सबसे बड़ी रॉयल्टी मिलने का सच क्या है- भारतवासी से बातचीत
विनोद कुमार शुक्ल के बारे में हिन्दयुग्म के संस्थापक से बातचीत। दीवार में एक खिड़की रहती थी क्यों छापा हिन्दयुग्म ने। अब तक की सबसे बड़ी रायल्टी क्यों और कैसे;
जाने माने साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का ८९ साल की उम्र में निधन हो गया है। रायपुर के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने उनके निधन की पुष्टि की है। वो पिछले कुछ दिनों से बीमार थे और अस्पताल में भर्ती थे। अस्पताल में भर्ती होने के बावजूद वह लगातार कुछ न कुछ लिखते हुए दिख रहे थे। उन्हें हाल ही में सबसे बड़ी रायल्टी के तौर पर हिन्द युग्म के संस्थापक शैलेश भारतवासी ने फनकी चर्चित किताब दीवार में एक खिड़की रहती है के लिए करीब ३० लाख रुपए भी मिले थे। जिसे लेकर अच्छा खासा विवाद भी हुआ था। उन्हें रायल्टी देने वाले शैलेश भारतवासी से अतुल सिन्हा ने कुछ समय पहले शैलेश भारतवासी से बातचीत की।
शैलेश जी बहुत स्वागत है आपका।
बहुत-बहुत धन्यवाद सर।
शैलेश जी, निश्चित रूप से आप बधाई के पात्र हैं कि किसी लेखक का आपने इतना बड़ा सम्मान किया और जाहिर सी बात है कि उनकी किताबें इतने बड़ी संख्या में बेची गईं तभी ऐसा हुआ। सोशल मीडिया पर जो बहसें चल रही हैं, वो सवाल भी कई उठाती हैं। तमाम प्रकाशन संस्थानों पर, जो प्रकाशक हैं उनपर कि वो रॉयलिटी ठीक-ठाक कभी देते नहीं। या तो उसमें वो ईमानदारी नहीं बरतते। ऐसा है क्या है? और विनोद कुमार शुक्ल की किताब में ऐसा क्या है, शुरुआत हम यहीं से करते हैं कि ये जो छह महीने में आपने किताब बेचने का जो कमाल दिखाया. करीब 90 हजार प्रतियां। तो ये कैसे हुआ?
अतुल जी, मुझे लगता है कि हिंद युग्म का जो हमारा प्रकाशन संस्थान है. इसके पीछे मैं उसकी पिछले 10 साल की तैयारी मानता हूं। हिंद युग्म में पिछले 10 सालों में हमने हर साल में एक से अधिक ऐसे लेखकों को प्रकाशित किया जिनके साथ हमें लाखों की संख्या में पाठक मिले। धीरे-धीरे वो संगठित होते गए। मतलब अगर मैं सिलसिलेवार ढंग से चलूं तो हिंदी के एक लेखक हैं दिव्य प्रकाश दुबे। वो हिंदी के बहुत लोकप्रिय लेखक हैं इन दिनों। उनकी सात किताबें प्रकाशित हैं। और ऑब्वियस सी बात है कि थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रकाशित हुईं। तो 2013 में वह आते हैं। शुरुआत हम लोग हजार प्रतियों से करते हैं। हम 1000 प्रतियों को बेस्ट सेलर कहना शुरू करते हैं। फिर हम1000 को 5000 लेकर के जाते हैं। फिर 5000 को हम 10,000 लेकर के जाते हैं। फिर 10,000 को 50,000 लेकर के जाते हैं। और ऐसे एक बड़ी संख्या तमाम किताबों की बनती है। उसके बाद हमारे पास सत्य व्यास आते हैं, अनु सिंह चौधरी आती हैं। निखिल सचान आते हैं। मानव कौल आते हैं, नीलोत्पल मल आते हैं। ऐसे करके एक लेखकों की लंबी परंपरा आती है जो कि युवा लेखकों की है। और जो अपने साथ अपनी-अपनी दुनिया के पाठक लेकर के आते हैं। पाठक लेकर के आने का मतलब ये नहीं कि वो अपने पीछे कोई पाठक लेकर के चल रहे थे। उन्होंने जो लिखा उससे उन्होंन अपनी एक पाठकों की दुनिया बनाई। तो वो जो पाठकों की दुनिया है वो हिंद युग्म को मिली और जिसकी तैयारी 10 सालों में हुई। तो मुझे ऐसा लगता है कि एक तो बड़ा कारण यह भी है कि विनोद कुमार शुक्ल को जब हमने पुन प्रकाशित किया दीवार में एक खिड़की रहती थी, तो हमें यही पाठक मिलने शुरू हुए। दो दिसंबर 2023 में दीवार में एक खिड़की रहती थी किताब प्रकाशित हुई। और तीन महीने एक फाइनेंशियल ईयर का मिला। दिसंबर का आखिरी समय था 26 या 27 दिसंबर तो तीन महीने में हमारी दूसरी किताबें जो कम बिकती हैं उसी तरीके का इसका परफॉर्मेंस था। मात्र 2000 से 2500 प्रतियों के बीच इसकी प्रतियां बिकीं तीन महीनों में। लेकिन अगले साल जब हमने इसको, मतलब धीरे-धीरे धीरे-धीरे अपने पाठक समाज में उसको फैलाना शुरू किया जो बेसिकली ज्यादातर युवा पाठक हैं। जो 40 साल से कम, 30 साल से कम मतलब 20 से 40 का रेंज आप मान सकते हैं। उसमें तो दूसरे ही साल दूसरे फाइनेंसियल ईयर में 18,000 प्रतियां बिकी। फिर क्या हुआ कि इसी बीच भारतीय ज्ञानपीठ मिल गया विनोद कुमार शुक्ल को। और है क्या है कि जो 20-25000 पाठक उनके लिए जमा हुए। तो जब कृति अच्छी है तो एक पढ़ेगा तो 10 को रिकमेंड करेगा 10 जो है फिर 100 को करेंगे तो मुझे लगता है कि ये जो इफेक्ट है, सोशल मीडिया पर जिसको वायरल होना कहते हैं, मुझे लगता है कि उस परिघटना ने इन सारे संयोगों को एक साथ एकत्रित कर दिया और उसी का परिणाम यह है कि आज जिस तारीख में हम बैठे हुए हैं मुझे लगता है कि उनकी लाखों किताब बिक चुकी है। वह तो आंकड़ा हमने 17 सितंबर का दिया था जो 89000 का था। जब मैं आज आपके साथ बैठा हूं तो 5000 प्रतियां हमारे कंप्यूटर सिस्टम में और जुड़ गई हैं, करीूब ४५ सौ। यानी अब 94 से 95000 प्रतियां बिक गई हैं दीवार में एक खिड़की रहती थी की। जबकि, अतुल जी, महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस देश में या पूरी दुनिया में भी ऐसा होता होगा कि जो पढ़ने वाली चीजें या सिनेमा, जब कोई चीज बहुत लोकप्रिय हो जाए तो उसकी पाइरेसी भी होने लगती है। पूरे हिंदुस्तान में किताब की दुकानों, फुटपाथों, ऑनलाइन चैनलों पर किताब की बहुत ज्यादा पाइरेसी है। मेरा ऐसा अनुमान है कि अगर पाइरेसी नहीं हो पाती जो कि संभव नहीं है। मुझे लगता है कि दीवार में एक खिड़की रहती थी की पिछले 6 महीने में 2 लाख से अधिक प्रतियां बिकी होंगी।
पाइरेसी के साथ ...
