धुआँ

बेनजीर की हवेली के बगल में सटी एक और हवेली थी, सेठ दादूमल की। ठीक रजुला के कमरे के सामने ही, छोटे सेठ का कमरा था;

Update: 2023-04-16 04:14 GMT

- शिवानी

बेनजीर की हवेली के बगल में सटी एक और हवेली थी, सेठ दादूमल की। ठीक रजुला के कमरे के सामने ही, छोटे सेठ का कमरा था। बहुत वर्षों तक सेठजी मारवाड़ में रहने के पश्चात् हाल ही में पुत्र का विवाह कर हवेली में लौट आए थे। एक दिन रजुला ने देखा छोटे सेठ के कमरे का नीला पर्दा ऊपर उठा है और एक काली भुजंग-सी औरत, अपनी जंघा पर, एक साँवले युवक का माथा रखकर, उसके कान में तेल डाल रही है।

रामगढ़ के सीमान्त पर बसे छोटे-से नैक ग्राम में, जिस दिन रजुला का जन्म हुआ, दिशाएँ आनन्द-विभोर हो उठीं। सेब की नशीली खुशबू में डूबा रामगढ़ तब और भी मादक था, पर तब रामगढ़, आज की भाँति अपने सेबों के लिए प्रसिद्ध नहीं था, रामगढ़ का मुख्य आकर्षण था नैक ग्राम। वहां की देवांगना-सी सुन्दरी उर्वशियां शरीर को ऐसी लगन और भक्ति से बेचती थीं, जैसे सामान्य-सी त्रुटि भी उनके जीवन को कलंकित कर देगी। पुत्री का जन्म उस बस्ती में सर्वदा बड़े उल्लास से मनाया जाता। इसी से जब उनमें सबसे सुन्दरी मोतिया, अलस होकर नींबू और दाड़िम चाटने लगी तो अनुभवी सखियों ने घेर लिया. ''हाय, राम कसम, लड़की होगी, इसी से तो खट्टा माँग रही है, अभी से!'' धना बोली।

''और क्या!'' पिरमा चहकी, ''लड़का निगोड़ा ऐसा पीला चटक रंग थोड़े ही ना रहने देता।''
रजुला का जन्म हुआ तो सखियां नाच उठीं। बत्तीस मातृत्व-वंचिता नारियों के अभिशप्त दग्ध हृदयों का मलहम बन गई रजुला। सन्ध्या को सब अपने शृंगार-कक्षों में चली जातीं तो सयानी देवकी रजुला को गोद में नचाती। मोतिया की रजुला जब आठ साल की हुई तो बड़े आनन-फानन से उसकी संगीत की बारहखड़ी आरम्भ की गई। कुछ दिन बाद, उस्ताद ने भैरवी की एक छोटी-सी बन्दिश रजुला के गले पर उतारी तो उसने खिलखिलाकर इस बारीकी से दुहरा दी, कि बुन्दू मियाँ दंग रह गए, और रजुला के पैर छूकर लौट गए, ''वाह उस्ताद, आज से तू गुरु और मैं चेला, मोतिया बेटी इस हीरे को गुदड़ी में मत छिपा। देख लेना एक दिन इसके सामने बड़े-बड़े उस्ताद पानी भरेंगे। देस भेज इसे, वरना इसकी विद्या गले ही में सूखकर रह जाएगी।''

'हे राम, देस! जहाँ लू की लपटें आदमी को जल-भुनकर रख देती हैं और ऐसी फूल-सी बिटिया...' बत्तीसों मौसियों के हृदय भर आए। पर बुन्दू मियाँ कभी ऐसी-वैसी बातें नहीं करते थे। जब वे ही रजुला से हार मान गए तो देश ही तो भेजना पड़ेगा। बुन्दू मियाँ की बुआ की लड़की लखनऊ में रहती. तब तो मैं जरूर रजुला को देस भेजूँगी,'' मोतिया ने दिल पक्का कर लिया, ''उस्ताद ज्यू, जैसे भी हो तुम इसे लखनऊ पहुँचा आओ, छोकरी नाम तो कमाएगी।'' उसने बुन्दू मियाँ के पैर पकड़ लिए।
बुन्दू मियाँ रजुला को लखनऊ पहुँचा आए। बुन्दू मियाँ की बहन बेनजीर ने रजुला को पहले ही दिन से शासन की जंजीरों में जकड़कर रख दिया। जंगली बुलबुल को सोने के पिंजड़े में चैन कहाँ? बत्तीस मौसियों के लाड़ और देवकी के दुलार के लिए बेचारी तरस-तरसकर रह गई। कठोर साम्राज्ञी-सी बेनजीर की एक भृकुटी उठती और वह नन्हा-सा सिर झुका लेती।

