एक आज़ाद ख्याल अफ़साना निगार
संदर्भ : 21 अगस्त, अफ़साना निगार इस्मत चुग़ताई का जन्मदिवस;
- ज़ाहिद ख़ान
समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में इस्मत चुग़ताई का नाम किसी तआरुफ़ का मोहताज नहीं। वे जितनी हिंदोस्तान में मशहूर हैं, उतनी ही पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी। उनके चाहने वाले यहां भी हैं और वहां भी। आज भी उर्दू और हिंदी दोनों ही ज़बानों में उनके पाए की कोई दूसरी कथाकार नहीं मिलती। इस्मत चुग़ताई ने उस दौर में स्त्री-पुरुष समानता और इन दोनों के बीच ग़ैर बराबरी पर बात की, जब इन सब बातों पर सोचना और लिखना भी मुश्किल था। अपने ही घर में मज़हब, मर्यादा, झूठी इज़्ज़त के नाम पर ग़ुलाम बना ली गई, औरत की आज़ादी पर उन्होंने सख़्ती से क़लम चलाई। उन्होंने उन मसलों पर भी क़लम चलाई, जिन्हें दीगर साहित्यकार छूने से भी डरते और कतराते थे। इस्मत चुग़ताई के लेखन में धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता का हमेशा ज़ोर रहा। अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता, सामंती प्रवृतियों, वर्गभेद और जातिभेद का उन्होंने ज़मकर विरोध किया।
इस्मत चुग़ताई का दौर, वह ज़माना था जब उर्दू अदब में सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे चमकदार लेखक अपनी लेखनी से हंगामा बरपाए हुए थे। इन सबके बीच अपनी जगह बनाना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन इस्मत चुग़ताई ने न सिफ़र् इस चुनौती को स्वीकार किया, बल्कि अपनी एक अलग पहचान भी बनाई। उनकी सोच अपने समय से काफ़ी आगे थी। लिहाफ़' वह कहानी है, जिसने इस्मत चुग़ताई को एक साथ शोहरत दी, तो बदनामी भी। महिलाओं के बीच समलैंगिकता के बोल्ड मुद्दे पर लिखी गई यह हंगामेदार कहानी, उस दौर की मशहूर पत्रिका 'अदबे लतीफ़' में शाया हुई। उसी वक़्त इस्मत चुग़ताई का एक अफ़साने का मजमूआ आ रहा था, तो यह कहानी किताब में भी छप गई। परंपरावादी मुस्लिम समाज इस कहानी को पढ़कर भड़क उठा। कुछ आलोचकों और शुरफ़ा (शरीफ़ों) ने बरतानिया हुकूमत का तवज्जोह इस कहानी की तरफ़ कराया और सरकार से मांग की, ''कहानी नैतिकता के ख़िलाफ़ है, लिहाज़ा सरकार इस कहानी को ज़ब्त कर ले।'' बहरहाल, कहानी के ख़िलाफ़ अख़बारों—मैगज़ीनों में मज़मून निकले और अदबी और ग़ैर अदबी महफ़िलों में इस पर गर्मा—गर्म बहसें होतीं। इस अफ़साने की मुख़ालफ़त में पत्रिका के एडिटर और ख़ुद उनके पास इतने ख़त आए कि एक वक़्त, तो वे और उनके पति शाहिद लतीफ़ परेशान हो गए।
फ़हाशी (अश्लीलता) के इल्ज़ाम में मंटो और इस्मत चुग़ताई दोनों पर अदालत में मुक़दमे चले। यहां तक कि उन दोनों की गिरफ़्तारी भी हुई। लाहौर की अदालत में जब इनके मामले की सुनवाई होती थी, तो इन दोनों को देखने के लिए कॉलेजों के तालिब—ए-इल्म टोलियां बांध-बांधकर आते थे। बहरहाल यह मुक़दमा, अदालत में नहीं टिक सका। मंटो और इस्मत चुग़ताई इस मुक़दमे से बाइज़्ज़त बरी हो गए। कहानी 'लिहाफ़' के बारे में ख़ुद इस्मत चुग़ताई क्या सोचती थीं, पाठकों के लिए यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा। जब इस कहानी के बारे में उर्दू के एक अदीब एम. असलम, जो कई किताबों के लेखक थे, से उनकी बहस हुई, तो चुग़ताई ने उन्हें यह कहकर लाजवाब कर दिया,''मुझे कभी किसी ने नहीं बताया कि 'लिहाफ़' वाले मौज़ू पर लिखना गुनाह है।
न मैंने किसी किताब में पढ़ा कि इस मज़र् या लत के बारे में नहीं लिखना चाहिए। शायद मेरा दिमाग़ अब्दुरर्रहमान चुगताई का ब्रश नहीं, एक सस्ता सा कैमरा है, जो कुछ देखता है, खट से बटन दब जाता है और मेरा क़लम मेरे हाथ में बेबस होता है। मेरा दिमाग़ उसे बरगला देता है। दिमाग़ और क़लम के कि़स्से में दख़लअंदाज़ नहीं हो पाती।'' (इस्मत चुग़ताई-किताब 'काग़ज़ी है पैरहन', पेज-32-33)
