दिल्ली यात्रा के कुछ अनुभव
पिछले हफ्ते मेरा दिल्ली जाना हुआ, तो मेरी दो दशक पुरानी यादें ताजा हो गईं। करीब दो दशक पहले मुझे दिल्ली में दो सालों तक रहने का मौका मिला था;
- बाबा मायाराम
यहां की भीड़ भरी सड़कों के किनारे, व्यस्त मोड़ों पर, फुटपाथ पर, दफ्तरों के इर्द-गिर्द आने-जाने वालों की कई जरूरतें होती हैं। अगर किसी को चाय पीना हो, किसी को भूख लगी हो, किसी को नाश्ता करना हो तो उन्हें वे सुविधाएं मिल जाएं, तो आसानी होती है। इसके लिए रेहड़ी पटरी वाले, फल-सब्जी बेचने वाले, खाने-पीने की वस्तुएं बेचने वाले और तरोताजा करने वाली चीजें बेचने वाले मिल जाएंगे।
पिछले हफ्ते मेरा दिल्ली जाना हुआ, तो मेरी दो दशक पुरानी यादें ताजा हो गईं। करीब दो दशक पहले मुझे दिल्ली में दो सालों तक रहने का मौका मिला था। उस समय के मेरे अनुभव और महानगर की समस्याओं पर इस कॉलम में चर्चा करना उचित होगा, जिससे हम शहरी जीवन की असलियत समझ सकें।
इस सदी के पहले दशक में मैंने लोकनीति-सीएसडीएस में काम किया था। इस दौरान मुझे पडपड़गंज से रोज राजपुर रोड पर स्थित सीएसडीएस के कार्यालय तक जाना होता था। मुझे पहले पड़पड़गंज से बस और उसके बाद मेट्रो से सफर करना पड़ता था। उस समय मेट्रो की शुरूआत हो रही थी। बसों में काफी भीड़ होती थी, पर किराया कम लगता था। मेट्रो का सफर सुविधाजनक था, पर थोड़ा महंगा।
दिल्ली को मुस्कानों की नगरी और देश का दिल भी कहा जाता है। यहां की कई विशेषताएं हैं। दर्शनीय स्थल हैं, बापू की समाधि संसद है, शासकीय कार्यालय, मंत्रालय, नेताओं-मंत्रियों के आवास, और भी कई ऐतिहासिक जगहें, जहां आने-जाने वालों का तांता लगा रहता है।
महानगर के नाम से जो एक खास तरह की सुनहरी तस्वीर हमारे मानसपटल पर उभरती है, वह है ऊंची-ऊंची इमारतें, उनके बीच ताना-बाना बुनती संकरी चौड़ी गलियां, सड़कें, फुटपाथ, उन पर सरकता सजा-धजा मानव समूह, कारें, मेट्रो रेल, सिनेमाघर, दुकानें इत्यादि। इन सबसे अलहदा, हाशिये पर रहने वाले, फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले लोग भी बड़ी संख्या में होते हैं। यह शहरों में गुमनाम व अदृश्य हैं, पर इनकी शहरों को जरूरत भी है।
इन लोगों को प्राय: रेल की पटरियों के आसपास, कचरा बीनते, टूटे-फूटे टेंटों में, फुटपाथ पर, बगीचों में देखा जा सकता है। इसके साथ ये पुलों के नीचे और जहां भी जगह मिले, वहां रह जाते हैं।
यहां की भीड़ भरी सड़कों के किनारे, व्यस्त मोड़ों पर, फुटपाथ पर, दफ्तरों के इर्द-गिर्द आने-जाने वालों की कई जरूरतें होती हैं। अगर किसी को चाय पीना हो, किसी को भूख लगी हो, किसी को नाश्ता करना हो तो उन्हें वे सुविधाएं मिल जाएं, तो आसानी होती है।
इसके लिए रेहड़ी पटरी वाले, फल-सब्जी बेचने वाले, खाने-पीने की वस्तुएं बेचने वाले और तरोताजा करने वाली चीजें बेचने वाले मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर गांवों से पलायन कर रोजगार की तलाश में दिल्ली में पहुंचे हैं और ऐसे छोटे-मोटे धंधों में लगे हैं।