पायरेसी के साथ। तो यह ऐसा इसलिए संभव हुआ है कि विनोद कुमार शुक्ल को बिल्कुल नए पाठक समाज ने पढ़ना शुरू किया है। बिल्कुल नया पाठक है। वो विनोद कुमार शुक्ल को पहली दफा पढ़ रहा है। वो हिंद युग्म का भी पाठक है और हिंदी के बाहर का भी पाठक है। ऐसा भी हो रहा है कि विनोद कुमार शुक्ल के दीवार में एक खिड़की रहती थी पढ़ करके वो हिंदी की दूसरी किताबों की तरफ भी भागेगा। ऑब्वियस सी बात है तो वो हिंद युग्म की भी किताबें पढ़ रहा है, और हिंदी की तमाम पुरानी- नई क्लासिक और समकालीन भी पढ़ रहा है। और पिछले 30-40 साल में छपी किताबों को पढ़ना शुरू कर चुका है। मुझे लगता है कि इस परिघटना के पीछे इस समय युवाओं द्वारा हिंदी किताबों का पढ़ा जाना, उसमें सोशल मीडिया को ड्राइविंग फोर्स की तरह काम करना भी है। इंटरनेट, ई-कॉमर्स पर सब जगह किताबों का उपलब्ध होना। ई-कॉमर्स का पेनिट्रेशन तो 2010 के आसपास से इंडिया में है शुरू हुआ और किताबें Flipkart और Amazon पर। एमेजॉन 13 में आया था जबकि Flipkart 2010 या 12 से किताबें बेच रहा है। और दूसरे चैनल भी थे किताब बेचने के। तो धीरे धीरे धीरे धीरे ना, ये जो इफेक्ट है वो आपको अब बहुत उजागर रूप से दिखलाई देने लगा है। तो मुझे लगता है इसके पीछे नए पाठक का जन्म है मेरा ऐसा मानना है।
लेकिन जैसे विनोद कुमार शुक्ल तो अभी एक उदाहरण हैं। बहुत सारे ऐसे लेखक हैं जिनकी बहुत चर्चित कृतियां हैं और बहुत सारे प्रकाशकों के पास वो हैं। लेकिन कभी भी रॉयल्टी को लेकर के यह असंतोष लेखकों में हमेशा से रहा है। और जब भी आप बात करें पर्सनली, भले ही वो खुल के ना बोलें, अपने रिश्तों को लेकर। लेकिन पर्सनली जब भी आप बात करते हैं तो ये बहुत ही सामान्य सी बात है कि उनकी रॉयल्टी मार ली जाती है। उसमें वो ईमानदारी नहीं है या फिर या कोई ऐसा करार होता है जिसकी वजह से लेखक जितना लिखता है या जितनी उसकी किताबें बिकती हैं उसका बहुत साफ-साफ कोई ना तो आंकड़ा होता है, ना ब्यौरा होता है।
तो मुझे ऐसा लगता है अतुल जी, आपका मैं सवाल समझ गया। इसके पीछे की वजह यह है कि हिंदी में लेखकों ने, मतलब मुझे लगता है लेखक भी इसके पीछे बहुत बड़ी वजह है। लेखकों ने अपने प्रकाशकों से ये हक कभी मांगा नहीं। ये कोई सम्मान तो है नहीं। आपने बातचीत के शुरू में कहा कि हिंद युग्म ने जो ये सम्मान उनको दिया। मुझे लगता है कि सम्मान नहीं दिया है। ये तो उनका अधिकार था। हमने बस उसको उजागर इसलिए कर दिया ताकि लोगों को ये पता लगे कि भाई देखिए किताबें हिंदी में पढ़ी जा रही हैं। आमतौर पर सार्वजनिक जलसों में रॉयल्टी देने का कोई मतलब, कोई परंपरा रही नहीं है इस तरह की और ना होनी चाहिए। लेकिन हमने इसलिए दिया कि भाई लोगों को यकीन हो कि हिंदी में किताबें पढ़ी जा रही हैं और रॉयल्टी जो है पूरे आंकड़ों के साथ कॉपी दर कॉपी दी जा सकती है। तो मुझे ऐसा लगता है कि इसके पीछे ये वजह नहीं है क प्रकाशक चाहे तो नहीं दे सकता है। प्रकाशक के पास डाटा होता है। क्योंकि अगर डाटा नहीं रखेगा तो अपने किताब जिसको वो बेच रहा है। जैसे मान लीजिए वह रिटेलर को बेच रहा है, डिस्ट्रीब्यूटर को बेच रहा है। उससे कैसे पैसे लेगा? अगर इसका ब्यौरा ना हो कि मैंने फलां किताब की 100 प्रतियां इसको दी क्योंकि धंधा तो लगभग उधार का है। तो यानी आंकड़ा उसके पास होता है। बस इसी आंकड़े को उसे लेखक को ट्रांसफर करना है। तो मुझे लगता है कि यह जो पुराने लेखक हैं। जो मतलब बहुत सारे अब नहीं भी रहे। उन लोगों ने अपने प्रकाशकों को जो यह छूट दी। उन्होंने इतने से ही अपने आप को धन्य माना कि मेरी किताब इसने छाप दी, यही बहुत है। और ये वाला हक नहीं मांगा। तो प्रकाशकों की ऐसी आदत पड़ गई। एक सिस्टम बन गया। मुझे लगता है कि इसके पीछे ये बहुत बड़ा कारण है।
तो प्रकाशक तो फलते फूलते गए। तमाम प्रकाशकों को आप देखें तो जाहिर सी बात है वो लेखकों के ही बलबूते पे फलते फूलते रहे...