''मुझे मेरी माँ के पास क्या कभी नहीं जाने दोगी?'' एक दिन बड़े साहस से नन्हीं रजुला ने पूछ ही लिया। प्रश्न के साथ-साथ उसकी कटोरी-सी आँखें छलक आईं।
''पगली लड़की, हमारे माँ-बाप कोई नहीं होते, समझी? तेरा पेशा तेरी माँ, और तेरा हुनर तेरा बाप है। खबरदार जो आज से मैंने तेरी आँखों में आँसू देखे।''

रजुला ने सहमकर आँखें पोंछ लीं। हिंडोले पर बेनजीर उसके एक-एक स्वर और आलाप का लेखा रखती, जौनपुरी, कान्हड़ा, मालगुंजी, शहाना, ललित, परज जैसी विकट राग-रागिनियों की विषम सीढ़ियाँ पार कर, वह संगीत के जिस नन्दनवन में पहुँची, वहाँ क्षणभर को बत्तीस मौसियों के लाड़-भीने चेहरे स्वयं ही अस्पष्ट हो गए, वह धीरे-धीरे सबको भूलने लगी।

बेनजीर, इसी से उसे बड़े यत्न से रुई की फाँकों में सहेजकर रखती थी, वह उसका कोहनूर हीरा थी, जिसे न जाने कब कोई दबोच ले। रजुला भी उसका आदर करती थी किन्तु स्नेह?

बेनजीर की हवेली के बगल में सटी एक और हवेली थी, सेठ दादूमल की। ठीक रजुला के कमरे के सामने ही, छोटे सेठ का कमरा था। बहुत वर्षों तक सेठजी मारवाड़ में रहने के पश्चात् हाल ही में पुत्र का विवाह कर हवेली में लौट आए थे। एक दिन रजुला ने देखा छोटे सेठ के कमरे का नीला पर्दा ऊपर उठा है और एक काली भुजंग-सी औरत, अपनी जंघा पर, एक साँवले युवक का माथा रखकर, उसके कान में तेल डाल रही है। युवती इतनी काली और मोटी थी कि रजुला को जोर से हँसी आ गई। हड़बड़ाकर युवक उठ बैठा, हँसी का अशिष्ट स्वर आवश्यकता से कुछ अधिक ही स्पष्ट हो गया होगा, इसी से उसने लपककर खिड़की जोर से बन्द कर दी। 'हाय हाय, यही थी सेठ कक्का की बहू' वह सोचने लगी और बेचारे छोटे सेठ पर उसे तरस आ गया। सुना, वह किसी बहुत बड़े व्यवसायी की इकलौती पुत्री थी और उन्होंने एक करोड़ रुपए का मुलम्मा चढ़ाकर यह अनुपम रत्न, छोटे सेठ को गलग्रह रूप में दान किया था।

रजुला को उस दिन सपने में भी छोटा सेठ ही दिखता रहा। कैसा सजीला जवान था। सोलह वर्ष में पहली बार पुरुष के रहस्यमय शरीर की इस अपूर्व गठन ने रजुला को स्तब्ध कर दिया। फिर तो रोज ही छोटा सेठ उसे दिखने लगा। जान-बूझकर ही वह खिड़की के पास खड़ी होकर चोटी गूँथती, कभी सन्तरे की रसीली फाँक को चूस-चूसकर अपने रसीले अधरों की लुनाई को और स्पष्ट कर देती। पुरुष को तड़पा-तड़पाकर अपनी ओर खींचने की ही तो उसे शिक्षा दी गई थी।

