ललित सुरजन की कलम से- प्रधानमंत्री की सही लेकिन अधूरी पहल
'प्रधानमंत्री ने जो ठोस निर्णय लिया वह वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटाने का है। इसका आम जनता पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है किन्तु यह भी एक आधी-अधूरी कवायद है;
'प्रधानमंत्री ने जो ठोस निर्णय लिया वह वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटाने का है। इसका आम जनता पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है किन्तु यह भी एक आधी-अधूरी कवायद है। मुझे खुशी है कि इस निर्णय में जो कमियां हैं उनकी ओर जनता का ध्यान गया है और उन पर सोशल मीडिया में तर्कपूर्ण बातें हो रही हैं। सबसे अहम प्रश्न है कि क्या लालबत्ती हटने से अपने आपको वीआईपी मानने वाले नेताओं का घमंड कम हो जाएगा। उत्तर है कि ऐसा होने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। यह तो हमारे देश की परंपरा है कि जो अपने से कमजोर है उस पर धौंस बनाए रखो। हमारे जनतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यही है।
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि की गाड़ी में लालबत्ती रहे न रहे, इससे क्या फर्क पड़ता है? वे जब भी सडक़ पर निकलेंगे उनके लिए पहले से यातायात रोक दिया जाता है और वह भी दो-चार मिनट के लिए नहीं, बल्कि कई-कई घंटों तक। मैंने जापान से लेकर अमेरिका तक देखा है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के लिए कभी भी यातायात दो या तीन मिनट से ज्यादा नहीं रुकता। मेरे जेहन में तो 1970 के दशक के 'द गार्जियन' अखबार में छपी वह तस्वीर आज तक बसी है कि प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ ट्रैफिक जाम में फंस जाने के कारण कार से उतरे और अपना ब्रीफकेस लेकर पार्लियामेंट के लिए पैदल चल पड़े। पाठकों को स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे का भी स्मरण होगा जो पत्नी के साथ सिनेमा देखकर पैदल घर लौट रहे थे, और अज्ञात हमलावर ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। क्या हम अपने देश में ऐसी सहजता की कल्पना कर सकते हैं?'
'आप कहेंगे कि सुरक्षा की दृष्टि से भारत में ऐसा नहीं हो सकता। चलिए, मान लेते हैं, लेकिन फिर कोई बताए कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के काफिले में कितने वाहन होने चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से आगे-पीछे एक-एक वाहन हो, एकाध एम्बुलेंस भी हो, लेकिन पच्चीस-तीस गाडिय़ां किसलिए? यह याद दिलाना आवश्यक नहीं होना चाहिए कि तमाम सुरक्षा इंतजामों के बावजूद इस देश ने दो प्रधानमंत्रियों की हत्या होने की त्रासदी झेली है। कहने का आशय यह है कि लाव-लश्कर से सुरक्षा नहीं होती, उसके लिए सुरक्षातंत्र की मुस्तैदी आवश्यक है। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर पर भी आतंकी हमला हुआ था, लेकिन उससे डरकर उन्होंने अपना सुरक्षा प्रबंध दुगुना-तिगुना नहीं कर लिया था। हमें लगता है कि यह सुरक्षातंत्र भी एक तरह से लालबत्ती की तरह ही स्टेट्स सिंबल बन गया है।'
(देशबंधु में 27 अप्रैल 2017 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2017/04/blog-post_27.html