मतलब देखिए। इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि मान लेते हैं कि कोई भी व्यवसाय में, प्रकाशन की बात कर रहे हैं उसमें देखें कि एक मतलब प्रकाशक के पास 1000 टाइटल हैं। ठीक है? और 700 लेखक हैं। मतलब किसी की 10 किताबें हैं, किसी की तीन है, किसी ज्यादातर की एक है। तो जो जो किताबें कम बिक रही हैं या लगभग लगभग ना के बराबर बिक रही हैं। वो भी कुछ ना कुछ उसको लाभ के रूप में दे रही हैं। अगर मतलब एक थ्रेशहोल्ड तक बिक गई हैं। अगर उन्होंने अपना खर्चा निकाल लिया है तो 20% किताबें तो आपको कमा के देती ही हैं। 80% नहीं देतीं। मैं यह कह रहा हूं कि लेखक और प्रकाशक जो है वह छोटी और बड़ी बिक्री को क्यूमिलेटिव रूप से कमा रहा होता है। ठीक है? और एक जो लेखक है, अगर वो सफल लेखक नहीं है तो वो उसकी बिक्री बहुत मामूली होती है। तो वो उसको, मतलब उसकी कमाई कुछ भी नहीं समझ में आ रही होती है। लेकिन ये छोटी-छोटी संख्या जब प्रकाशक के पास जमा होती है तो वो बड़ी संख्या होती है। तो इसलिए वो आपको फलता फूलता दिखता है। और कुछ लेखक भी फलते फूलते दिखते हैं। बाकी नहीं दिखते हैं। तो एक तो मुझे लगता है वो वाली जो बात आपने कही उसकी वजह ये है। लेकिन जो आप ट्रांसपेरेंसी की बात करते हैं, रॉयल्टी की बात करते हैं। उसकी वजह मुझे लगता है कि इस सिस्टम को मान लिया गया है। लेखकों ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई है। इसलिए ऐसा होता है। अभी भी मैंने ऐसा सुना है कि इन्हीं पारंपरिक प्रकाशन गृहों से जो लेखक अपने इन अधिकारों की मांग करते रहे उनको ब्यौरे मिल रहे हैं।
नहीं तो सवाल यह है कि मांगना क्यों पड़े?
देखिए, इसको फिर कौन तय करेगा? या तो सरकार इंटरप्ट करे। यही तो हो सकता है। आप जो कह रहे हैं वो नैतिकता का सवाल ले आए आप। अगर आप कह रहे हैं कि क्यों मांगना पड़े तो फिर तो यहां पर बीच में सरकार को आना पड़ेगा। हालांकि सरकार होती है। मतलब संविधान हमारा होता है इनविज़िबल रूप से। लेकिन मुझे लगता है कि लेखक अपने हक के लिए बोले। इसके अलावा सर, अब कोई विकल्प नहीं है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है जो आपने बात कही अब इसको एक सकारात्मक तरीके से देखें कि हमारी उदंडता (अगर इसको उदंडता भी कई लोग कह रहे हैं) मान लिया जाए जो हमने वहां पर की। सार्वजनिक रूप से उसको उजागर किया। अश्लीलता भी कह लीजिए उसको। तो उसका एक फायदा शायद यह होगा कि यह मांग अब बढ़ेगी। तो बाकी प्रकाशकों पर कहीं ना कहीं दबाव तो बनेगा ना। और मुझे लगता है कि प्रकाशक को करना ये बहुत आसान है। पता नहीं क्यों डर है, क्यों संकोच है। कर देना चाहिए जो है। अगर मुझे लगता है कई बार ना, इस तरह का भी डर होता होगा कि मान लीजिए एक बहुत बड़ा लेखक है। अतुल जी, वास्तव में रॉयल्टी ₹200 की बन रही है। ठीक है? तो अब कैसे कह दें क्योंकि यह कहते ही उस लेखक को यकीन नहीं होगा। जो एक स्थापित बड़ा लेखक है, लेकिन उसको यह एहसास नहीं है कि कि वास्तविक रूप से उसको लोग पढ़ नहीं रहे हैं। हम दो तरीके से देख सकते हैं वास्तविक रूप से या तो उसको पढ़ नहीं रहे हैं या उसका जहां कहीं पाठक है वहां तक उसकी किताबें पहुंचाई नहीं जा पा रही हैं। जो भी हो, लेकिन दोनों ही घटनाओं से तो रॉयल्टी बनेगी ना अल्टीमेटली। किताब का ट्रांजैक्शन होगा। बिक्री के तौर पर तो रॉयल्टी बनेगी, नहीं तो नहीं बनेगी। तो मुझे लगता है कि ये जो डर होता है ना, एक जो रिश्ता बनाया है प्रकाशक ने मुझे लगता है यह डर भी इस चीज को रोकता है कि कैसे हम यह वाला आंकड़ा दे दें। जादुई आंकड़ा है तो दे दें अगर खराब आंकड़ा है तो कैसे दें हम।
शैलेश जी, अब हम थोड़ा अलग रुख करते हैं। आपने एक आंदोलन चलाया नई वाली हिंदी मतलब जो आज के दौर की हिंदी है उसको लेकर के एक अभियान चलाया। जाहिर सी बात है कि जो नए लेखक आ रहे हैं और आप आपके यहां से उनकी किताबें छपती हैं। उसका आपने एक पैमाना तय किया है। कुछ ना कुछ। वो क्या है?