आईने में अपने हर नैन-नक्श को सँवारकर धीरे-धीरे खिड़की का मुँदा पट खोलकर रजुला मुस्कराती और बादलों में छिपी स्वयं चन्द्रिका ही मुस्करा उठती। प्रणय का यह निर्दोष आदान-प्रदान छोटी सेठानी और बेनजीर की जासूसी दृष्टियों से बचकर ही चलता। एक बार शहर में बहुत बड़ी सर्कस कम्पनी आई थी। बेनजीर ने अपने दल के लिए भी टिकट खरीदे. शालीन लिबास में, बेनजीर ने रजुला को सजा दिया। उसकी छोटी-छोटी असंख्य गढ़वाली चोटियाँ कर, उसकी न्यारी ही छवि रचा दी। कानों में बड़े-बड़े कटावदार झुमके थे और गले में भी पहाड़ी कुन्दनिया चम्पाकली। इस शृंगार के पीछे भी बेनजीर की शतरंजी चाल थी। आज वह वलीअहद, ताल्लुकेदार और मनचले रईसजादों की भीड़ के बीच रजुला के रूप की चिनगारी छोड़कर तमाशा देखेगी। कौन होगा वह माई का लाल, जो मुँहमांगे दाम देकर इस अनमोल हीरे को खरीद सकेगा!

वह रजुला को लेकर सर्कस के तम्बू में पहुँची कि सबकी आँखें रजुला पर गड़ गईं। सेठ दादूमल का बेटा भी तमाशा देखने आया था, पर उसकी दृष्टि सर्कस के शेर-भालुओं पर नहीं थी, वह तो रजुला को ही मुग्ध होकर देख रहा था। रजुला ने भी देखा और मुस्कराकर गर्दन फेर ली। छोटा सेठ तड़प गया, कहाँ लाल बहीखातों के बीच उसका शुष्क जीवन और कहाँ यह सौन्दर्य की रसवन्ती धारा! वह घर लौटा तो रजुला की खिड़की बन्द थी। वह फिर ऊपर चला आया। रजुला के कमरे में नीली बत्ती जल रही थी, खिड़की खुली थी, एक-एक कर अपने पटाम्बर उतारती वह गुनगुना रही थी। छोटे सेठ का दिल धौंकनी-सा चलने लगा। वह थोड़ा और बढ़ा और पर्दा हटाकर निर्लज्ज प्रणय-विभोर याचक की दीनता से खड़ा हो गया। रजुला भी पलटी, उसका चेहरा कानों तक लाल पड़ गया ऐसी मुग्ध दृष्टि से उसका यह पहला परिचय था। आज ठेंगा दिखाकर वह खिड़की बन्द नहीं कर सकी...

''बड़े बदतमीज हैं जी आप।'' कृत्रिम क्रोध से गर्दन टेढ़ी कर उसने कहा, ''क्या नाम है आपका?''
''लालचन्द, और तुम्हारा?''
''हाय-हाय, जैसे जानते ही नहीं।''

''मैं तुम्हारा एक ही नाम जानता हूँ और वह है रज्जी, तुम्हारी अम्मी तुम्हें पुकारती जो रहती है, कभी आओ ना हमारे यहाँ!''
''आपके यहाँ!'' रजुला जोर से हँसी, ''सेठानी मुझे झाड़ई मारकर भगा देगी, आप ही आइए न!'' रात्रि के अस्पष्ट आलोक में उसका यह मीठा आह्नान लालचन्द को पागल कर बैठा, ''सच कहती हो? आ जाऊँ? लगा दूँ छलाँग?''

''आए हैं बड़ी छलाँग लगानेवाले, पैर फिसला तो सड़क पर चित्त ही नजर आएँगे।'' रजुला ने अविश्वास से अपने होंठ फुला-फुलाकर कहा। वह इतना कहकर सँभली भी न थी कि छोटा सेठ सचमुच ही बन्दर की-सी फुर्ती से उसकी बित्तेभर की मुँडेर पर कूदा और लड़खड़ाकर उसी पर गिर पड़ा।

रजुला के मुँह पर हवाइयां उड़ने लगीं 'हाय-हाय, अगर यह गिर जाता तो', वह सोच-सोचकर काँप गई। उसका सफेद चेहरा देखकर लालचन्द ठठाकर हँस पड़ा, ''कहो, लगाई न सर्कसी छलाँग?''