यह ढाबेवाले, खोमचेवाले नालियों के किनारे, गली-कूचों में, पुलों के नीचे और जहां भी जगह मिल जाए, ये टिक जाते हैं। इनमें चाऊमीन, बर्गर, छोले-भटूरे, राम लड़्डू, समोसा, कचौरी, पानीपूरी ( गोलगप्पे), बिहार का लिट्टी- चोखा, दक्षिण भारत का इडली-डोसा, छोले कुलचे, रोटी-सब्जी आदि शामिल हैं। इन सबके कारण कामकाजी लोगों को बहुत सुविधा होती है।
इस बार जब मैं इंडिया गेट गया था, वहां अब खाने-पीने की वस्तुएं बेचने वाले नहीं थे, जो पहले हुआ करते थे। इसी प्रकार, साइकिल रिक्शों की जगह ई-रिक्शा दिखे। इनकी संख्या इतनी ज्यादा है कि कई बार उन्हें सवारियों के लिए आपस में खींचातानी करनी पड़ती है। आटो चालक भी बड़ी संख्या में हैं। 20 साल पहले साइकिल रिक्शा होते थे, जो बहुत सस्ते होते थे। हालांकि साइकिल रिक्शों के बारे यह बहस है ही कि वे कितने मानवीय हैं।
यहां गांवों से लोगों का रोजगार की तलाश में आना लगातार जारी है। कुछ समय पहले मुझे दिल्ली के एक रैन बसेरा को देखने और वहां रहने वाले लोगों से बात करने का मौका मिला था। यही वह स्थान होता है, जहां गांवों से आने वाले लोग टिकते हैं।
मेरे एक सामाजिक कार्यकर्ता मित्र इनके छोटे बच्चों को पढ़ाने का काम करते हैं। वे बस्तियों में, नुक्कड़ पर, रैन बसेरों में कहीं भी बच्चे मिले, पढ़ाने का काम करते हैं। क्योंकि मां-बाप की रोजी-रोटी की जद्दोजहद में बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। हालांकि इससे औपचारिक रूप से पढ़ाई की पूर्ति नहीं होती, लेकिन बच्चों को कठिनाईयों के बीच अक्षरों से, किताबों को पढ़ते देखना सुखद था। यह काम वे 90 के दशक से कर रहे हैं।
यहां आलीशान बंगलों, दफ्तरों, आवासीय मकानों, होटलों की रखवाली और गेटमैन का काम भी होता है। कंपनियों के कर्मचारी, दुकानों के सेल्समैन का काम भी होता है। घरों में कामकाजी महिलाएं हैं। मजदूर चौकों में मजदूरों की भीड़ देखकर उनकी स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। इन चौकों पर न तो शौचालय, न छाया की व्यवस्था और ना ही बैठने की कोई व्यवस्था होती है। यहां खाने-पीने की वस्तुएं भी नहीं मिलतीं। कई बार लोगों को काम भी नहीं मिलता है। इंतजार करते-करते निराश होकर बिना किसी काम के गुजारा करना भी मुश्किल होता है।
किसी भी शहर में या महानगर को कुछ ऐसी चीजें हैं, जिस कारण वह सुव्यवस्थित बनता है। उसमें आवास, स्वच्छता, पार्क, यातायात इत्यादि शामिल हैं।
यहां यातायात एक बड़ी समस्या है, वाहनों की लम्बी-लम्बी कतारें लगना। चौराहों-तिराहों पर यह दृश्य आम है। यह समस्या नगर के आकार से जुड़ी हुई है। क्योंकि अगर उत्पादन के कारखाने, सरकारी व निजी कामकाज नगरों में ही केन्द्रित होंगे तो स्वाभाविक है, लोग काम की तलाश में शहरों में ही आएंगे। लेकिन इसका दूसरा पहलू निजी कार व वाहन भी है। इसी से जुड़ी है, शहर के प्रदूषण की समस्या, जो दिल्ली की बड़ी समस्या है। मेट्रो में कई बार इतनी भीड़ होती है कि उतरना-चढ़ना भी मुश्किल होता है। मुझे खुद इस यात्रा के दौरान हौज खास स्टेशन पर उतरना था तो अगली स्टेशन पर उतरना पड़ा। क्योंकि भीड़ के चलते गेट तक ही नहीं पहुंच पाया।