देखिए मुझे लगता है कि इसका जवाब नहीं हो सकता कोई। क्योंकि जो साहित्य को आप मतलब आप कहेंगे किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए मतलब उसका मूल्यांकन करने की बड़ी सब्जेक्टिव वजह होती हैं। और वो बड़ी एडिटोरियल पर्सपेक्टिव से चीजें देखी जाती हैं। तो मतलब ये सवाल जो आप कर रहे हैं ये सवाल तो मुझसे वो लेखक रोज रोज-ब रोज करता है। हम इससे रोजाना दो चार होते हैं। जिन लेखकों की किताबों की पांडुलिपी हम वापस करते हैं और स्वाभाविक सी बात है कि हम ही नहीं कोई भी दुनिया का प्रकाशक होगा वो 99% तो पांडुलिपी वापस ही कर रहा होगा। उसके कारण कुछ भी हो सकते हैं। मतलब उसका कारण तो यह ही सबसे बड़ा हो सकता है कि उसके एडिटोरियल पर्सपेक्टिव की चीजें नहीं है। पहली चीज। दूसरी यह कि उसके पास कितना मानव संसाधन है, कितनी धन संपदा है। कितना रिसोर्स है? यानी वो 1 महीने, 1 साल में ,6 महीने में, जो भी उसका एक प्रोजेक्शन है, उसमें वो कितनी किताबें प्रकाशित कर सकता है। जो उसके पास होगा उतनी किताबें प्रकाशित कर पाता है या नहीं। थोड़ी हिम्मत करके 10% बढ़ा लेगा तो यानी कि हम 99% लोगों को हम मना कर रहे हैं। तो मना करते हैं जिसको उसका सवाल यही होता है जो आपने कहा। उसका भी हमारे पास कोई जवाब नहीं होता। बस इतना ही इसका जवाब हो सकता है कि जो आपका एडिटर होता है या आपका एक जो एडिटोरियल सिस्टम होता है उसमें वह वो चीज खोज रहा होता है जो शायद जिस तरीके से वो खोजता रहा था। तो अब शायद उसका मैं थोड़ा जवाब देने की कोशिश कर सकता हूं कि जैसे हम क्या खोजते हैं? हम यह खोजते हैं कि क्या यह जो किताब है हमारी अब तक की प्रकाशित किताबों से किन-किन कारणों से अलग है? हम ऐसा तो नहीं कि यह किताब हमारी ही किसी बहुत पॉपुलर किताब की, मतलब तर्ज को नकल करने की कोशिश ते नहीं की गई है। मतलब उसको पकड़ने की कोशिश की। उसको ऐसा लगता हो कई ऐसे नए लेखकों में अक्सर होता है कि उनको लगता है कि फलां किताब बहुत लोकप्रिय है। तो क्यों ना इसी तरह इसका एक रेप्लिका बना दिया जाए। मतलब अभी अभी ये दिल्ली में अवस्थित है। इसको उठा के बनारस में अवस्थित कर दें। पात्रों को बदल दें। थोड़ा सा परिस्थितियों को बदल दें। लेकिन उनको लगता है कि ये शायद काम कर रहा है। तो हम तो पहले उसमें ये खोजते हैं कि भाई क्या ये चीज तो नहीं है। दूसरी चीज क्या, ये जो लिखा है इसने ये भाषागत रूप से, शैलीगत रूप से क्या एक फ्रेश चीज या एक नई चीज है? क्या हम किसी के सामने ये जब इसको प्रोजेक्ट करेंगे तो हम ये कह सकते हैं कि एक हम नई चीज लेकर के आए हैं। कम से कम इन स्तरों पर और तीसरी मतलब जो महत्वपूर्ण चीज हम जो देखते हैं कि क्या इस समय का पाठक यानी इस समय जो 20 साल से 40 साल की अवस्था का है क्या इससे कनेक्ट हो पाएगा? तो ये दो तीन चार जो बिंदु हैं, जो हम मोटे तौर पर देख रहे होते हैं। लेकिन वास्तव में समग्रता में देखने में तो वो एडिटोरियल पर्सपेक्टिव से ही देखा जा सकता है। और ये इसको आप गणित की तरह बता नहीं सकते कि यार ये इस वजह से हमने रिजेक्ट कर दिया। मतलब हम यही बता पाते हैं कि समझ में नहीं आई। मजा नहीं आया है ना तो आपने नए-नए पाठक दिए और न लोग पसंद करेंगे।
नए-नए लेखकों से लगातार आपने शुरुआत की और लंबे समय तक हिंदी युग्म की जो अभी भी नए लेखकों का इतिहास है हमारे पास आपका जो हां मेन थ्रस्ट है वो नए-नए लेखक हैं। ऐसे में आपने विनोद कुमार शुक्ल को क्यों चुना?
विनोद कुमार शुक्ल को चुनने की सबसे बड़ी वजह यह रही कि 2020 में जब विनोद कुमार शुक्ल का रॉयल्टी विवाद हुआ तो विनोद कुमार शुक्ल की तरफ से हमसे पूछा गया कि भाई हम कोई ऐसे प्रकाशक की तलाश में हैं जो हमें ठीक ढंग से लोगों के सामने रख सके और हमें जो भी हमारा मतलब वास्तविक रॉयल्टी बनती है वह हमें ट्रांसपेरेंसी के साथ दे सके। ऐसा उनको कैसे मालूम पड़ा कि हम ऐसा कर रहे हैं। क्योंकि जी, मतलब बहुत सारे लेखक जो उनके संपर्क में थे उन्होंने ऐसा कहा कि हमारे पास आएं। उम्होंने कहा कि भाई हमारा एक प्रकाशक है जो एक-एक बिक्री का ब्यौरा देता है। तो आपको एक नए प्रकाशक पर भी मतलब भरोसा करके देखना चाहिए। तो जब उन्होंने हमारे सामने प्रस्ताव रखा। तो हमारे लिए तो बड़ी अच्छी बात थी। एक कारण इसमें यह भी था कि जब मैं छोटा था मतलब मुझे जब साहित्य पढ़ने का रोग लगा मैंने सब 12वीं के बाद जब पढ़ना शुरू किया तो शुरू में आप जैसे आज भी आजकल के भी दौर के बच्चे बहुत सारे गुनाहों का देवता से शुरू करते हैं हमने भी शुरू किया