कहानी 'लिहाफ़' के बाद इस्मत चुग़ताई ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। पत्रिकाओं में उनकी कहानियों की मांग बढ़ने लगी। पाठक उनकी कहानियों का इंतज़ार करते।जब-जब भी उनकी कहानियों पर एतराज़ उठते, कहानियों की मांग और भी बढ़ जाती। 'लिहाफ़' के प्रकाशन के बाद उनके आलोचकों ने तो उन्हें फ़ुहश—निगार (अश्लील लेखक) का तमग़ा दे दिया। उनके बारे में यह बातें फैलाई जाती कि वे जिंसियात पर ही लिखतीं हैं। लेकिन इस्मत चुग़ताई ने इन आलोचना की बिल्कुल परवाह न की। उन्होंने वही लिखा, जो अपने समाज में देखा। सच को सच और ग़लत को ग़लत कहने की हिम्मत इस्मत चुगताई के अंदर थी। वे यर्थाथवादी थीं।
कहानी 'चौथी का जोड़ा' और 'मुग़ल बच्चा' उनकी बेमिसाल कहानियां हैं। इस्मत चुग़ताई, औरतों को हर तरह की आज़ादी के हक़ में थीं। औरतों पर समाजी, मज़हबी बंदिशों की उन्होंने हमेशा मुख़ालफ़त की। इस्मत चुगताई ने अपनी कहानियों में औरत की आर्थिक गुलामी और मजबूरी पर हमेशा क़लम चलाई। उनका सोचना था,''एक लड़की अगर अपने वारिसों का सिफ़र् इसलिए हुक्म मानती है कि आर्थिक तौर पर मजबूर है, तो फ़रमांबरदार नहीं, धोखेबाज़ ज़रूर हो सकती है। एक बीवी शौहर से सिफ़र् इसलिए चिपकी रहती है कि रोटी-कपड़े का सहारा है, तो वह तवायफ़ से कम मजबूर नहीं। ऐसी मजबूर औरत की कोख से मजबूर और महकूम-ज़ेहनियत इंसान ही जन्म ले सकेंगे। हमेशा दूसरी तरक़्क़ीयाफ़्ता क़ौमों के रहमो-करम पर इक्तिफ़ा करेंगे। जब तक हमारे मुल्क की औरत मजबूर, लाचार, ज़ुल्म सहती रहेगी, हम इकि़्तसादी और सियासी मैदान में एहसास—ए-कमतरी का शिकार बने रहेंगे।''(इस्मत चुग़ताई- किताब 'काग़ज़ी है पैरहन',पेज-15)
इस्मत चुग़ताई को वतन की गंगा-जमुनी तहज़ीब से बेहद प्यार था। वतन की सांझा संस्कृति में वे अपनी भी हिस्सेदारी की बात करती थीं, ''मैं मुसलमान हूं, बुत—परस्ती शिर्क है। मगर देवमाला मेरे वतन का विरसा है। इसमें सदियों का कल्चर और फ़लसफ़ा समोया हुआ है। ईमान अलाहदा है, वतन की तहज़ीब अलाहदा है। इसमें मेरा बराबर का हिस्सा है। जैसे उसकी मिट्टी, धूप और पानी में मेरा हिस्सा है। मैं होली पर रंग खेलूं, दीवाली पर दिये जलाऊं, तो क्या मेरा ईमान मुतज़लज़ल हो जाएगा। मेरा यक़ीन और शऊर क्या इतना बोदा है, इतना अधूरा है कि रेज़ा-रेज़ा हो जाएगा।'' (इस्मत चुग़ताई-किताब 'काग़ज़ी है पैरहन',पेज-22)
इस्मत चुग़ताई ने 24 अक्टूबर, 1991 को इस दुनिया से विदाई ली। जाते-जाते भी वे दुनिया के सामने एक मिसाल छोड़ गईं। उनकी वसीयत के मुताबिक़ मुंबई के चंदनबाड़ी शमशान गृह में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया। एक मुस्लिम औरत का मरने के बाद, दफ़नाए जाने की बजाय हिंदू रीति रिवाजों से दाह संस्कार, सचमुच उनका एक आश्चर्यजनक और साहसिक फ़ैसला था। इस्मत चुग़ताई के इस फ़ैसले से उनके कुछ तरक़्क़ीपसंद साथी नाराज़ भी हुए। लेकिन चुग़ताई अलग मिट्टी की बनी हुई थीं, न तो वे अपने जीते जी कभी लीक पर चलीं और न ही मरने के बाद। इस्मत चुग़ताई की शानदार शख़्सियत के बारे में मंटो ने क्या ख़ूब कहा है, ''इस्मत पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा। कोई उसे पसंद करेगा, कोई ना—पसंद। लेकिन लोगों की पसंदगी और ना—पसंदगी से ज़्यादा अहम चीज़ इस्मत की तख़्लीक़ी क़ुव्वत है। बुरी, भली, उरियां, मस्तूर जैसी भी है, क़ाइम रहनी चाहिए। अदब का कोई जुगराफ़िया नहीं। उसे नक़्शों और ख़ाकों की क़ैद से, जहां तक मुमकि़न हो, बचाना चाहिए।'' (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज-5, पेज 73)