गोदी मीडिया की राय राहुल गांधी के बारे में बदली है : अशोक वाजपेई
जाने माने कवि, आलोचक, संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेई से देशबंधु ने कुछ महीनों पहले बातचीत की। राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी समेत उनके लिखने पढ़ने पर बातचीत। कुछ कविताएं;
यह जो खास एपिसोड है यह हमने रिकॉर्ड किया है देश के जाने माने जो कलाकार रहे सैयद हैदर रजा के स्टूडियो में जहां उन्होंने ढेर सारे रंग बिखेरे हैं और अब उनकी कलाकृतियां आप यहां चारों तरफ देख सकते हैं मेरे पीछे सैयद हैदर रजा की जो विरासत है उसे आगे बढ़ा रहे हैं और उन्हें संभालने संजोने का जो काम कर रहे हैं वह रजा फाउंडेशन के जो संरक्षक हैं अशोक वाजपेई। देश के जानेमाने कवि हैं, रचनाकार हैं, आलोचक हैं, और एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ब्यूरोक्रेट रहे हैं। उन्होंने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में बहुत अहम योगदान दिया है। देश की जो मौजूदा राजनीति है उस बारे में अशोक वाजपेई क्या कहते हैं यह हमने उनसे जानने की कोशिश की इसी कमरे में बैठकर। फिलहाल चलते हैं अशोक वाजपेई के पास। डीबी लाइव के लिए कुछ महीने पहले अतुल सिन्हा ने अशोक वाजपेई से बात की।
राहुल गांधी के बारे में आपकी राय क्या है?
दो तीन बातें मुझे लगीं कि राहुल गांधी में जानने की जिज्ञासा है। वह हर चीज पर अधीरता से अपना मत व्यक्त नहीं करते हैं। हर चीज पर उनका मत है भी नहीं। मगर जो उनसे मेरी बात हुई तो उससे मुझे यह लगा आखिर उन्होंने सारे दबाव तनाव और लांछन के बावजूद एक भद्र भाषा बराबर कायम रखी। इसमें गरिमा है। जिसमें कई बार उनसे चूक हो जाती है वह चूक लेकिन अभद्रता की चूक नहीं। वो बौखला भी जाते होंगे कभी कभार लेकिन वह बौखलाहट में गाली नहीं देने लगते हैं। धीरे-धीरे उनका कद अब एक बड़ा कद बन चुका है। पूरे गोदी मीडिया ने उनकी जो छवि बनाई थी। उस छवि को उन्होंने नष्ट कर दिया और अंततः गोदी मीडिया राहुल गांधी और कांग्रेस के पुनर्उदय को रोक नहीं पा रहा और यह उसकी शर्मनाक विफलता है। लेकिन जो क्षति संस्थाओं की हुई है और वह सिर्फ संस्कृति या साहित्य की ही संस्थाएं नहीं है। एक जमाने में कांग्रेस में यह समझ थी कि वो विशेषज्ञों को चुनती थी। इस सरकार में विशेषज्ञता का कोई मतलब ही नहीं है और अकादमी के इनके अध्यक्ष ऐसे लोग बने हैं जिनका नाम किसी ने नहीं सुना। जब मेरी पहली मुलाकात राहुल जी से हुई थी तो मैंने यह कहा था कि यह एक सांस्कृतिक युद्ध हो रहा है। तब वे मुझसे सहमत नहीं थे। वह भारत को शायद हमसे बेहतर समझते हैं। लेकिन अब शायद वह यह समझ पाएंगे कि असल में जो हुआ है वो एक सांस्कृतिक युद्ध भी है वो सिर्फ राजनैतिक युद्ध या सामाजिक युद्ध भर नहीं है वो एक राजनीतिक युद्ध भी है। मुझे जो बात इधर उनके वक्तव्य में लगता है कि वो अब वंचितों का नाम लेते हैं, लेकिन अल्संख्यकों का नाम कम लेते हैं। दो चार भाषण में। वैसे मैं उनको ज्यादा नहीं सुन पाता हूं। मुझे लगता है कि वो इसलिए भी कि हमने मुस्लिमों का तुष्टीकरण किया है। शायद इस लांछन से बचना चाहते होंगे। या जो भी हो। नहीं लेते हैं। अगर लेते भी हैं तो थोड़ा बच के लेते हैं। मुख्य मुद्दा जनता को जोड़ के चलना है। वो ठीक भी है। लेकिन हमको ये नहीं भूलना चाहिए कि हमने 20 करोड़ की आबादी को लाचार और अपमानित करके रखा है। यह बात हमारे एजेंडे से बाहर नहीं हो सकती। क्योंकि ऐसा हुआ है। उसके जो भी कारण हों तो इसलिए वो भी एक बड़ा कारण होगा।
मोदी जी के लोकतंत्र को आप क्या कहेंगे। क्या तीसरी बार सत्ता में आकर वो कुछ बदले हैं?