लेकिन बहुत सारे मतलब उस समय जो भी हिंदी की 100 ऐसी किताबें. जो आमतौर पर हिंदी में पढ़ना शुरू करने वाला व्यक्ति पढ़ लेता है, वो सब मैंने भी पढ़ ली। तो उस पढ़ने के क्रम में जो मेरी अपनी पसंदीदा किताब बनी वो बनी दीवार में एक खिड़की रहती थी। अच्छा तो जब उसी को छापने का प्रस्ताव मेरे पास आया तो मुझे लगा कि ये तो जैसे नहीं होता है कि आप वो सितारे साजिश कर रहे हैं कि भाई ये तो सही व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए इसे। तो हमने उसको तब तो ऐसी तो बहुत सारी किताबें आपके दिमाग में होंगी। हां बहुत सारी छापना छापना चाहेंगे तो अगर भविष्य में ऐसा मौका मिलता है हमको ऐसा अवसर मिलता है तो निश्चित तौर पे और हम छाप करके ये भी सिद्ध करना चाहेंगे। अपनी तमाम कोशिशों से कि भाई हमने भी जो पसंद किया अपने लड़कपन में वो आजकल का भी आजकल के लड़कपन में जो लड़के लड़कियां जी रहे हैं उनकी भी वो पसंद हो सकती है। उन तक अगर उसको किसी तरह से पहुंचाया जाए जो विनोद कुमार शुक्ल की दीवार में खिड़की रहती थी ने ये सिद्ध किया है मतलब देखिए, हैरानी की बात यह है कि विनोद कुमार शुक्ल की दीवार में एक खिड़की रहती थी किअगर 90 हज़ार प्रतियां बिकीं और जिसका प्रोजेक्शन मैं 2 लाख का आपको बता रहा हूं। अगर उसमें जाली किताबों को जोड़ दिया जाए। मेरा ऐसा अंदाजा है कि उस 2 लाख प्रतियों में से 99500 प्रतियां 40 साल से कम उम्र के लोगों ने खरीदी होंगी। क्योंकि ऐसा डेमोग्राफिक डाटा एग्जैक्टली हमारे पास नहीं है क्योंकि ऑनलाइन माध्यमों का तो डाटा होता है लेकिन ऑफलाइन माध्यमों में दुकानदार ये डाटा नहीं देता कि इसको बूढ़े व्यक्ति ने खरीदा इसको जवान ने लेकिन मेरा जो अपना प्रकाशकीय अनुभव और जितना मैं पुस्तक मेलों में जाता हूं और जिन लोगों से मेरी बातचीत है रोजाना बेसिस पर सोशल मीडिया के भी माध्यम से जिन जिस तरह के लोगों की प्रतिक्रियाएं उस किताब पर मिल रही हैं, मेरा ऐसा मानना है कि 40 साल से कम अवस्था के लोगों ने जैसे आप कह रहे हैं ना कि भारत देश जो है हर फील्ड में कहा जा रहा है कि वह युवाओं के कंधे पर सवार है। तो किताबों को भी वही कंधा देंगे।
मतलब आपका टारगेट ग्रुप जो है वो रियल टारगेट ग्रुप नहीं।
अतुल जी सबका टारगेट ग्रुप यही होना चाहिए। आप तो पत्रकारिता से जुड़े हैं और प्रिंट पत्रकारिता का तो मैं कई जगह ऐसे सर्वेक्षण पढ़े और ऐसे अध्ययन पढ़े कि कोरोना महामारी के बाद स्पेशली 2020 के बाद बुजुर्गों ने शुरू में, मतलब हाइजीन के नाम पर अपने आप को क्वारेंटीन करने के नाम पर वायरस को अपने तक ना आने देने के रास्ते बंद करने के नाम पर अखबार लेना बंद कर दिया और वो बंद कर दिया। हम और अभी भी आप ये पाएंगे कि स्पेशली जो WhatsApp या जैसे जो सोशल मीडिया है, जो बहुत वन टू वन कनेक्शन वाले हैं, उसका इस्तेमाल जवान लोगों से अधिक बुजुर्ग लोग कर रहे हैं। जवान लोग तो अब इसके प्रति डिटॉक्स करने की कोशिश कर रहा है। तो अब वो नए रास्ते ढूंढ रहा है कि कैसे मैं इससे बचूं जिसमें मैं भी शामिल हूं। मैं भी सोचता हूं कि मुझे किताबों की शरण में तो इसलिए भी चले जाना चाहिए क्योंकि अब मैं इसको तब शुरू कर चुका था जब मैं हुआ था। यानी कि मोबाइल के पहली बार संपर्क में मैं 2002 में आ गया। उस समय स्मार्टफोन नहीं थे। यानी स्मार्टफोन के संपर्क में मैं तब से आ गया जब से इसका जन्म हुआ। तो अब इसके प्रति हमारे अंदर न, एक तरीके की वितृष्णा पैदा हो गई है, युवाओं में और अब तो हमसे भी छोटी उम्र के जो बच्चे हैं 10 साल बाद जो आ रहे हैं तो मुझे लगता है कि आने वाले समय में ये पीढ़ी और ज्यादा किताबों की तरफ भागेगी। हां, तो ये तो ये संकेत अभी से मिलने लगा है कि दीवार में एक खिड़की रहती थी। अभी रायल्टी के प्रसंग की वजह से हम लोग ये बात कर रहे हैं। ये एक समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय विषय है कि हिंदुस्तान में मान लीजिए पूरी दुनिया में यही हाल होगा। लेकिन हिंदुस्तान जहां जो मतलब थर्ड वर्ल्ड कंट्रीज जहां पे मतलब पढ़ना एक तरह की लग्जरी है वैसे में भी अगर आप पाएंगे कि जो अंग्रेजी या भारतीय भाषाओं में तमाम तरीके की चीजें जो पढ़ी जा रही हैं मुझे लगता है कि उसमें युवा प्रतिभागिता बहुत ज्यादा होगी। जैसे मान लीजिए डिजिटल जमाने की बात अक्सर हम लोग करते हैं और ऐसे समय में जब हर हाथ में मोबाइल है किताबों की तरफ लोगों का रुझान पिछले काफी समय से कम हुआ है तो इस तरफ जो पिछले कुछ समय से जो ट्रेंड दिखाई पड़ रहा है खासतौर से पुस्तक