घर-घर के खेल में असुरक्षित घरवाले
जब नेतृत्व स्वयं पथ विचलित, भटका हुआ, और निजी स्वार्थों के चंगुल में फंसा होता है, तब देश कितनी अनावश्यक उलझनों का शिकार होता है;
- सर्वमित्रा सुरजन
पहले जब सेना के काम का श्रेय सरकारें नहीं लेती थीं, तो किसी सैन्य अभियान के बारे में जानकारी आधिकारिक सूत्रों के जरिए अखबारों, रेडियो, टेलीविजन आदि के जरिए जनता को मिलती थी और जनता को हमेशा से अपनी सेना पर गर्व रहा। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी सैन्य अभियान पर जनता ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी हो। लेकिन अब जबकि सरकार से पहले डोनाल्ड ट्रंप ने युद्धविराम का ऐलान कर दिया
जब नेतृत्व स्वयं पथ विचलित, भटका हुआ, और निजी स्वार्थों के चंगुल में फंसा होता है, तब देश कितनी अनावश्यक उलझनों का शिकार होता है, मौजूदा दौर इसकी गवाही दे रहा है। 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के असली दोषी कहां हैं, इसका कुछ पता नहीं है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर से देश में तो मीडिया ने यह सवाल नहीं किया, लेकिन विदेश में जब उनसे इस बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था हमने उनकी पहचान कर ली है। अब इसके आगे क्या कार्रवाई सरकार की तरफ से हो रही है, यह गोपनीय ही है और देश फिलहाल यही जान पाया है कि आतंकियों की शिनाख्त कर ली गई है। ये आतंकी पहलगाम तक पहुंचे कैसे, हाथ में बंदूक लेकर जब वो पर्यटकों से भरी बैसरन घाटी में जा रहे थे, तो किसी सुरक्षा एजेंसी की निगाह में कैसे नहीं आए, ये अबूझ पहेली बनी हुई है। ठीक उसी तरह जैसे पुलवामा में विस्फोटकों से लदी कार सैन्य वाहन के पास कैसे पहुंची।
वैसे तो जम्मू-कश्मीर में चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा और सैन्य व्यवस्था रहती है, लेकिन कम से कम इन दो बड़ी घटनाओं के वक्त यह व्यवस्था किस खोल में छिपी थी, इसके जवाब सरकार से लगातार मांगे जा रहे हैं और सरकार चुप है। अलबत्ता प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों और सभाओं का सिलसिला जारी है, जहां वे ऑपरेशन सिंदूर को लेकर तमाम दावे कर रहे हैं। अपने ऊपर पुष्पवर्षा तक करवा ली, मानो वही पाकिस्तान के आतंकी अड्डों को खत्म करने सीमा पार कर गए थे। इधर भाजपा ने अब एक नया कार्यक्रम शुरु करने का फैसला लिया है, जिसमें घर-घर सिंदूर भाजपा पहुंचाएगी। घर-घर शब्द विन्यास शायद नरेन्द्र मोदी को काफी पसंद है। पहले हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का शोर किया, फिर घर-घर नल-जल योजना बनाई, इसके बाद हर घर तिरंगा अभियान चला, अब घर-घर सिंदूर खेला शुरु हो गया है।
इस घर-घर के चक्कर में असल में घर में, घरवालों पर क्या बीत रही है, इसका कोई अंदाज सरकार को नहीं है और शायद वह लगाना भी नहीं चाहती। उसकी मंशा किसी भी घटना से राजनैतिक लाभ लेने की बन चुकी है। सैन्य अभियान हो या आतंकी हमला, हर घटना आखिर में भाजपा के लिए वोट जुगाड़ करने का माध्यम बन जाए, बस इतना ही सरोकार नजर आता है। यही कारण है कि समाज में भयंकर अनिश्चितता पसर गई है और सोशल मीडिया के जरिए इसे और बढ़ाया जा रहा है।
पहले जब सेना के काम का श्रेय सरकारें नहीं लेती थीं, तो किसी सैन्य अभियान के बारे में जानकारी आधिकारिक सूत्रों के जरिए अखबारों, रेडियो, टेलीविजन आदि के जरिए जनता को मिलती थी और जनता को हमेशा से अपनी सेना पर गर्व रहा। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी सैन्य अभियान पर जनता ने नकारात्मक प्रतिक्रिया दी हो।
लेकिन अब जबकि सरकार से पहले डोनाल्ड ट्रंप ने युद्धविराम का ऐलान कर दिया, जब बार-बार सेना का पक्ष रखने के लिए विदेश मंत्रालय और सेना की तरफ से अधिकारियों को बयान देने सामने आना पड़ा, जब खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ऑपरेशन सिंदूर या युद्धविराम के बाद फौरन राष्ट्र को संबोधित न कर, अपनी सुविधा के मुताबिक देश को संबोधित किया, और उसके बाद लगातार अपने अन्य कार्यक्रमों में ऑपरेशन सिंदूर का श्रेय लेना शुरु कर दिया। भाजपा और उसके समर्थकों के सोशल मीडिया हैंडल पर जब पिछली सरकारों की आलोचना शुरु हो गई, तो फिर देश में असमंजस और बढ़ गया। बेहतर होता कि तीनों सेनाओं की मुखिया होने के नाते राष्ट्रपति मुर्मू खुद राष्ट्र को एक बार संबोधित करती और फिर इस मसले पर बाकी किसी मंच से चर्चा न होती और देश की सुरक्षा में लगी एजेंसियों, सेनाओं को उनके काम करने दिया जाता तो फिलहाल जो उलझन भरा माहौल बना है, उससे बचा जा सकता था। लेकिन भाजपा ने ऐसा होने नहीं दिया। अब इसका खामियाजा वे लोग भुगत रहे हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर ऑपरेशन सिंदूर से जुड़े किसी पहलू पर अपने विचार प्रकट किए। ऐसे कम से कम दो उदाहरण सामने आए हैं।