लोकतंत्र में पाच वर्ष का समय बहुत होता है। तो उसमें एक रोज बेरोजगारी, महंगाई. भुखमरी इन सबको भी जो कि मुख्य मुद्दे हैं उनको हमको भी ढंग से देखना चाहिए। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में अगर आपने देखा होगा तो उसमें इन तमाम चीजों पर बहुत विस्तार से और बहुत मजबूती के साथ अपनी बात रखी हैय, और शायद उसने अपील भी किया है। लेकिन उनसा असप चुनावों में नहीं हुआ। देखिए ओवरऑल मुझे ये लग रहा है कि अगर यह निजाम न जा पाया तो इसके कई कारण हैं। इनके पास इतने साधन है कि ये तरह-तरह की चीजें कर सकते हैं। आपको याद हो तो ट्रंप ने पिछली दफा तो अपने को अंतिम वोट तक छोड़ ही नहीं रखा था। और उसके समर्थकों ने तो व्हाइट हाउस पर हमला ही कर दिया था। फिर भी वह दोबारा आ गया। यहां तो हर बार आखिरी वक्त में कुछ चीजें बदल जाती हैं। लोकतंत्र के एक सजग नागरिक के रूप में हम परिवर्तन की और एक बेहतर परिवर्तन की उम्मीद कभी छोड़ नहीं सकते। भले हम उसको कई बार व्यक्त ना कर सकें कुछ संकोच से। कई बार इस आशंका से खुदा जाने यह उम्मीद निराधार निकले अंतत तो यह तो बना रहता है।
चलिए कुछ लिखाई पढ़ाई पर आते हैं। आपकी कविताओं पर। हाल फिलहाल में आपने कुछ खास लिखा हो तो बताइए
देखिए एक तो मैं अपना एक स्तंभ लिखता ही हूं जो वायर में हर इतवार को आता है कभी कभार। एक तो हर हफ्ते वही लिखना होता है। बाकी अभी हम लोगों ने जब खासकर इजराइल ने फिलिस्तीन और गाजा पर जो हमला बोला तो हम कुछ मित्रों ने मिलकर फिलिस्तीनी कविताओं के हिंदी अनुवाद की एक पुस्तक निकाली। उसके कुछ आयोजन भी किए पुस्तक का पहला संस्करण बिक भी गया दूसरा संस्करण अभी आ रहा है। अभी मैं एक न्यूयॉर्क रिव्यू ऑफ बुक्स में एक यूक्रेन पर एक अमेरिकी पत्रिका की एक लंबी रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यूक्रेन जो कि रूस से युद्धरत है और जहां बम गिर रहे हैं। ड्रोन आ रहे हैं। क्या क्या हो रहा है। उसकी राजधानी में एक व्यक्ति ने पुस्तकों की एक नई दुकान खोली जहां लाले पड़े हुए हैं। वहां एक पुस्तकों की दुकान हैय, तो एक पत्रकार उनके पास पास गया और उससे पूछा कि आपने ये पुस्तकों की दुकान खोलने का कैसे फैसला किया तो उन्हें कहा कि बात ये है कि वी कैननॉट विन ल द टाइम्स, बट वी कैन नॉट लूज ल द टाइम। तो यह जो बात है कि हम हमेशा जीत तो नहीं सकते लेकिन हम हमेशा हार भी नहीं सकते। तो मेरी मनस्थिति कुछ इस तरह की बनी रहती है। मैं उम्मीद छोड़ता नहीं हूं। लेकिन उसकी होने की जो विडंबना हैं उनको अलक्ष भी नहीं करता। उस समय जब कोरोना काल था तो मैंने कुछ उस समय जो हमारी हालत थी, खासकर उस समय हमको समझ में आया कि दूसरे कितना मैटर करते हैं तो हमारी जिंदगी दूसरों के बिना कितनी बेकार है और सुनसान। और लगभग असहाय हो जाती है। दूसरी बात यह भी समझ में आई। मसलन, हमलोग देखते थे कि आदमी तो इतनी दहशत में है, हमलोग सब घर में बंद है। बाहर नहीं निकल सकते। चीजें नहीं जा सकती। कहीं बाजार बंद है। सब है. लेकिन प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा। वो अपनी गति से चल रही है। फूल खिल रहे हैं। पत्तियां चमक रही हैं। हवा चल रही है। तो यह जो प्रकृति की, या कहूं कि मनुष्य की ट्रेजेडी है वो थोड़ी पहली बार समझ में आई। तो कुछ मैंने इसको दर्ज करने की कोशिश की।
तो चलते चलते. आप हमें अपनी दो कविता सुनाइए।
एक तो यह कि उन दिनों सब लोग मास्क लगाए घूमते थे। मब थोड़ा बहुत अशांत था। दो कविता लिखी उस वक्त। उसी में से एक कविता सुनाता हूं।
