आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाए
उत्कट प्रेम में समर्पण 'आध्यात्मिक' ऊँचाई तक चला जाता है। यहां लौकिकता और 'अलौकिकता'अद्भुत समन्वय होता है;
- अजय चंद्रवंशी
उत्कट प्रेम में समर्पण 'आध्यात्मिक' ऊँचाई तक चला जाता है। यहां लौकिकता और 'अलौकिकता'अद्भुत समन्वय होता है। शरीर और मन एक हो जाते हैं. दोनों में कोई विरोध नहीं रहता। यहां 'आध्यात्मिक' और 'अलौकिकता' भाववादी शब्दावली हैं मगर उस भावदशा को प्रकट करने के लिए लोक प्रचलित कितने सार्थक शब्द हैं!
मध्य कालीन भक्त कवियों ने इस शैली में अपने पद रचे। उनके सांसारिक सुख -दुख भी भक्ति के रंग में प्रकट होते रहें। सूर की गोपियों का कृष्ण के प्रति प्रेम लौकिक जीवन की ही छाया है।मीरा की पदावलियों में प्रकारान्तर में उनके जीवन का ही अक्स है।
$िफल्म 'प्यासा' का गीत 'आज सजन मोहे अंग' लगा लो इस कीर्तन शैली का अद्भुत गीत है। गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा है, मगर कहा जाता है एस. डी. बर्मन ने बांग्ला में इसे लिखा था और उस पर साहिर ने हिंदी संकरण लिखा। जो भी हो साहिर इस तरह के गीत लिखने में सक्षम थे। संगीतकार एस.डी.बर्मन ने कीर्तन के भावानुरूप संगीत रचा है। गीत के बोलों के अनुरूप स्वर में उतार-चढ़ाव, खासकर आख़िरी अंतरा में स्वर में जो गति है, वह कमाल की है। कीर्तन के अनुरूप ढोल -मंजिरा, बांसुरी का प्रयोग बढ़िया है।
मगर गीता दत्त का क्या कहिए! आवाज़ में कैसी विकलता ! कैसी तड़प ! गीत के भाव जैसे उस आवाज़ में पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं । वाक्य के आखिरी शब्द को विस्तार देना अद्भुत लगता है।गीता जी की कोई भी विरह के गीत सुनिए उनके जीवन की त्रासदी याद आ ही जाती है।
वहीदा रहमान की अदाकारी भी कमाल की है। सिचुएशन के मुताबिक अभिनय ने गीत की प्रभाविकता को और बढ़ा दिया है। एक कालगर्ल जिसे सबने केवल भोग की वस्तु समझा है, उसके अंतस की संवेदना, उसके मानवीय गरिमा की चाह, उसके प्रेम की कामना को किसी ने नहीं समझा। उसे भोग के बाद हमेशा उपेक्षा और दुत्कार ही मिली है। ऐसे में एक जब युवक उससे मानवीय गरिमा के साथ पेश आता है, उससे सामान्य इंसान की तरह व्यवहार करता है तो यह घटना उसके लिए असामान्य होती है और वह स्वभाविक रूप से उसके तरफ खींची चली जाती है। उसकी दबी -कुचली संवेदनाएँ जाग पड़ती हैं। उसके अंदर प्रेम का प्रस्फुटन होता है। मगर एक झिझक कहीं बाकी है। ज़ाहिर है यह झिझक अपने हालात के कारण है। गीत जैसे-जैसे आगे बढ़ता है झिझक मिटती जाती है और चेहरे में खुशी उभरती जाती है। मगर अफसोस! चरम में झिझक फिर हावी हो जाती है और वह वापस लौट जाती है। इस पूरे उपक्रम से युवक अनजान ही रहता है।
फिल्मांकन गजब का है। नायक छत पर खड़ा है। नायिका नीचे सीढ़ी के पास खड़ी है। पार्श्व में कीर्तन चल रहा है 'आज सजन मोहे अंग लगा लो जनम सफल हो जाए'। नायिका जो कि कॉलगर्ल है शराब के नशे में है, मगर चेतन है। प्रारंभ में द्वंद्वग्रस्त अपने ही प्रेम के प्रति असमंजस में है,मानो कुछ गलत हो रहा है मानो 'उस जैसे स्त्री' प्रेम में नहीं पड़ सकती ! मगर इस द्वंद से वह मुक्त होती है और नायक से मिलने सीढ़ी चढ़ती जाती है और उसका प्रेम मुखर होते जाता है।
वहीदा रहमान की चेहरे की भंगिमा गीत के भाव के अनुसार अद्भुत रूप से बदलती है।नशे में डूबी आँखें, दुख,असमंजस, तड़प के भाव को जीवंत कर देती हैं।
ज़ाहिर है इन सब प्रभावों में गुरुदत्त के निर्देशन और वी. के.मूर्ति के फोटोग्राफी का भी कमाल शामिल है।
गीत भी कीर्तन के परंपरागत रूप में राधा-कृष्ण का आलंबन लेकर नायिका की मनोदशा को बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त करता है । महत्वपूर्ण यह है कि इसमें 'आत्मा से परमात्मा का मिलन' नहीं, मन और शरीर के मिलन की कामना प्रेम की पूर्णता के लिए की गई है । 'हृदय की पीड़ा'के साथ 'देह की अग्नि' के शीतल होने की कामना है । 'मन के तपन'के साथ 'तन की जलन' भी है। अंतर घट तक की यह प्यास देह रहित नहीं है। यह सांसारिक है!