क्या बिहार से लेफ्ट एकता की राह पकड़ेगा?
बिहार के विधानसभा चुनाव के बहुत सारे पहलू हैं। और इनमें से ज्यादातर पर लिखा जा रहा है;
- शकील अख्तर
लेफ्ट इस समय अपने सबसे कमजोर दौर में है। लोकसभा विधानसभाओं में सदस्यों के हिसाब से भी और नेतृत्व के हिसाब से भी। हालांकि लेफ्ट के सैद्धांतिक लोग दोनों बातों को नहीं मानते हैं। न तो वे यह मानते हैं कि संसद विधानसभा में कम संख्या होने से देश के महत्वपूर्ण मामलों में उनकी राय विचार जनता को मालूम ही नहीं पड़ पाते हैं।
बिहार के विधानसभा चुनाव के बहुत सारे पहलू हैं। और इनमें से ज्यादातर पर लिखा जा रहा है। मगर एक और बहुत महत्वपूर्ण पहलू है जो दिख तो बहुत तेजी से रहा है मगर लिखा कम जा रहा है या कह सकते हैं नहीं के बराबर। वह है बिहार में लेफ्ट का उभार। किसी राज्य में बहुत समय बाद यह डवलमपेंट देखा गया।
लेफ्ट इस समय अपने सबसे कमजोर दौर में है। लोकसभा विधानसभाओं में सदस्यों के हिसाब से भी और नेतृत्व के हिसाब से भी। हालांकि लेफ्ट के सैद्धांतिक लोग दोनों बातों को नहीं मानते हैं। न तो वे यह मानते हैं कि संसद विधानसभा में कम संख्या होने से देश के महत्वपूर्ण मामलों में उनकी राय विचार जनता को मालूम ही नहीं पड़ पाते हैं। और न ही यह कि वहां अच्छे प्रभावशाली वक्ता नहीं होने से बाकी समान विचारों के दलों में जो उनकी धमक होती थी वह खतम हो गई है।
कभी हिरेन मुखर्जी, भुपेश गुप्त, इन्द्रजीत गुप्त, सोमनाथ चटर्जी, ज्योति वसु और शायद आखिरी सीताराम येचुरी संसद में ऐसी आवाजें थीं जो पक्ष विपक्ष सबको न केवल सुनने पर मजबूर कर देती थीं बल्कि सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों पर उनका गहरा प्रभाव पड़ता था।
इन्दिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजा रानियों के प्रीविपर्स- प्रिवलेज खत्म करने में लेफ्ट के प्रभाव का बड़ा हाथ था। ऐसे ही यूपीए सरकार में किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, राइट टू इन्फार्मेशन और दूसरे कार्यक्रम लेफ्ट की मदद से ही ले गए। मगर कांग्रेस और लेफ्ट दोनों की एक भयानक गलती अमेरिका से न्यूक डील पर लड़ पड़ने के कारण न केवल लेफ्ट यूपीए से अलग हुआ। बल्कि फिर सरकार भी गई। न्यूक डील के बाद जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए और सीपीआईएम के महासचिव येचुरी से उनसे मिलने गए तो जब हमने उनसे संसद भवन की प्रेस कान्फ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने जाने के बारे पूछा तो पहली बार उन्हें झुंझलाते हुए देखा। हमारा सवाल सिम्पल था कि अमेरिका के मुद्दे पर कांग्रेस से रिश्ता तोड़ा। फिर जिससे कांग्रेस ने समझौता किया था उससे मिलने जाने का कारण।
सीपीएम मानेगा या नहीं मगर न्यूक डील पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना यह उसकी दूसरी बड़ी हिमालयन ब्लंडर थी। पहली निश्चित ही तौर पर ज्योति वसु को प्रधानमंत्री बनने न देना थी। तीसरी हम अक्सर सीताराम से कहते थे उन्हें तीसरी बार राज्यसभा में नहीं जाने देना।
सीपीएम ने यह नियम बना रखा है कि दो बार से ज्यादा किसी को राज्यसभा नहीं दी जाएगी। ठीक है। मगर सीताराम जैसे प्रभावशाली वक्ता और समान विचार वाले दलों को साथ लेकर चलने वाले आदमी से बेहतर या उस जैसा ही कोई हो तब तो हटाना सही है। मगर केवल नियम के लिए कि दो टर्म हो गए हटा दिया संसद में पार्टी को कमजोर कर गया।
वे सीताराम येचुरी ही थे जिन्होंने एक बार राज्यसभा में मोदी सरकार को हरा दिया था। सोचिए कितनी ताकतवर सरकार बनती है। कैसा नियंत्रण है। वह वोटिंग में हारी।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव था। 2015 में। सामान्यत: वह ध्वनिमत से सर्वसम्मति से पास हो जाता है। मगर उस दिन राज्यसभा में जब प्रधानमंत्री मोदी चर्चा का जवाब देने खड़े हुए तो उन्होंने विपक्ष पर कई आरोप लगाए। जैसे अभी भी लगाते हैं। इसके बाद धन्यवाद प्रस्ताव पास होता है। मगर प्रधानमंत्री के रवैये को देखते हुए सीताराम अपने एक संशोधन प्रस्ताव पर अड़ गए। आम तौर पर होता यह है कि विपक्ष अपने संशोधन प्रस्ताव वापस ले लेता है और धन्यवाद प्रस्ताव पास हो जाता है। मगर सीताराम ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के विपक्ष पर आरोप तथ्यहीन गलत तो हैं ही, मगर गैर जरूरी भी हैं। उनका यह रवैया स्वीकार नहीं किया जा सकता। मेरे संशोधन प्रस्ताव पर वोटिंग करवाइए। सरकार मुश्किल में पड़ गई। सीताराम ने पूरे विपक्ष को तैयार किया। और वोटिंग हुई मोदी सरकार हारी।
