बांग्लादेश में अब मीडिया भी कट्टरपंथी ताकतों के निशाने पर

बांग्लादेश में आगामी फरवरी में होने वाले आम चुनावों से पहले कट्टरपंथी ताकतें अब मीडिया का गला घोंटने का प्रयास कर रही हैं. देश के दो प्रमुख मीडिया संस्थानों पर हमला और आगजनी के अलावा एक पत्रकार की हत्या इसका सबूत है;

Update: 2025-12-23 13:39 GMT

बांग्लादेश में आगामी फरवरी में होने वाले आम चुनावों से पहले कट्टरपंथी ताकतें अब मीडिया का गला घोंटने का प्रयास कर रही हैं. देश के दो प्रमुख मीडिया संस्थानों पर हमला और आगजनी के अलावा एक पत्रकार की हत्या इसका सबूत है.

बांग्लादेश में बीते बृहस्पतिवार को युवा नेता उस्मान हादी की मौत के बाद भड़की हिंसा की आड़ में कट्टरपंथी ताकतें अब मीडिया संस्थानों का गला घोंटने की कोशिश कर रही हैं. देश के दो प्रमुख संस्थानों 'द डेली स्टार' और 'प्रथम आलो' पर बड़े पैमाने पर हुए हमले, लूटपाट और आगजनी ने मोहम्मद .युनूस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है. बांग्लादेश के इतिहास में अब तक किसी मीडिया संस्थान पर इतने बड़े पैमाने पर हमला नहीं किया गया था.

इन हमलों के बाद संपादकों और वरिष्ठ पत्रकारों ने कहा है कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी अब कोई मुद्दा नहीं रहा. यहां जीवित रहने का अधिकार ही सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है. मीडिया संस्थान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. जिन संस्थानों पर हमले किए गए उनमें से एक 'प्रथम आलो' के संपादक मतीउर रहमान ने सोमवार को एक कार्यक्रम में कहा, "बांग्लादेश में कोई भी पार्टी मीडिया की आलोचना बर्दाश्त नहीं करती. अवामी लीग सरकार के कार्यकाल में भी पत्रकारों के उत्पीड़न के कई मामले सामने आए थे. लेकिन इस बार तो यह तमाम सीमाओं का पार कर गया है."

इन हमलों से पहले उसी दिन खुलना में एक पत्रकार इमदादुल हक मिलन की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, 2025 में देश के 180 देशों में बांग्लादेश 149वें स्थान पर है. इस मामले में उसकी स्थिति पहले से कुछ बेहतर जरूर हुई है. लेकिन अब भी यह 'बेहद गंभीर' श्रेणी में हैं.

क्या हुआ था उस रात

बांग्ला दैनिक 'प्रथम आलो' और अंग्रेजी के 'द डेली स्टार' की गिनती राज्य के अग्रणी मीडिया संस्थानों में की जाती है. कट्टरपंथी ताकतें इन पर हसीना समर्थक होने के आरोप लगाती रही हैं. इससे पहले अंतरिम सरकार तमाम मीडिया संस्थानों पर शेख हसीना के बयान चापने पर पाबंदी लगा चुकी है. लेकिन बावजूद इसके इन अखबारों में हसीना के बयान छपते रहे हैं.

हमले के बाद आगजनी में 'प्रथम आलो' का दफ्तर जल कर राख हो गया है. 'द डेली स्टार के इमारत की निचली दोनों मंजिलें भी पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं. इन अखबारों के इतिहास में यह पहला मौका था जब हमले के अगले दिन इनका प्रकाशन ठप रहा.

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'द डेली स्टार' पर हमले के बाद छत पर फंसे करीब 28 पत्रकारों में से एक जाईमा इस्लाम ने सोशल मीडिया पर अपनी एक पोस्ट में लिखा था, "मैं सांस नहीं ले पा रही हूं. चारों ओर धुआं भरा है. आप लोग हमें जान से मार रहे हैं."

'प्रथम आलो' के कार्यकारी संपादक सज्जाद शरीफ ने सोमवार को ढाका में पत्रकारों से कहा,"मैंने कभी ऐसे हमले की कल्पना तक नहीं की थी. स्वतंत्र मीडिया के लिए यह एक काला दिन के तौर पर याद किया जाएगा. हमारे 27 साल के सफर में पहली बार हमले की वजह अखबार का प्रकाशन बंद रखना पड़ा."

पत्रकारों में आतंक

ढाका में 'प्रथम आलो' अखबार के एक पत्रकार तपू मजूमदार (बदला हुआ नाम) डीडब्ल्यू से बातचीत में बृहस्पतिवार रात की घटना की भयावहता बताते हैं. वो कहते हैं, "उस रात छत पर फंसे दो दर्जन से ज्यादा पत्रकारों ने मान लिया था कि अब शायद जान नहीं बचेगी. नीचे और दफ्तर में तोड़फोड़ और आगजनी करने वाली भीड़ में उन्माद साफ नजर आ रहा था. कुछ पत्रकारों ने किसी तरह नीचे उतरने का प्रयास किया. लेकिन भीड़ के तेवर देख कर वो उल्टे पांव लौट आए. फायर ब्रिगेड के पहुंचने पर भी हम नीचे उतरने की हिम्मत नहीं जुटा सके. करीब चार घंटे बाद सेना के मौके पर पहुंचने के बाद ही हम नीचे उतर सके."