एक आदमी दूसरे आदमी पर शक करता है
दूसरे आदमी को तीसरे पर भरोसा नहीं
तीसरा आदमी शक करता है कि
चौथा आदमी कुछ और कर रहा है
पांचवा अब तक शक करते हुए छत में से निपट रहा है
छठवां धीरे धीरे सातवें पर शक नहीं करता
पर अंदर से उसे शको शुभा है
शक और गिनती दो ही डोरे हैं
जो सातों को बांधे रखती है
बल्कि मैंने कुछ कोरस लिखे जो ग्रीक नाटक की परंपरा है। यह मान के कि एक भयानक नाटक हमारे समय में हो रहा है। तो ये कोरस बीच-बीच में आते हैं। तो उनमें से एक आपको सुनाता हूं।
नहीं, हम दूर से नहीं यही आपके पड़ोस से आए हैं
हम साफ सुथरी बस्ती से नहीं
कीचड़, बदबू और गंदे पानी से पटी गली से आए हैं
और अगर कुछ बदबू हमारे कपड़ों से आ रही है
तो हम माफी चाहते हैं
हमारे पास कुछ खास देने को नहीं है
हम खाली हाथ लोग हैं
जो कुछ सिखाने नहीं
जो हो रहा है और जो होता आया है
उसकी याद दिलाने भर आए हैं
हत्याएं कर सत्तारूढ़ होते आए हैं लोग
और उनके अपराध अदालतों की मिसाल में नहीं
अंतःकरण की एक पीली बही में दर्ज होते हैं
सो कई पीढ़ियों बाद कोई पढ़ता
और याद कर पाता है जो औरों को मारता है
वह भी मरता है
भले पाक साफ माना जाता हुआ
और राजकीय सम्मान से
उसके रंगे हाथों का खून
फिर भी ना चिता में जल पाता है
ना कब्र में दफन निरपराध का खून
इतिहास में कभी नहीं सूखता
हर बार खून बहे
ये आजकल जरूरी नहीं है
बहुत हिकमत हैं मारने की
खून बहे नहीं बदन में ही सूख जाए
सबूत नहीं बचते
पर आत्मा फिर भी बची रहती है
और इतिहास के गलियारों में भटकती बोलती है
साल भर एक सा मौसम नहीं रहता
नहीं झूठ और घृणा हर समय हवा की तरह फैल सकते हैं
बदलने पर कुछ ना कुछ नष्ट होता है
पर याद नहीं हालांकि बाद में याद भी
एक तरह का ध्वंस है
जो कभी-कभी
अपने को भी नष्ट कर देती है
आप हमें पड़ोसी ना मानें
पर हम पड़ोस से ही आए हैं
और एक राम मंदिर पर
जब ये प्रतिष्ठा बहुत हो रही थी
तो मैं वहां नहीं था।
मैं वहां नहीं जाऊंगा
अब यही अपनी मेथी आलू की सब्जी,
दाल रोटी खाऊंगा
किसी पुण्य प्रसाद से वंचित रहूंगा
मैं प्रार्थना तक नहीं करूंगा
मुझे पता है
वह यहीं घर में हिलक कर रह जाती है
कहीं नहीं जा पाती
मैं पुरखों को परेशान नहीं करूंगा
उनसे नहीं पूछूंगा कि उनका जीवन उतना अकारथ
मेरा जाना लगता है
मैं अब कहीं भी भव्यता नहीं खोजता
क्योंकि भव्यता सिर्फ क्रूरता का उपरी पैरहन है
और मैंने अपने समय के बहुत बहुरूपिए देख लिए
खून सेब या संतरों की फांकों में नहीं
आदमी की नसों में बहता है
और आकाश में सुराख हो जाए
तो वहां से ज्योति नहीं
लावा बरसेगा
ना प्रेम में दो अक्षर है
ना उनका विस्तार बहुत है
मीर का शेर है वोह एक प्राचीन लिपि है
जिसमें आजकल कोई नई इबारत नहीं दिख सकता
पीपल पर रंगीन धागे बांधी स्त्री को बताऊंगा
ऐसे पीपल ही बंधेगा कोई देवता नहीं
बच्चों को दूंगा रंग बिरंगे थैले
ताकि वे उनमें सितारे भर सकें
पर ताकीद करूंगा
कि उनके आगे कोई जहां नहीं है।
मैं अपनी दिवंगत मां को चुपके से बताऊंगा
कि मैं अपनी कविताओं में ही दिवंगत हो जाऊंगा
और उनके पास नहीं आ पाऊंगा मैं कहीं नहीं जाऊंगा।
एक तरह से लेखक या कवि उम्मीद के उजाले में भी अंधेरे की दरार देख लेते हैं
जी और दूसरी चीज़ ये कि एक तरफ घुप अंधेरे में भी हम उजाले की दरार खोज लेते हैं।
क्या बात है। बहुत-बहुत धन्यवाद अशोक जी आपने बहुत विस्तार से चीजें बताई। उम्मीद की जानी चाहिए कि चीजें बदलेंगी और एक बेहतर दुनिया फिर से बनेगी। ऐसी उम्मीद के साथ आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।