ललित सुरजन की कलम से- आडंबर के विरुद्ध

'हम सोचते थे कि दिन-ब-दिन स्थितियां सुधरेंगी, आधुनिक युग में लोग सादगी की ओर आकर्षित होंगे, फिजूलखर्ची छोड़ेंगे;

Update: 2024-12-23 07:48 GMT

'हम सोचते थे कि दिन-ब-दिन स्थितियां सुधरेंगी, आधुनिक युग में लोग सादगी की ओर आकर्षित होंगे, फिजूलखर्ची छोड़ेंगे, समय की बचत करेंगे, आडंबर को तिलांजलि देंगे, लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। मैं जिस लिफाफे में निमंत्रण पत्रिका आती थी, उसी में भेंट राशि रखकर वर या वधू को दे देता था। यह सोचकर कि एक नया लिफाफा क्यों बर्बाद किया जाए। मेरी देखा-देखी कुछ और मित्र भी ऐसा करने लगे, लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं हुआ। विवाह में एक से एक महंगे कार्ड छपने लगे हैं, कोई-कोई कार्ड तो पुस्तक या पेटी के आकार में आते हैं।

जहां ऐसी फिजूलखर्ची हो रही हो, वहां एक लिफाफा बचाने का क्या महत्व है? अब तो ऐसा हो गया है कि जिसके पास पैसा है उसे खर्च करने के लिए हर समय किसी न किसी बहाने की तलाश रहती है। शादी है तो उसके पहले सगाई है, तिलक है, रिंग सेरेमनी है, लेडीज संगीत है, काकटेल पार्टी है और सबके अलग-अलग न्यौते दिए जा रहे हैं। कभी माता-पिता के विवाह की पचासवीं सालगिरह मनाई जाती है, तो कभी पच्चीसवीं, कभी गृहप्रवेश है, तो कभी और कुछ। बर्थ डे पार्टी तो होती ही होती है। कभी ये सारे कार्यक्रम परिवार और इष्ट मित्रों तक सीमित रहते थे; फिर ये सामाजिक संपर्क बढ़ाने का माध्यम बन गए और अब तो इनका मकसद सिर्फ अपने वैभव का प्रदर्शन करना रह गया है। शहर से बाहर दूर-दूर तक मैरिज पैलेस और मैरिज गार्डन्स बन गए हैं जहां ये कार्यक्रम होते हैं। हर कोई यहां तक पहुंचने में समर्थ नहीं होता।'

'कोई तीसेक साल पहले स्वयंप्रकाश ने कहानी लिखी थी बड्डे। इस कहानी में मध्यमवर्ग की दोहरी मानसिकता का बेहतरीन चित्रण था। एक तरफ समकक्षों को अपने कुछ होने का अहसास करवाना, दूसरी ओर पार्टी में उपहार के रूप में नकद राशि मिल जाने की उम्मीद कि उसी से पार्टी का खर्च निकल आए। यह उसी समय की कहानी है जब समाजचिंतक ऐसी मानसिकता पर आक्रमण कर स्थितियां बेहतर होने की कल्पना कर रहे थे। लेकिन ऐसा कहां हो पाया?'

(अक्षर पर्व अप्रैल 2017 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2017/04/blog-post_10.html

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