एक और समस्या है, मेट्रो में आटोमेटिक गेट खुलने और बंद होने की, जिसमें कई बार उनके परिजन बिछड़ जाते हैं। हमारी यात्रा के दौरान एक परिवार से उनका 8-10 साल का लड़का बिछड़ गया था। मां-बाप थोड़ी देर के लिए बहुत परेशान हो गए। हालांकि मेट्रो में किसी सज्जन व्यक्ति ने उनके बच्चे को अगली स्टेशन पर उतार लिया और बाद में जब वे अगली मेट्रो से वहां पहुंचे तो बच्चा उन्हें मिल गया।
जब कभी दिल्ली में प्रदूषण बढ़ता है, तब किसानों को पराली जलाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह हो सकता है, लेकिन इसका दूसरा कारण निजी वाहनों का बढ़ना भी है। धूल के गुबार से आसमान भी प्राय: साफ नहीं दिखता, धुंधला कुहासा छाया रहता है।
वाहनों से जुड़ी है पार्किंग की समस्या है। मैंने दिल्ली में रहने के दौरान देखा था कि एक घर में एक से अधिक कारें हैं। जगह के अभाव में सड़कों के किनारे कारें खड़ी देखी जाती हैं। एक आदमी एक कार में सफर करता है। सड़क दुर्घटनाएं भी होती हैं। इसमें कई बार लोगों की मौतें हो जाती हैं।
कूड़ा- कचरा निकलना भी एक समस्या है। इसमें कर्मचारियों व नालियों की पर्याप्त व्यवस्था नहीं हो पाती, इसलिए कई बार ऐसे इलाकों से निकलना भी मुश्किल होता है। इसका एक दूसरा पहलू हमारी जीवनशैली है, जो कचरा संस्कृति को बढ़ावा देने वाली बन गई है। यानी इस्तेमाल करो और फेंको। जबकि हमारी परंपराओं में चीजों को ठीक से इस्तेमाल करने और मरम्मत कर बापरने की थी। इसका निजी स्तर पर, निकायों के स्तर पर, सरकार की नीतियों के स्तर पर समाधान खोजा जा सकता है।
महानगरों में एक आकर्षण शिक्षा होती है, जो आजकल महंगी होती जा रही है। देश के कई कोनों से आए विद्यार्थियों को यहां किराये के आवास, यातायात व खाने-पीने में खर्च करना पड़ता है। ऐसे विद्यार्थियों की संख्या बड़ी है। पुस्तकालयों और छात्रावास औऱ शैक्षणिक सुविधाएं होनी चाहिए, इसमें शायद ही दो राय हो।
यहां के पेड़-पौधे हैं, और जब पेड़ होते हैं तो पक्षी भी बहुत होते हैं। मैंने एक किताब दिल्ली के पेड़ पौधों पर भी पहले देखी थीं। यहां चौराहों व पार्कों में पक्षियों को दाने डालते भी देखा, तो अच्छा लगा। इसी प्रकार, सुबह-सवेरे कुत्तों को घुमाते भी देखना अच्छा लगा। चूंकि ठंड के दिन हैं, इसलिए कुत्तों भी गरम कपड़े देखना, अच्छा था।
कुल मिलाकर, हम गांवों की स्थिति, खेती-किसानी और ग्रामीण समस्याओं की चर्चा करते रहते हैं, और यह बहुत जरूरी भी है। लेकिन अब भारत के महानगर व शहर भी हकीकत है। इन शहरों के नियोजन के बारे में ध्यान देना जरूरी है। मनुष्य, मजबूरी में और विकल्पहीनता की स्थिति में गांवों शहरों की ओर भाग रहा है। यह जनधारा लगातार बह रही है। इसलिए महानगरों का नियोजन ठीक ढंग से करना जरूरी है। शहर को व्यवस्थित बनाने के लिए यह आवश्यक है।
दूसरी बात, शहरी गरीबों की जरूरत भी शहर को है। इसलिए इनकी बुनियादी सुविधाओं का ख्याल भी रखा जाना चाहिए। जरूरत है उन्हें मानवीय परिवेश देने की, आदमी को आदमी समझने की और मनुष्य को बराबरी का दर्जा देने की। अन्यथा महानगरों की समस्याएं खत्म होने की बजाए और बढ़ेगी। लेकिन क्या हम दिशा में बढ़ने को तैयार हैं?