सेना में जुगाड़

भारत इस वक्त आंतरिक और बाहरी दोनों ही मोर्चों पर खतरों से घिरा हुआ है;

Update: 2023-07-05 01:42 GMT

भारत इस वक्त आंतरिक और बाहरी दोनों ही मोर्चों पर खतरों से घिरा हुआ है। पाकिस्तान के साथ रिश्तों में कोई सुधार नहीं है, बल्कि वहां जिस तरह की उथल-पुथल चल रही है, उसका असर भारत पर ही सबसे अधिक पड़ेगा। कमोबेश यही हालात अफगानिस्तान को लेकर है। चीन तो भारत के सिर पर सवार होने की कोशिश कर ही रहा है। सीमांत इलाकों में कब, कहां और किस तरह से चीन की घुसपैठ शुरु हो जाए, कहा नहीं जा सकता। इधर मणिपुर में जैसे हालात हैं, वो आंतरिक सुरक्षा के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। नक्सल प्रभावित इलाकों में जरा सी असावधानी भारी पड़ जाती है। देश को ऐसे खतरों से सुरक्षित रखने की बड़ी जिम्मेदारी सेना पर होती है।सीमाओं से लेकर भीतरी अशांति तक हर जगह आम नागरिकों की सुरक्षा का काम हमारे सैनिक करते हैं। और प्राकृतिक आपदा के वक्त राहत और बचाव कार्य में भी सेना की ही मदद ली जाती है। लेकिन देश को सुरक्षित रखने वाली सेना में अब सरकार की नीतियों के कारण असुरक्षा का भाव आने लगा है।

भारतीय सेना इस वक्त मेजर और कैप्टन स्तर के बड़े अधिकारियों की भारी कमी का सामना कर रही है। भारतीय सेना में आर्मी मेडिकल कोर और आर्मी डेंटल कोर समेत 8,129 अधिकारियों की कमी है। इसी तरह नौसेना में 1,653 और भारतीय वायु सेना में 721 अधिकारियों की कमी है। सेना ने इकाइयों में बड़े अधिकारियों की कमी को दूर करने के लिए विभिन्न मुख्यालयों में स्टाफ अधिकारियों की पोस्टिंग को कम करने की योजना बनाई है और ऐसे पदों पर फिर से नियुक्त अधिकारियों की नियुक्ति पर विचार कर रही है। अगर ये कहा जाए कि सेना के काम में भी अब जुगाड़ किया जा रहा है, तो गलत नहीं होगा।

राजनैतिक दल अक्सर सेना के मसले को चुनावी मुद्दा बना देते हैं। जय जवान, जय किसान जैसे ईमानदार नारे अब नहीं लगाए जाते। बल्कि अब राजनैतिक फायदे के लिए सेना को लेकर घोषणाएं की जाती हैं। खासकर भाजपा राष्ट्रवाद और सेना को एक साथ जोड़कर बढ़िया चुनावी मुद्दा बनाती है। प्रधानमंत्री मोदी हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में अपने चुनावी भाषणों में सेना को ला चुके हैं। उन्होंने गलवान में बिहार रेजीमेंट के शहीद सैनिकों का मुद्दा बिहार चुनाव में उठाया था और उससे पहले आम चुनाव में पुलवामा में शहीद हुए सैनिकों का मुद्दा भी भाजपा ने खूब भुनाया था। ऐसा लगता है कि मोदी सरकार जय जवान अपनी जय करवाने के लिए करती है। सैन्य वेशभूषा में दुर्गम क्षेत्रों में तैनात सैनिकों के बीच पहुंचकर प्रधानमंत्री मोदी ये बतलाने की कोशिश कर चुके हैं कि उन्हें सैनिकों के त्याग, समर्पण और कर्तव्यनिष्ठा का कितना ख्याल है। मोदी सरकार रक्षा बजट भी साल दर साल बढ़ा ही रही है। साल 2023-24 के लिए भी रक्षा बजट 5.94 करोड़ रुपये का है।