''हाय-हाय, कितनी जोर से हँस गए आप, अम्मी ने सुन लिया तो मेरी बोटी-बोटी कुत्तों से नुचवा देंगी। इतनी रात को मेरे कमरे में आदमी!'' उसकी आँखों में बेबसी के आँसू छलक उठे।

''लो, कहो तो अभी चल दूँ?'' वह साहसी उद्दंड युवक फिर छलाँग लगाने को हुआ तो लपककर रजुला ने दोनों हाथ पकड़कर रोक लिया। एक-दूसरे का स्पर्श पाकर दोनों क्षणभर को अवश पड़ गए। रजुला उसकी बाँहों में खोई जा रही थी, नहीं-नहीं, आज नहीं यह सब नहीं,'' वह उसके लौहपाश में नहीं-नहीं कहती सिमटती जा रही थी। एकाएक स्वयं ही लालचन्द ने बन्धन ढीला छोड़ दिया, हे भगवान, यह तो उसकी तिजोरी के ऊपर टँगी स्वयं साक्षात् लक्ष्मीजी का-सा चमकता रूप था। ललाट को चूमकर वह उचककर खिड़की की मुँडेर पर चढ़ गया।

तीन महीने बीत गए, छोटी सेठानी मायके चली गई थी। अब पूरी आजादी थी। दोनों अभी प्रेम से चहकते उन कबूतरों के जोड़े-से थे जिन्हें बन्धन का कोई भय नहीं था।
''कभी तेरी अम्मी पकड़ ले तो?'' वह अपनी गोदी में लेटी रजुला के सलोने चेहरे से अपना चेहरा सटाकर पूछता।

''तो क्या, कह दूँगी, यह चोर-उचक्का मुझे छुरा दिखाकर कह रहा था खबरदार जो शोर मचाया, बता तेरी अम्मी चाभी कहाँ रखती हैं।''

''हाँ, यही तो कहेगी तू, आखिर है तो...'' कहकर वह दुष्टता से मुस्करा उठता। पेशे का अस्पष्ट उल्लेख भी उसे कुम्हला देता। वह उदास हो जाती और लाख मानमनव्वलों में पूरी रात ही बीत जाती।

''कल तेरी अम्मी भी तो मलीहाबाद जा रही है, मैं सात ही बजे आ जाऊँगा रज्जी,'' उसने कहा।

पर वह कल कभी नहीं आया, लालचन्द के रसीले चुम्बनों के स्पर्श से धुले, रजुला के अधर अभी सूखे भी नहीं थे कि तीन महीने में पहली बार बाँका लालचन्द अपनी सर्कसी छलाँग न जाने कैसे भूल गया। उसकी सधी छलाँग खिड़की तक पहुँचकर ही फिसल गई। धमाके के साथ, वह पथरीली सड़क पर पड़ा और एक हृदयभेदी चीत्कार से गलियाँ गूँज गईं। पागलों की तरह रजुला शायद स्वयं भी खिड़की से कूद जाती पर न जाने कब बन्द द्वार भड़भड़ाकर, चिटकनी सटका स्वयं अम्मी उसे पकड़कर खड़ी हो गई।

''पागल लड़की, मैं जानती थी कि तेरे पास कोई आता है, तेरे बदन से मर्द के पसीने की बू को मैंने सूँघ लिया था। ठीक हुआ अल्लाह ने बेहया को सजा दी, आज ही मैं छिपकर उसे पकड़ने को थी, पर अल्लाताला ने खुद ही चोर पकड़ लिया।''

तिलमिलाकर, क्रूद्ध सिंहनी-सी रजुला, बेनजीर पर टूट पड़ी। पर बेनजीर ने एक ही चाँटे से उसे जमीन पर गिरा दिया। सेठ की हवेली से आते विलाप के स्वर, उसके कलेजे पर छुरियाँ चलाने लगे। द्वार पर ताला डालकर उसे रोटी-पानी दे दिया जाता। पाँचवें दिन वह बड़े साहस से खिड़की के पास खड़ी हो गई, उसके बुझे दिल की ही भाँति सेठ के कमरे में भी काला अँधेरा था। इसी मुँडेर पर उसके युगल चरणों की छाप, अभी भी धूल पर उभरी पड़ी थी। आँसुओं से अन्धी आँखों ने उसी अस्पष्ट छाप को ढूँढ़ निकाला और वह उसे चूम-चूमकर पागल हो गई। 'छोटे सेठ', वह पागलों की भाँति बड़बड़ाती, चक्कर काटती द्वार पर पहुँची। रोटी रखकर, पठान दरबान शायद अफीम की पिनक में ताला-साँकल भूल गया था। रजुला ने द्वार खोला और दबे पैरों सीढ़ियाँ लाँघकर, बदहवास भागने लगी। सुबह बेनजीर ने खुला द्वार देखा तो धक रह गई। रजुला भाग गई थी।