मेले जब से बढ़े और तमाम लिटरेचर फेस्टिवल्स शुरू हुए तो उससे किताबों की बिक्री तो बढ़ी बढ़ी हां तो ऐसे में प्रकाशन का जो व्यवसाय है वो भी बहुत तेजी से फला फला फूला आपने भी जो पिछले 10 सालों में स्टडी किया हम क्योंकि आप एक इंजीनियरिंग के छात्र रहे जी जैसा आपने बताया तो इंजीनियरिंग करने के बाद आपने जो ये व्यवसाय चुना खासतौर से इस जमाने में तो क्या आपने लॉन्ग टर्म ये सोचा कि भाई अब सारी दुनिया फिर से एक बार किताबों की तरफ नहीं ये तो मतलब बिल्कुल भी नहीं सोचा क्योंकि प्रकाशन की दुनिया में तो मतलब मैंने और कई सारी बातचीत में बात बताई है। यहां वह बातचीत शायद लंबी हो जाएगी। लेकिन अगर संक्षेप में बताएं प्रकाशन की दुनिया में कैसे आए
मैं बहुत एक्सीडेंटली आया। मैं बीटेक करने के बाद दिल्ली इंजीनियरिंग सर्विसेज की तैयारी के लिए आया था। मैंने कोचिंग में एडमिशन भी लिया था। लेकिन साथ ही साथ जब मैं आपको अभी अपनी बातचीत में बता रहा था कि 12वीं के बाद मैं सोनभद्र जहां मेरा जन्म हुआ और जहां मैं पढ़ा पढ़ा 12वीं तक पढ़ा। वहां से जब मैं इलाहाबाद आया। आईआईटी जेई की तैयारी के लिए इंजीनियरिंग एंट्रेंस की तैयारी के लिए तो उस समय मेरा एक साहित्यिक दायरा बना। जिसमें कि मेरे उम्र के हम उम्र लोग जो लिखते भी थे और पढ़ते भी थे। यानी जैसे साहित्यिक जो लघु पत्रिकाएं हैं हंस कथादेश, ज्ञानोदय इस तरह की पत्रिकाएं पढ़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ वहां से शुरू हुआ। यानी साहित्य पढ़ने की आदत वहां लगी। तो कुछ ऐसे भी दोस्त थे जो लिखते थे। तो उन लोगों के लिखने में हमें ऐसा लगता था कि ये जो इन पत्रिकाओं में मैं पढ़ता हूं इनका लिखा हुआ उनसे बेहतर है या इनका लिखा हुआ हमें ज्यादा कनेक्ट करता है। ये लिखा हुआ हमारी दुनिया के बाहर की चीज है। मतलब हम जो परिवेश में जी रहे हैं ये उस परिवेश की कहानी नहीं है। ये उस परिवेश की कविता नहीं है। ये हमसे कनेक्ट नहीं करती। तो उस समय एक ये बीज पड़ गया था कि भाई ये जो वॉइसेस हैं जो हमारे इर्द-गिर्द हैं जो हमें मेन स्ट्रीम की वॉइस लगती हैं। और एक्चुअल में जो मेन स्ट्रीम की वॉइस बनी हुई हैं वो है नहीं। हम तो कहीं ना कहीं एक दिमाग में हमारे अनकॉन्शियस माइंड में यह था कि इस तरह की चीज जो है होनी चाहिए। उस समय तो ब्लॉगिंग का जमाना था। लेकिन ब्लॉगिंग का जमाना तो 2006 में मैं आया ब्लॉगिंग में। मतलब मैं जब 2002 में बीटेक करने गया तब मैं इंटरनेट के संपर्क में आया और 2004 में हिंदी ब्लॉगिंग शुरू हुई थी। बिल्कुल आखिरी में एक ब्लॉग शुरू हुआ था। तो उसके बाद 2005 में और लोग हो गए। तो 2006 के शुरू में मतलब मैं भी ब्लॉगिंग की दुनिया में आ गया। एक दो लोगों ने मुझे भी खींच लिया। तो ब्लॉग मुझे एक ऐसी अपॉर्चुनिटी दे गया कि कैसे वो जो मैं आपको बताया कि जो मेरे मित्र थे जिसको मैं मेन स्ट्रीम मानता था और उनको लगता था कि वो इन वो इंपॉर्टेंट वॉइसेस हैं और वर्सेस जिसको हम पढ़ते रहे हैं और जिसको हम देख रहे हैं। तो मैंने उनको ब्लॉग पे जगह देनी शुरू की और ये वो संयोग ऐसा घटित हुआ कि ब्लॉग पे जगह जब देने लगा तो लोग उससे जुड़ने लगे। फिर एक सिंपल ब्लॉग कम्युनिटी ब्लॉक बन गया। बहुत सारे लोग उसके कंट्रीब्यूटर हो गए। फिर बाद में हमने उसको संस्थागत कर दिया। फिर रोजी रोटी का सवाल जब आया क्योंकि मैं उसको फुल टाइम करने लगा। मैंने ये तय कर लिया कि इसमें मजा आ रहा है। इसको करते हैं। तो जब रोजीरोटी का सवाल आया तब 2010 में प्रकाशन शुरू किया और प्रकाशन भी कोई सोची समझी योजना के तहत नहीं किया। कुछ मित्रों ने कहा कि मेरी किताब आप ही प्रकाशित करोगे। तो हमने प्रकाशन भी शुरू कर दिया। तो और प्रकाशन शुरू करने के बाद भी मुझे कुछ पता नहीं था कि इसका करना क्या है। यानी कि किताबें छाप ली तो ये खरीदेगा कौन और इसको कोई क्यों खरीदेगा। तो कहने का अर्थ ये है कि ये सब बड़ा बहुत ही ऑर्गेनिक हुआ और जब एक दो किताबें ऐसी मिलती चली गई जिन्होंने मेरी आंख खोली कि यार इसको भी सीरियसली कर सकती हैं और ये एक अच्छा व्यवसाय हो सकता है और इसमें भी मतलब जो एक आंदोलन वाला दिमाग है कि कैसे ब्लॉग पहले हम शुरू में लोगों को हिंदी लिखना सिखाते थे। आपके समय के भी बहुत सारे पत्रकार मित्रों से आप पूछिएगा तो उनको कोई तकनीकी बाधा आती थी हिंदी यूनिकोड में लिखने में ब्लॉग में कोई तो उस समय मतलब लोग मुझे फोन करते थे। तो वो जो एक शुरू से रवैया था कि कैसे लोगों की मदद करें और कैसे हिंदी को इंटरनेट की दुनिया में स्थापित करें।