इसके अलावा विभिन्न देशों से द्विपक्षीय संबंधों में रक्षा क्षेत्र पर खास ध्यान दिया जाता है। अभी प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका दौरे में कई अहम रक्षा करार किए। तीन अरब डॉलर यानी लगभग 24 हजार करोड़ रुपये के तो केवल 30 प्रीडेटर ड्रोन ही खरीदे जाएंगे। इसके अलावा भी करोड़ों रूपयों के दूसरे सौदे हुए हैं। रक्षा क्षेत्र में भारत की स्थिति मजबूत करने के लिए जो करोड़ों-अरबों का भुगतान सरकार करती है, वो दरअसल आम आदमी का कमाया हुआ धन ही होता है। जिसे देशहित के लिए टैक्स के तौर पर आम भारतीय जमा करता है। और जब अरबों रूपए खर्च होने के बाद भी यह तथ्य सामने आए कि सेना में बड़े अधिकारियों की भारी कमी है, तो दुख के साथ आश्चर्य होता है कि आखिर इस सरकार की मंशा सेना को लेकर क्या है।

भारतीय रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत सरकार ने 2013-2019 के बीच हर साल औसतन 60 हजार जवानों की भर्तियां कीं। यानी सात सालों में लगभग 3 लाख भर्तियां हुईं। मगर अब ये खाली पड़े पद बता रहे हैं कि जितना काम हुआ, वो नाकाफी था। खाली पदों को तेजी से भरने की जगह सरकार अग्निवीर योजना लेकर आ गई, जिसमें महज 4 सालों के लिए सैनिक तैयार होते। इस योजना की क्या-क्या खामियां हैं, इस पर बहस अभी खत्म नहीं हुई कि अब ये तथ्य सामने आ रहा है कि अग्निवीर में प्रशिक्षण के दौरान घायल होने वाले सैनिकों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है।

कई सैनिक ट्रेनिंग पूरी करने के बावजूद बाहर कर दिए गए हैं। दरअसल नियम है कि 6 महीने की ट्रेनिंग के दौरान अगर कोई अग्निवीर लगातार 21 दिन या कुल 30 दिन अनुपस्थित रहता है तो उसे बाहर कर दिया जाएगा। यह नियम तब मान्य होना चाहिए जब अग्निवीर किसी अन्य कारण से अनुपस्थित रहे। मगर घायल सैनिक अगर ट्रेनिंग पर न आ पाए, या चिकित्सक उसे आराम की सलाह दें, तब भी उसे बाहर करना उसके साथ अन्याय है।

अग्निवीर योजना से पहले जब सैनिकों की नियमित भर्ती होती थी तब उन्हें चोटिल होने पर एक बैच पीछे करने का विकल्प होता था, तब प्रशिक्षण की अवधि 9 से 11 महीने की होती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अग्निवीर योजना की इस बड़ी खामी की ओर सेना का ध्यान आकृष्ट किया गया है और मानवीय आधार पर इस पहलू पर गौर फरमाने कहा जा रहा है। मगर मौजूदा नियम कब बदलेंगे या बदलेंगे या नहीं, इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता।

बेरोजगारी का सामना कर रहे लाखों नौजवान मजबूरी में अग्निवीर योजना को कबूल कर रहे हैं और अभी ऐसा लग रहा है कि उनकी मजबूरी का पूरा फायदा उठाया जा रहा है। हो सकता है सरकार सैनिकों पर होने वाले खर्च में कटौती से थोड़ी बचत कर ले, लेकिन आखिरकार ऐसी बचत देश पर बहुत भारी पड़ेगी। सैनिकों में देशप्रेम और त्याग का जज्बा कूट-कूट कर भरा होता है, तभी वे सर्वोच्च बलिदान यानी अपनी जान देने तक से पीछे नहीं हटते। इस जज्बे को बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार पर होती है। बच्चों के फैंसी ड्रेस की तरह सैन्य पोशाक पहनकर ये जिम्मेदारी नहीं निभाई जा सकती, इसके लिए सैनिकों की सुविधा का ख्याल भी रखना होगा।

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