जिस कुमाऊँ की वनस्थली ने उसे एक दिन नियति के आदेश से दूर पटक दिया था, वही उसे बड़ी ममता से फिर पुकार उठी। रजुला ने वही पुकार सुन ली थी। ओठों पर पपोटे जम गए थे, एड़ियाँ छिल गई थीं। बत्तीस मौसियों का प्रासाद एकदम ही उजड़ गया था, बाहर एक बूढ़ा-सा चैकीदार ऊँघ रहा था। ''सुनो जी, वहाँ जो नैक्याणियाँ रहती थीं वह क्या कहीं चली गईं?'' डर-डरकर उसने पूछा।

चौंककर बूढ़ा नींद से जग गया, ''न जाने कहाँ से आ जाती हैं सालियाँ। एकादशी की सुबह-सुबह उन्हीं हरामजादियों का पता पूछना था, सती सीता, लक्ष्मी, पार्वती थीं बड़ी! मर गईं सब! और पूछना है कुछ?'' सहमकर रजुला पीछे हट गई, बूढ़े के ललाट पर बने वैष्णवी त्रिपुण्ड को देखकर उसे अपनी अपवित्रता और अल्पज्ञता का भास हुआ, ''माफ करना महाराज, मुझे बस यही पूछना था जब मर ही गईं तो और क्या पूछूँ!'' वह मुड़ गई।

''देख छोकरी, सुबह-सुबह झूठ नहीं बोलूँगा। सब तो नहीं मरीं, तीन बच गई थीं, देबुली, पिरमा और धनिया। तीनों गागर में नेपाली बाबा के आश्रम में हैं। घृणा से उसकी ओर थूककर बूढ़ा पीठ फेरकर माला जपने लगा। कँटीली पगडंडियाँ पार कर वह पहुँच ही गई। वह जानती थी नेपाली बाबा ही उसके नाना हैं, क्या उसे स्वीकार नहीं करेंगे। उनके चरणों में पड़ी ईश्वर-भजन में ही वह भी जीवन काट लेगी। उसके चेहरे को देखकर ही उसे सबने पहचान लिया।

मोतिया का ठप्पा ही तो था, उसके चेहरे पर। बाबा गोरखपन्थी थे, इसी से सबको कनफड़ा बालियाँ पहनाकर दीक्षा दे दी थी। रजुला ने भी एक दिन जिद कर दीक्षा ले ली। कभी-कभी नेपाल, गढ़वाल और तिब्बत से आए गोरखपन्थी साधुओं के अखाड़े आ जुटते, दल से गुफा भर जाती और भंडारे की धूम के बाद झाँझ, खड़ताल और मँजीरे के साथ स्वर-लय-विहीन गाने चलते। बड़े अनुनय से नेपाली बाबा एक दिन बोले, ''तू गा ना मेरी लली, एक-आध सुना दे ना, तूने तो लखनऊ के उस्तादों से गाना सीखा है।''
निष्प्रभ आँखों में बिसरी स्मृतियों का सागर उमड़ उठा। ''क्यों बेटी, नहीं सुनाएगी?'' नेपाली बाबा का आग्रह कंठ में छलक उठा। ''मुझे गाना नहीं आता बाबा'', कहकर उसने उठकर धूनी में लकड़ियाँ लगाईं और आग फूँकने का उपक्रम करने लगी।

भोले बाबा से वह कैसे कहे कि इस धूनी को फूँक-फाँककर तो वह धुआँ मिटा देगी, पर जो उस छोकरी के हृदय में निरन्तर एक धूनी धधक रही है, उसका धुआँ भी क्या वह फूँक मारकर हटा सकेगी?

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