अपनी रणनीति में सफल हुए राहुल
राहुल की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने दूसरों के पिच पर खेलने की जगह अपनी पिच पर बैटिंग की;
- अरविन्द मोहन
राहुल की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने दूसरों के पिच पर खेलने की जगह अपनी पिच पर बैटिंग की। सरकार की तरफ से पहले बोलते हुए सांसद अनुराग ठाकुर ने आपातकाल और संविधान की बात की लेकिन राहुल ने सत्ता पक्ष के लोगों को बार-बार रूल बुक और संविधान दिखाने के लिए बाध्य किया पर उस चर्चा में नहीं गए।
आज तो गर्दा उड़ा दिया', फ़ेसबुक की एक एक लाइन की टिप्पणी पर इस लेखक को जैसी और जितनी प्रतिक्रिया मिली वह बताती है कि विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी का पहला भाषण सफल रहा। राहुल गांधी संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोल रहे थे। उनका भाषण सौ मिनट का हुआ और लोकसभा चुनाव से जीवंत हुए विपक्षी खेमे में इस दौरान जो उत्साह दिखा वह तो उल्लेखनीय था ही, सत्ता पक्ष में जिस किस्म की हड़बड़ी दिखी उससे भी लगता है कि राहुल अपनी रणनीति में सफल हुए। इस भाषण के तत्काल बाद भाजपा की तरह से दो केन्द्रीय मंत्रियों और मुख्य पार्टी प्रवक्ता ने प्रेस कांफ्रेंस करके अपना पक्ष रखा या राहुल की बातों को काटने की कोशिश की। और फिर तो मीडिया मैनेजमेंट और भाजपा का प्रचार सेल तरह-तरह से हमले या राहुल की कमियां बताने के अभियान में जुट गया। पर जो जीवंतता संसद के अंदर दिखी वह टीवी चैनलों और अखबारों में भी झलकी और हर जगह राहुल को वह स्थान और प्रमुखता मिली जो आम तौर पर उनके हिस्से नहीं आती थी। यू-ट्यूब समेत सोशल मीडिया पर तो चुनाव के आसपास से ही राहुल और प्रतिपक्ष को एक किस्म की बढ़त रही है। वहां स्वाभाविक तौर पर इस भाषण ही नहीं इस सौ मिनट के पूरे तमाशे का शोर रहा।
राहुल के भाषण का कंटेन्ट भी बदला है, लेकिन सबसे ज्यादा उनका तरीका बदला है। अब यह पूरी तरफ मैच्योर और लाइन पर आ गया हो यह कहना कठिन है। कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में कार्यकारी अध्यक्ष चुने जाने पर उन्होंने जबरदस्त भाषण दिया था, इस संसद में भी एक-दो बार उनका भाषण अच्छा हुआ है, लेकिन बाद के व्यवहार से उनका असर धुल गया। इस बार भी वे अगर हिन्दू समाज या भारतीय समाज में शांति, अहिंसा, निर्भयता जैसे गुण बताने के लिए तस्वीरें दिखाने जैसे काम न करते तो बेहतर प्रभाव होता। यह सब नाटक जैसा लगा। और केन्द्रीय मंत्री भूपेन्द्र यादव का यह टोकना भी काफी हद तक सही था कि अपने भाषण के काफी व्यक्त राहुल ने अध्यक्ष के आसन की तरफ पीठ भी दिखाई। विपक्ष के नेता को इतना तो आना ही चाहिए किए सारा सम्बोधन अध्यक्ष की तरह हो अपने साथियों की तरफ अलग से ध्यान देना जरूरी नहीं है। कुछ विषयों पर कम या ज्यादा जोर देने की बात भी की जा सकती है। दो दिन पहले आप नीट की चर्चा के लिए अभिभाषण रुकवाना चाहते थे लेकिन सौ मिनट के भाषण में उसकी चर्चा काफी कम थी।