पहला उदाहरण अशोका विश्वविद्यालय के प्रो. अली खान महमूदाबाद का है, जिनकी फेसबुक पोस्ट के आधार पर राज्य महिला आयोग ने शिकायत दर्ज की और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि उनकी पोस्ट में गलत क्या था, यह अब तक साबित नहीं हुआ है। मगर स्वतंत्र विचार को रोकने की नीयत इसमें साफ नजर आई। इस मामले में प्रो.महमूदाबाद को 18 मई को गिरफ्तार किया गया था, 21 मई को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी। इस बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी स्वत: संज्ञान लेते हुए हरियाणा सरकार को नोटिस दिया और अब इस मामले में बनी विशेष जांच समिति को सुप्रीम कोर्ट ने साफ आदेश दिया है कि वह केवल प्रो.महमूदाबाद पर दायर दो एफआईआर तक ही अपनी जांच सीमित रखे। दरअसल प्रो, महमूदाबाद के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत में उनकी डिजिटल डिवाइस तक अधिकारियों की पहुंच की मांग का मुद्दा भी उठाया। जिस पर अदालत ने सख्त टिप्पणी की कि 'दोनों एफआईआर रिकॉर्ड का विषय हैं। डिवाइस की क्या आवश्यकता है? दायरा बढ़ाने की कोशिश न करें। एसआईटी राय बनाने के लिए स्वतंत्र है। बाएं और दाएं मत जाओ।'
इधर महाराष्ट्र में भी ऐसा ही प्रकरण घटित हुआ, जिसमें ऑपरेशन सिंदूर पर एक आलोचनात्मक पोस्ट को एक 19 साल की इंजीनियरिंग छात्रा ने रिपोस्ट किया, लेकिन फिर उसे डिलीट भी कर दिया। मगर पुलिस ने उस छात्रा को 9 मई को दर्ज एफआईआर के बाद गिरफ्तार कर लिया, उस पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 152, 196, 197, 299, 352 और 353 के तहत मामला दर्ज किया गया। छात्रा का साथ उसके शैक्षणिक संस्थान ने भी नहीं दिया और उसे परीक्षा से वंचित रहना पड़ा। जब मामला बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचा, तो अदालत ने इस मामले में पुलिस प्रशासन और कॉलेज दोनों को आईना दिखाया। जस्टिस गौरी गोडसे और जस्टिस सोमशेखर सुंदरसन की खंडपीठ ने मंगलवार को सुनवाई के दौरान कहा कि 'एक 19 साल की छात्रा ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट किया। जब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने माफी भी मांग ली। इसके बावजूद छात्रा को सुधार का मौका देने के बजाय कॉलेज और सरकार ने उसे अपराधी की तरह ट्रीट किया। जो करना गलत है।' कोर्ट ने कॉलेज प्रशासन पर भी तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि शैक्षणिक संस्थानों का दायित्व केवल शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि छात्रों को सही मार्ग दिखाना भी है।
न्यायमूर्ति गोडसे ने कहा, 'क्या हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं। जहां किसी को अपनी राय व्यक्त करने के लिए जेल भेज दिया जाएगा? यह सोचने वाली बात है कि क्या अब छात्रों को बोलना बंद कर देना चाहिए?' कोर्ट ने छात्रा की गिरफ्तारी को न केवल अनुचित बल्कि असंवैधानिक भी करार दिया।
जब सरकारी वकील ने तर्क दिया कि छात्रा की टिप्पणी राष्ट्रीय हितों के खिलाफ थी, तो अदालत ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि अगर किसी ने गलती की है और उसे महसूस करके माफी मांग ली है, तो उसे सुधारने का अवसर दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने पूछा, 'सरकार क्या चाहती है कि छात्र बोलना बंद कर दें? इस तरह की प्रतिक्रियाएं समाज में और कट्टरता को जन्म देंगी।'
पीठ ने कॉलेज प्रशासन को भी फटकार लगाते हुए कहा कि एक छात्रा को सुने बिना निष्कासित कर दिया। 'आपने एक छात्रा को अपराधी बना दिया, जबकि आपकी जिम्मेदारी थी कि आप उसे सुधारने का प्रयास करते,'
दरअसल लड़की को उसकी परीक्षा से पहले कॉलेज से निकाल दिया गया था। सुनवाई के दौरान, अदालत ने लड़की की मानसिक और भावनात्मक स्थिति के बारे में पूछा और उसे जेल से रिहा करने का निर्देश दिया ताकि वह परीक्षा में शामिल हो सके। अदालत ने आदेश दिया कि परीक्षा अवधि के दौरान उसे पुलिस द्वारा नहीं बुलाया जाएगा।
उपरोक्त दोनों प्रकरणों से स्पष्ट होता है कि आम नागरिकों के लिए अब खुलकर अपने विचार प्रकट करना कितना दूभर होता जा रहा है। इन मामलों में अदालतों ने तो इंसाफ किया है, लेकिन नाइंसाफी की नौबत क्यों आई, क्यों सामान्यजनों को इस तरह व्यवस्था का शिकार होना पड़ रहा है, क्या लोकतंत्र लोक के लिए असुरक्षित और चंद तथाकथित खास लोगों के लिए ही सुरक्षित रह गया है, यह सोचने वाली बात है।