यह सामान्य बात नहीं थी। इतिहास में केवल चौथा मौका था जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर विपक्ष का संशोधन स्वीकार हुआ हो। इससे पहले जनता पार्टी की सरकार में, वीपी सिंह और वाजपेयी की सरकार में यह हुआ था। संसद विधानसभाओं में लेफ्ट की उपस्थिति भाजपा के नरेटिव को हमेशा रोकती है। एक और घटना याद आती है कि राज्यसभा में ही वाजपेयी सरकार में मंत्री सुषमा स्वराज जब प्रेमचंद के बारे में अपमानजनक तरीके से बोल रहीं थी कि क्या केवल इन्हीं को पढ़ाते रहें तो सरला माहेश्वरी ने उन्हें रोका था और कड़ा जवाब दिया था। सीपीएम की सांसद रहीं सरला राजस्थान के प्रसिद्ध जनकवि हरीश भदानी की बेटी हैं।
वही लेफ्ट अब संसद विधानसभाओं के साथ जमीन पर भी कमजोर हो गया है। मगर यहीं उसके लिए बिहार उम्मीदों का केन्द्र बन रहा है। यहां दोनों प्रमुख लेफ्ट पार्टियों सीपीएम और सीपीआई के बदले सीपीआईएमएल (माले) लीड कर रहा है और अच्छी बात यह है कि बाकी दोनों लेफ्ट पार्टियों को इससे कोई दिक्कत नहीं है।
नहीं तो एक समय सीपीएम, माले से बात करने को भी तैयार नहीं था। उसके साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने का तो सवाल ही नहीं। लेकिन वक्त के साथ सीपीएम कमजोर हुआ और माले ताकतवर।
आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत तो लेफ्ट पार्टियों की एकता की है। मगर इस पर जब भी बात करो लेफ्ट के सैद्धांतिक नेता आप पर टूट पड़ते हैं। वे उसी अकादमिक वाम विचारधारा को लागू करना चाहते हैं जो भारत की विशेष स्थिति के कारण कभी हो नहीं पाई। यहां की जाति समस्या और उसके कारण शोषण और गरीबी को वे समझते हैं मगर मानकर उसी तरह से काम नहीं कर पाते। सीताराम ने महासचिव रहते हुए लाल और नीले के साथ आने की बात कही। मगर नहीं कर पाए। हालांकि लेफ्ट व्यक्तित्वों को मानता नहीं है। मगर लेफ्ट में आखिरी प्रभावशाली शख्सियत सीताराम ही हुए।
मगर उनका जितना उपयोग किया जाना था नहीं हुआ। सच तो यह है राज्यसभा के सदस्य के तौर पर उनका काम ज्यादा बड़ा हो गया, पार्टी महासचिव के तौर पर उन्हें कुछ करने का मौका नहीं मिला।
उनसे पहले हरकिशन सिंह सुरजीत ने पार्टी महासचिव रहते हुए बताया था कि पार्टी के विस्तार और विपक्ष की एकता दोनों के लिए साथ काम कैसे किया जाता है। उनके बाद प्रकाश करात का कार्यकाल वैसा ही रहा जैसा सीपीआई में ए बी वर्धन के बाद डी राजा का।
लेकिन इसी समय में माले में दीपंकर भट्टाचार्य ने अपने नेतृत्व की छाप छोड़ी। मुख्य कार्यक्षेत्र उनका बिहार ही है इसलिए अब वहां से लेफ्ट के वापस मजबूत होने की बात भी कही जा रही है। चुनाव में माले को महागठबंधन में 20 और सीपीएम सीपीआई को 6-6 सीटें मिली हैं।
मगर इससे ज्यादा खास बात यह है कि लेफ्ट के कड़े साम्प्रदायिक विरोधी रवैये और गरीब कमजोर के साथ मजबूती से खड़े होने के कारण महागठबंधन के बाकी घटक दलों में भी यह चेतना बढ़ती है।
बिहार से अगर चाहे तो लेफ्ट अपनी वापसी का रास्ता फिर पकड़ सकता है। अभी सिर्फ एक राज्य केरल में उसकी सरकार है और बिहार के बाद वहीं चुनाव होने वाले हैं। विस्तार के लिए या वापसी के लिए उसे पूरे देश में जाना होगा।
यह वह विचारधारा है जिसे मुद्दे बताने की जरूरत नहीं। जो जनता के वास्तविक हैं, वह उसके हैं। मगर आपसी एकता जिसका नाम सुनते ही लेफ्ट के हमारे कई दोस्त भड़क जाते हैं वह आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
अभी एक बात कह दें तो बुरी बहुत लगेगी मगर पत्रकार का काम है कड़वा सच भी बोलना तो बीजेपी के साथ एक मंच शेयर कर सकते हैं? वीपी सिंह के आन्दोलन में। साथ 77 का अभी अन्ना वाला आंदोलन कर सकते हैं? जनता पार्टी सरकार को भी और वीपी सरकार को भी भाजपा के साथ समर्थन दे सकते हैं तो फिर एक ही विचारधारा के अपने अलग-अलग दलों का विलय क्यों नहीं कर सकते?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)