ललित सुरजन की कलम से- विश्व बाजार में विदेश नीति!
'पिछले तीस-चालीस साल के दौरान सत्ता प्रतिष्ठान में यह सोच मजबूत हुई है कि विदेश नीति सिर्फ राजनीतिक भलमनसाहत से नहीं चलती, देशों के बीच आर्थिक संबंधों पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है;
'पिछले तीस-चालीस साल के दौरान सत्ता प्रतिष्ठान में यह सोच मजबूत हुई है कि विदेश नीति सिर्फ राजनीतिक भलमनसाहत से नहीं चलती, देशों के बीच आर्थिक संबंधों पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है।
अमेरिका और चीन दोनों की विदेश नीति में इसे देखा जा सकता है। अपने अध्ययन से हम अमेरिका के बारे में जानते हैं कि उसने हमेशा अपने देश के पूंजीपति वर्ग को ध्यान में ही अन्य देशों के साथ संबंध बनाए या तोड़े।
शीतयुद्ध के दिनों में सोवियत संघ की नीति इसके बिल्कुल विपरीत थी, वह बहुत पुरानी बात हो गई है। चीन कहने को साम्यवादी देश है, किन्तु वैदेशिक संबंध निभाने में उसका रवैया अमेरिका नीति से बहुत अलग नहीं है।'
'भारत की दुविधा यह है कि वह किसके साथ जाए और कितनी दूर तक जाए। हमारे प्रभुत्वशाली वर्ग की मानसिकता अमेरिकापरस्त है और इस वजह से हमारे सत्ताधीश आंख मूंदकर अमेरिका का अनुसरण करना चाहते हैं। ऐसा करने से देश को क्या लाभ-हानि होगी इसकी चिंता भी वे नहीं करते।'
(देशबन्धु में 20 सितम्बर 2018 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2018/09/blog-post_20.html