ललित सुरजन की कलम से - नेहरू बनाम पटेल क्यों?
'सरदार पटेल को उचित ही श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने देशी रियासतों के विलीनीकरण में दृढ़ भूमिका निभाई जिसके चलते ही उन्हें लौहपुरुष के विशेषण से सम्मानित करते हैं;
'सरदार पटेल को उचित ही श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने देशी रियासतों के विलीनीकरण में दृढ़ भूमिका निभाई जिसके चलते ही उन्हें लौहपुरुष के विशेषण से सम्मानित करते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में दो कारकों का उल्लेख करना उचित होगा। एक तो यह कि सरदार पटेल स्वतंत्र भारत की सरकार के प्रतिनिधि के रूप में इस प्रक्रिया को
अंजाम दे रहे थे याने शासन की शक्ति उनके पास थी। दूसरे, देशी रियासतों में लंबे समय से प्रजामंडल आंदोलन चल रहा था, जिसके अधिकतर कार्यकर्ता कम्युनिस्ट थे। रियासत में रहते हुए इन लोगों ने जो संघर्ष किया उससे भी राजे-रजवाड़े हिल चुके थे। आशय यह कि उनके सामने भारत संघ में विलय करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था।'
'यह आरोप भी लगाया जाता है कि नेहरू जी के कारण कश्मीर का मामला उलझ गया। जिन्हें इतिहास की जानकारी नहीं है वे ही ऐसा कह सकते हैं। कश्मीर में राजा हिन्दू, बहुसंख्यक प्रजा मुस्लिम; इसके विपरीत हैदराबाद में निजाम याने राजा मुसलमान और प्रजा हिन्दू।
यदि राजा द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर को पूर्ण मान्यता दी जाती तो निजाम को पाकिस्तान के साथ मिलने से कैसे रोका जाता? यदि हैदराबाद की हिन्दू प्रजा भारत में मिलने की इच्छुक थी तो कश्मीर की मुस्लिम आबादी को पाकिस्तान के साथ जाने से कैसे रोका जाता? इसके अलावा एक और उल्लेखनीय तथ्य है कि आज जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं उसे राजा हरिसिंह ने चंद बरस पहिले 1938-39 में खरीदा था।
याने उस इलाके की जनता का इधर के कश्मीर के साथ या भारत के साथ कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं था। पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों इन सारे तथ्यों को जानते थे। उन्हें यह भी पता था कि उस तरफ के हिस्से को अगर सैन्य बल से जीत भी लेते तो उसे ज्यादा दिन साथ नहीं रख सकते थे। याद कीजिए कि 1971 में भारतीय सेनाएं लाहौर के दरवाजे तक पहुंच चुकी थीं, फिर भी उसे लौटना पड़ा।'
(देशबन्धु में 06 नवंबर 2014 को प्रकाशित)
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