तो जब प्रकाशन की दुनिया में आए तो यहां पर भी एक चुनौती अपने आप ही ले लिया कि किताब बिक क्यों नहीं सकती? इसको करके देखते हैं। तो जब वो करना 2013 से शुरू किया जब समझ में आने लगी तो तो धीरे धीरे धीरे-धीरे हमें वो प्रोजेक्शन दिखने लगा। हमें वो भविष्य दिखने लगा। तो जो आप ये बात कह रहे हैं कि मतलब मैं इंजीनियर था तो कोई इस तैयारी के साथ आया था। इस तैयारी के साथ नहीं आया लेकिन मैंने वो तैयारी बना ली। मुझे ऐसा लगा कि मैं ठीक जगह आ गया हूं। ठीक है। लेकिन अब हम एक बार लौटते हैं फिर से प्रकाशन के आपके इस आज के दौर में जी कि आज के दौर में आपने स्टडी तो पूरा प्रकाशन इसका इंडस्ट्री का किया ही है।
जी। हजारों की संख्या में प्रकाशक हैं। आज की तारीख में किताबें भी लाखों की संख्या में छप रही हैं। हां। आपको क्या लगता है कि कौन सा ऐसा ट्रेंड है आज के दौर में जो यूथ को आज के यूथ को सबसे ज्यादा पसंद वो चीजें आती हैं। कौन सा ऐसा कंटेंट है?क्योंकि हम कंटेंट पर बात करते हैं अक्सर। और कंटेंट को लेके ही सारा सारा खेल ही कंटेंट का है।
अतुल जी मुझे लगता है दो तरह की चीजें पसंद आती है और मुझे लगता है यह दौर की बात नहीं है। हर दौर में आप ये पाएंगे जो यूथ होता है वो उसको मतलब ऐसा आभास जब होता है ना कि कोई उसको दिशा दे रहा है। हम तो उस तरह की उस तरह की चीजों के पीछे वो भागता है। मतलब उसको बड़ा कंफ्यूजन होता है। जब आप यंग माइंड होते हैं ना तो बहुत क्लियर नहीं होता। बहुत तरह की चीजें होती हैं। तो एक जो उसकी मतलब आप कह सकते हैं कि उसके उमंग को उसकी चाह को उसकी महत्वाकांक्षा को ऐसा उसको प्रतीत हो जाए कि ये दिशा दे सकता है तो उस तरह का कंटेंट मतलब उस तरह का व्यक्ति उस तरह का कंटेंट उसे समझ में आता है और दो तरह के कंटेंट आपको समझ में आएंगे कि हमेशा चलेंगे। एक जो उसकी उसकी बात कर रहे होंगे और एक ऐसी बात कर रहे होंगे जो बिल्कुल वैसी ना हो। मतलब एक बिल्कुल फतासी की दुनिया जो उसकी कल्पना लोक की दुनिया भी नहीं है उससे भी बाहर की दुनिया है और एक वो दुनिया जिसके इर्द-गिर्द रहता है तो मुझे लगता है कि मतलब हर युग में और इस समय भी युवाओं की वही पसंद है जो ये दोनों चीजों में आती है। अगर आप टिक मार्क बनाएंगे तो आजकल के रिश्ते है ना आजकल के जिस तरह के रिश्ते हैं आजकल के का करियर के सवाल आजकल की दुनियादारी जिनमें है वो आजकल की युवाओं को पसंद आएगी या एक ऐसी दुनिया जैसे अभी हम बात कर रहे थे दीवार में खिड़की रहती थी जो उनके कल्पना से बाहर की दुनिया है एक वो ऐसी दुनिया लेकर के आता है जो जादुई है उनके लिए तो मुझे लगता है कि ये चीजें उनके लिए ज्यादा काम करती है और रिश्तों का की जहां तक बात है तो मुझे ऐसा लगता है कि मानवी मानवीय रिश्ते तो कमोबेश हमेशा एक ही जैसे रहे हैं। तो जिन्हों जिन लेखकों ने मानवीय रिश्तों के बहुत बारीक तंतुओं को पकड़ा है। चाहे वो किसी भी दौर के लेखक हो। मतलब वो अंग्रेजी के बिल्कुल मतलब पांचवी और चौथी शताब्दी के भी लेखक हो सकते हैं। आप पाएंगे कि उसको भी वह आज वैसे ही पढ़ रहे होंगे जैसे कि आज के लेखक दिव्य प्रकाश दुबे जैसे लेखक को। पॉलिटिकल कंटेंट के बारे में आप पॉलिटिकल कंटेंट के बारे में मेरा यह मानना है कि पॉलिटिकल कंटेंट दो ही तरह के लोग कंज्यूम करते हैं जो पॉलिटिकली ओपनिएटेड होते हैं। मतलब उनकी कोई राजनीतिक राय है चाहे वो एंटी एस्टैब्लिशमेंट है या प्रो एस्टैब्लिशमेंट है। आप अक्सर पाएंगे कि जो पॉलिटिकल नॉनफिक्शन किताबें हैं या फिक्शन भी होगा। उसमें रुचि दो ही तरह के लोगों की होगी। एक जो उसके समर्थन में होगा एक जो उसके विरोध में होगा। ऐसे लोग जो इन दोनों से मतलब नहीं है। हालांकि सबको मतलब रखना चाहिए लेकिन आप ये पाएंगे कि ज्यादातर लोगों को इसका मतलब नहीं होता। है ना? तो उन लोगों को वो लोग इसके कंज्यूमर नहीं होते। आप पर कभी विचारधारा को लेकर के कहीं से कोई दबाव आया? विचारधारा को लेकर के दबाव नहीं आया। लेकिन विचारधारा को लेकर के ना लोग सवाल करते रहे हैं। जैसे लोग इस तरह का सवाल फोन करके पूछते हैं कि शैलेश तुम वामपंथी हो क्या? या शैलेश तुम संघी हो क्या? मतलब कहने का मतलब यह कि वह यह नहीं जान पाते कि इसकी विचारधारा क्या है तो वो इधर-उधर से पता करने की कोशिश करते हैं और ना पता करने पर वो सीधे सवाल करना तो मेरा ऐसा मानना है कि मतलब ऐसा होना क्यों जरूरी है? तो मैं तो मतलब इस चीज को जाहिर भी नहीं करता। मतलब वो मेरे अब वो मेरी अपनी निजी दुनिया है। लेकिन