहरी परिदृश्यों में भी तेजी से खड़े हो रहे हैं। वे जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभावों के प्रति भी संवेदनशील हैं एवं इसके विरुद्ध खड़े होकर प्रतिरोध करने को तैयार हैं।

यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन है जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। यह वास्तव में भारत तथा उसकी परंपराओं के लोकाचार पर आधारित है जो प्रकृति के प्रति श्रद्धा और सम्मान दर्शाते हैं, जहां हर पहाड़ और नदी को प्रार्थना स्थल या शांत चिंतन के स्थान के रूप में मान्यता दी जाती है। इस भूमि पर प्रकृति के प्रति श्रद्धा ईशोपनिषद से आती है-

'ईशा वश्यम् इदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत,

तेना त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विद धनम।।'

जिसका मोटे तौर पर अनुवाद है- पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह भगवान से आच्छादित है। त्याग द्वारा आनंद लो...'

(लेखिका द बिलियन प्रेस की प्रबंध संपादक हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)

Tags:    

Similar News