राहुल की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने दूसरों के पिच पर खेलने की जगह अपनी पिच पर बैटिंग की। सरकार की तरफ से पहले बोलते हुए सांसद अनुराग ठाकुर ने आपातकाल और संविधान की बात की लेकिन राहुल ने सत्ता पक्ष के लोगों को बार-बार रूल बुक और संविधान दिखाने के लिए बाध्य किया पर उस चर्चा में नहीं गए। उन्होंने अग्निवीर योजना, नीट परीक्षा में धांधली, किसानों को उचित मूल्य, मणिपुर, अध्यक्ष के भेदभावपूर्ण व्यवहार (जिसमें अपने माइक को बंद किए जाने का मसला भी था), भाजपा और संघ के हिन्दुत्व और सरकार की पूंजीपतियों के प्रति उदारता को निशाना बनाया और इस तरह बात रखी कि प्रधानमंत्री समेत पांच केन्द्रीय मंत्री बीच में दखल देने खड़े हुए। प्रधानमंत्री ने दो बार, अमित शाह और राजनाथ सिंह ने तीन-तीन बार और शिवराज चौहान, किरण रिजिजु और भूपेन्द्र यादव ने खड़े होकर दखल दी। वे राहुल के तीखे हमलों पर शांत न बैठ पाए। खुद अध्यक्ष ने दो बार लंबी सफाई दी पर बात साफ नहीं हुई। यही राहुल के प्रदर्शन का शीर्ष बिंदु है। शोर तो मचता ही रहा पर सत्ता पक्ष और प्रतिपक्षी बेंचों से उठने वाले शोर में फर्क था।
राहुल ने असली चमत्कार सीधे प्रधानमंत्री को भगवान बनाने वाली मानसिकता पर हमला करने के साथ उनके 'खौफÓ को निशाना बनाकर किया। न चाहते हुए भी यहां गांधी के चंपारण आंदोलन की चर्चा लानी पड़ती है जिस पर इस लेखक ने काफी काम किया और सारे अध्ययन का लब्बोलुवाब यह था कि गांधी ने चंपारण के किसानों के अंदर से गोरी चमड़ी का डर भगा दिया। और यह चीज चंपारण तक रहने की जगह देश और दुनिया में सभी जगह पहुंची और अंग्रेजी साम्राज्य को विदा होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। राजनाथ सिंह द्वारा बाहर मुस्कुराकर नमस्कार करना पर सदन में प्रधानमंत्री की मौजूदगी के चलते नजर छुपाना और नितिन गडकरी द्वारा भी मोदी जी से खौफ खाने की बात की तो सबको लगा कि तीर निशाने पर है। पार्टी का अनुशासन एक चीज है, साझा जवाबदेही भी एक चीज है लेकिन भाजपा में मोदी युग में जो चल रहा है उसे इन दो बातों की जगह खौफ से ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। और जब भाजपा और उसके शीर्ष के लोगों में इतना खौफ बनाया जाए तो फिर शासन व्यवस्था, राजनीति, मीडिया और समाज में खौफ की बात करना/समझाना आसान हो जाता है। राहुल ने इससे भी ज्यादा मजेदार प्रसंग लोकसभा अध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को झुककर प्रणाम करने का उठाया और कहा कि आप सदन के सर्वेसर्वा हैं, आपको किसी के आगे नहीं झुकना चाहिए। अध्यक्ष भी तत्पर थे और उन्होंने इसे तत्काल अपने संस्कार से जुड़ा बताकर अपनी जान छुड़ाई। राहुल का कथन सही है, उसे संस्कार की आड़ में नहीं छुपाया जा सकता। संयोग से राज्यसभा के अध्यक्ष का व्यवहार और ज्यादा पक्षपातपूर्ण दिखा।
अब शासक जमात और उसका बाहरी तंत्र अपने-अपने काम करता ही है और करेगा। कई सारे भक्त हमारे फेसबुक एकाउंट में भी निकल आए जबकि मैं बहुत सावधान होकर दोस्त बनाता हूं। कुछ टिप्पणियां मर्यादा की सीमा से नीचे की भी आईं। इस लेखक के लिए भी यह कोई नया अनुभव नहीं है पर राहुल गांधी के लिए ऐसे हमले झेलना बहुत पुराना है। कई बार वे सचेत ढंग से भारी मेहनत करके भी असफल हुए हैं तो कई बार अपनी छोटी गलतियों से अपने किए धरे पर खुद पानी फेरा है। उनकी पार्टी में तो उनको पलीता लगाने वालों की फौज ही रही है जो कभी साथ होती है कभी भाजपा में चल देती है। भारत यात्रा और इस बार के चुनाव ने उनको ताकत दी है और संभवत: मैच्यूरिटी भी। यह भाषण उसका ही प्रमाण है। लेकिन अभी दूसरों से ज्यादा उनको खुद अपनी परीक्षा में, विपक्ष के नेता की जिम्मेवारी वाली परीक्षा में और अपने दल को खड़ा करने की परीक्षा में खरा साबित करना होगा।