लोगों की ऐसी इच्छा रही है। हालांकि इस का मतलब इस बाबत अभी तक हमारे ऊपर कोई दबाव बनाने की कोशिश नहीं हुई है कि भाई आप इस नहीं दबाव नहीं जैसे प्रकाशकों में क्या है ना कि प्रकाशकों में भी आप देखिए दो सीधे-सीधे खेमे दिखते हैं जो बड़े-बड़े प्रकाशक हैं। मतलब एक एक जो है इस खेमे का होता है। एक मतलब एंटी होता है एक जो प्रो होता है। बिल्कुल जी। लेकिन देखिए मेरे वाले मामले में जहां तक है क्योंकि हम पाठकों की गाड़ी पर सवार हैं। मतलब अभी हमारा अतुल जी जो व्यवसाय है वो 99.99% जो है पाठकों की गाड़ी से चल रहा है। मतलब हमारा लाइब्रेरी खरीद के धंधे में कोई योगदान नहीं। अगर हमारी किताबें लाइब्रेरी में दिखती भी हैं तो ऐसे है कि लाइब्रेरी सप्लायर जैसे सबका कैटलॉग लेता है वो हमारा भी कैटलॉग कहीं से पा जाता है और जो लाइब्रेरी में खरीदने वाला व्यक्ति है तो वो कुछ ऐसी किताबें भी खरीदता है ना जो उसके मनपसंद की हो सकती हैं और उसमें वो अपने पैसे नहीं लगाना चाहता वो चाहता है कि विभाग या सरकार का पैसा लगे तो वो उसको लिस्ट देता है कि यार तुम ये किताबें तो ला रहे हो ये किताबें मुझे और दे देना तो हमारी किताबों की वहां कुछ-कुछ किताबों की उपलब्धता हो जाती है लेकिन उसमें हमारी भूमिका लगभग शून्य तोकि हम यह दोनों में से कोई लाभ लेना नहीं चाहते हैं अभी तक तो इसलिए इन कोई इन्फ्लुएंस करने की कोशिश नहीं करता और उसकी हमें जरूरत नहीं है। नई जैसे नए लेखक हैं तमाम प्रकाशन संस्थान जो हैं वो उनसे पैसे लेते हैं किताबों छापने किताब छापने के लिए जी आपका क्या है इसमें? देखिए हमारे पास तो दो क्लियर विंग थे पहले एक हमारा हिंदी प्रकाशन है और हमने 2016 में एक अपना सेल्फ पब्लिशिंग विंग शुरू किया था जिसको सेल्फ पब्लिशिंग बोलते हैं हिंदी युंग ब्लू जिसको कि हमने साइलेंटली लगभग 2 साल पहले बंद कर दिया मतलब उससे हम किताब नहीं छाप रहे हैं कोई पुराना पेंडिंग है तो छाप रहे हैं तो हिंद युग जो है पूरी तरह से इसको चलताऊ भाषा में मतलब या पॉपुलर भाषा में पारंपरिक प्रकाशन कहा जाता है तो हिंद युग पूरी तरह से पारंपरिक प्रकाशन है जिसमें कि मतलब एडिटोरियल राय जो है जो एडिटर को पसंद आ रही है चीज वो हम अपनी ही अपने ही रिस्क पे अपनी ही पूंजी से छापते हैं।
चलिए बहुत अच्छा लगा आपसे बात करके शैलेश जी बातें तो बहुत सारी हैं और हम चाहे तो इसको बहुत लंबा खींच सकते हैं क्योंकि देखिए प्रकाशन में या किताबों की जो दुनिया है उसके इतने सारे आयाम हैं कि इस पे अगर हम चर्चा करें तो जाहिर सी बात है कि मेरे ख्याल से चर्चा तो इसलिए भी होनी चाहिए कि देखिए अभी इधर जो एक दो सालों से चर्चा शुरू हुई है उसका लाभ आपको बहुत बाद में दिखलाई देगा कि बहुत चर्चा से ही ना बहुत सारी शंकाओं के जवाब मिलेंगे बहुत सारे शंकाओं का समाधान होगा।
अभी एक रहस्यमई दुनिया लगती है प्रकाशन की दुनिया मतलब कि कैसे रॉयल्टी मिलती है कैसे किताब छपती है कैसे पांडुलिपियों का चयन होता है तो अगर आप सब जगह शंका के बादल छाए अगर हैं तो आपको ऐसा लगता है कि सब गलत हो रहा है मतलब सब जगह कोई ना कोई घोटाला है सब ना कुछ कुछ गड़बड़ हो रहा नहीं उस बादल को छांटना जरूरी है छांटना जरूरी है तो आप जैसे लोगों को मेरे से ही नहीं मेरे जैसे लोगों से कई कई बार बात करनी चाहिए ताकि मतलब तब चीज़ क्लियर हो जाएंगी। नहीं नहीं बिलकुल यह पाठकों के लिए भी ज़रूरी है और लेखकों के लिए तो खासतौर से बहुत ज़रूरी है कि भाई यह जो लगातार आज से नहीं बरसों बरस से प्रकाशक और लेखक के रिश्तों पर सवाल उठते रहे हैं और रॉयल्टी का विवाद तो आज का नहीं है। बहुत लंबे समय से बड़े-बड़े लेखों त्रिलोचन जी हमारे साथ थे। आज तक उनका भी सारे लेखकों ने खुद प्रकाशन शुरू किया इस कारण। तो इसलिए यह एक सवाल तो है और कम से कम यह जो आपने पहल की है वह बहुत बड़ी पहल है और निश्चित रूप से आने वाले वक्त में जितनी भी किताबें आप छापे कम से कम लेखकों को पूरी ईमानदारी के साथ जिस तरह से रॉयल्टी आप दे रहे हैं ये खुशी की बात है और हमारे तमाम जो दूसरे प्रकाशक हैं उनको हिंद युग्म से शैलेश भारतवासी से कुछ ना कुछ सीखना चाहिए और इस आंदोलन को और इस ट्रांसपेरेंसी को आगे बढ़ाना चाहिए और इसी उम्मीद के साथ हम बातचीत को फिलहाल यहां खत्म करते हैं।
शैलेश जी आप हमारे साथ आए बहुत अच्छा लगा और निश्चित रूप से हम आगे भी मिलेंगे बात करेंगे और बहुत सारे ऐसे सवाल हैं जो अभी भी छूट गए हैं तो निश्चित रूप से आगे हम इस पर बात करेंगे। बहुत-बहुत शुक्रिया। धन्यवाद।