वो बताते हैं कि अब भी ज्यादातर पत्रकार अपना घर छोड़ कर रिश्तेदारों के घर रह रहे हैं. कभी भी कुछ भी हो सकता है. तपू ने अपने परिवार को खुलना जिले में अपने मामा के घर भेज दिया है. उनका कहना है कि अवामी लगी सरकार के समय भी सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती थी. लेकिन अब तेजी से उभरी कट्टरपंथी ताकतें तो कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. यहां पत्रकारों का जीवन बेहद खतरे में है.

'द डेली स्टार' के एक वरिष्ठ पत्रकार तारिक रहमान (बदला हुआ नाम) डीडब्ल्यू से कहते हैं, "बीस साल के अपने करियर में मैंने धमकियां तो बहुत झेली हैं. लेकिन पहली बार लग रहा है कि हमारे साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है. तमाम पत्रकार आतंक के साये में काम कर रहे हैं. उनका कहना था कि अगर चुनाव हुए तो ऐसी ही कट्टरपंथी ताकतें सत्ता में आएंगी. उसके बाद हमें उनके इशारे पर ही काम करना होगा."

तारिक अब किसी तरह भारत में अपने रिश्तेदारों के पास जाने की कोशिश में जुटे हैं. लेकिन वीजा कार्यालय बंद होने से यह भी अनिश्चित हो गया है.

मीडिया के भविष्य और सरकार की मंशा पर सवाल

बांग्लादेश के विश्लेषकों और वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि हमले के शिकार दोनों मीडिया संस्थान अब भी खतरे से बाहर नहीं हैं. इसकी वजह यह है कि हमले के दौरान प्रशासन की भूमिका पर अनगिनत सवाल खड़े हो रहे हैं. अंतरिम सरकार ने इस मामले में खास सक्रियता नहीं दिखाई.

प्रथम आलो की ओर से जारी बयान भी इसकी पुष्टि करते हैं. इस बयान में कहा गया है कि हमले की आशंका को ध्यान में रखते हुए संस्थान ने सरकार और सुरक्षा एजेंसियों से संपर्क किया था. लेकिन उनके आने से पहले ही हमला हो गया.

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हमले की वजह से शुक्रवार को दोनों अखबार नहीं छप सके. शनिवार का संस्करण छपा. 'प्रथम आलो' ने अपने पहले पेज पर लीड का शीर्षक दिया था, "प्रथम आलो और डेली स्टार पर हमला.' 'द डेली स्टार' की पहली खबर की हेडिंग थी-"अनबोड" यानी अडिग या हम झुकेंगे नहीं.

हालांकि अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस ने शुक्रवार को ही दोनों अखबारों के संपादकों से फोन पर बातचीत की थी. लेकिन मीडिया संस्थानों और पत्रकारों में कायम आतंक कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है.

इन हमलों के मामले में सरकारी कार्रवाई भी प्रशासन की मंशा पर सवाल उठाती है. हमले के तीन दिनों बाद अब तक महज 17 लोगों को ही गिरफ्तार किया गया है. पुलिस और जांच एजेंसियों ने कुछ और लोगों को शिनाख्त करने की बात कही है. लेकिन इस मामले में कार्रवाई की धीमी रफ्तार ने सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है.

बांग्लादेश के वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद रिजवान डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "यहां बरसों से पत्रकारिता करना दुधारी तलवार पर चलने जैसा रहा है. लेकिन अब हालात बेहद खराब हैं. पत्रकार हर पल आतंक में दिन काट रहे हैं. बीते साल अगस्त से ही कइयो को लगातार जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं."

रिजवान कहते हैं कि ताजा हमलों के बाद बाद मीडिया संस्थानों में भले कुछ दिनों के लिए सुरक्षा बढ़ा दी गई हो, अलग-अलग रहने वाले पत्रकार अब भी कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं.

एक निजी टीवी चैनल में काम करने वाले रतन दास (बदला हुआ नाम) डीडब्ल्यू से कहते हैं, "बांग्लादेश की मौजूदा परिस्थिति में पत्रकारिता करने का मतलब अपनी जान हथेली पर लेकर चलना है. कब कहां हमला हो जाए, यह कहना मुश्किल है. सरकार मीडिया की आजादी सुनिश्चित करने के प्रति कतई गंभीर नहीं है. इन हमलों के बाद जांच एजेंसियों की सुस्त कार्रवाई ही उसकी मंशा का सबूत है."

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