देश के सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने संघर्ष का ऐलान
आयोजित गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए पत्रकार ललित सुरजन ने कहा कि भारत वैश्विक साम्राज्यवाद का ही हिस्सा रहा है इसलिए उसने अपनी मुक्ति के साथ विश्व भर में चले साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा;
बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों ने बनाई रणनीति
तानाशाही के खतरे के प्रति किया आगाह
एकजुटता व संघर्ष का ऐलान
विशेष संवाददाता
राचपुर। साझा सांस्कृतिक मोर्चा के बैनर तले आयोजित संगोष्ठी में अनेक बुद्धिजीवियों, लेखकों,सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियोंऔर लोकतांत्रिक व प्रगतिशील कार्यकर्ताओं ने देश में बढ़ते फासीवाद और तानाशाही की प्रवृत्तियों पर चिंता जताते हुए उसके खिलाफ सांस्कृतिक लड़ाई की आवश्यकता बताई। विचार गोष्ठी में राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के कारण देश में बढ़ रही गैरबराबरी की ओर ध्यान दिलाते हुए सभी प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकजुटता पर बल दिया गया। इसमें फासीवाद से लड़ने के तौर-तरीकों पर भी विस्तार से विचार करते हुए कहा गया कि प्रगतिशील व वैज्ञानिक चेतना को जन-जन तक पहुंयाने के लिए अभिव्यकित् के विभिन्न परंपरागत तरीकों व आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया जाना चाहिए।
आयोजित गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए पत्रकार ललित सुरजन ने कहा कि भारत वैश्विक साम्राज्यवाद का ही हिस्सा रहा है इसलिए उसने अपनी मुक्ति के साथ विश्व भर में चले साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा लिया था। वर्तमान में साप्रदायिकता, राष्ट्रवाद और पूंजीवाद के मिश्रित खतरों पर बात करते हुए सुरजन ने कहा कि फासीवाद एक बड़ी चुनौती है जिसे सांस्कृतिक स्तर पर जवाब देना होगा। सांस्कृतिक मंचोंके जरिये लोक शिक्षण की आवश्यकता बताते हुए उन्होंने कहा कि रणनीतिक तरीकों से हमारे सांस्कृतिक
मूल्यों का इस्तेमाल इस लड़ाई में करना होगा।
लेखक अरूणकांत शुक्ल ने कहा कि देश में पूंजीवाद व साम्राज्यवाद का गंठजोड़ पुराना है। हमने गलती यह की कि साम्राज्यवाद की लड़ाई को हम देश के बाहर ले गये। उन्होंने इसके साथ अब राष्ट्रवाद के मिश्रण से उत्पन्न खतरों की ओर संकेत किया। विचारक व लेखक कपूर वासनिक का कहना था कि झूठ व घृणा पर आधारित एक नई संस्कृति गढ़ी जा रही है जिसे सत्ता द्वारा प्रश्रय दिया जा रहा है। नई पीढ़ी इससे इतनी प्रभावित है कि वह इसके विरोध में कुछ नहीं सुनना चाहेगी। ऐसे में प्रगतिशील व लोकतांत्रिक शक्तियों का काम काफी कठिन होगा। कहानीकार कैलाश बनवासी ने कहा कि नई पारी में भाजपा ‘सबका विश्वास’ के नारे के साथ लंबी पारी खेलने की तैयारी में है। उसके निशाने पर प्रगतिशील शक्तियां ही हैं। छद्म राष्ट्रवाद के माध्यम से वाम व धर्मनिरपेक्ष ताकतों पर हमले होंगे। देश को अब धर्मनिरपेक्षता व लोकतंत्र को बचाने की लंबी लड़ाई लड़नी होगी। मूल रूप से यह सांस्कृतिक मूल्यों की लड़ाई होगी।
साहित्यकार-आलोचक सियाराम शर्मा का मानना था कि फासीवाद की जीत व प्रगतिशील तत्वों की हार इसलिए हुई क्योंकि हमने एक सांस्कृतिक शून्य पैदा कर दिया है। गांधी-आंबेडकर के विचारों को हटाकर फासीवादी शक्तियों ने धर्म व अंधविश्वास का सहारा लिया
जिसका ठीक से मुकाबला नहीं किया जा सका। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संस्कृति ही हाशिये पर चली गई।
उन्होंने नवजागरण काल व लोकायत के मूल्यों पर आधारित सांस्क़ृतिक लड़ाई लड़ने की सलाह दी। बृजेन्द्र तिवारी ने देश में फासीवाद और तानाशाही के बढ़ते खतरे की ओर संकेत करते हुए कहा कि देश में इस वक्त एक बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई चल रही है। देश की साझा सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने की कोशिश हो रही है इसीलिए अल्पसंख्यकों को उत्पीड़ित किया जा रहा है। पथिक तारक ने किसानों की समस्याओं का विस्तार से जिक्र किया। तुहीन देव ने कहा कि देश में फासीवाद उभार पर है। हर क्षेत्र में असफल रहकर भी नरेंद्र मोदी जीते कैसे, यह बड़ा सवाल है।
उन्होंने कहा कि सामंती मानसिकता के साथ देश का पूरी तरह कार्पोरेटरीकरण हो रहा है। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील व लोकतांत्रिक ताकतों को सांस्कृतिक क्रांति की लड़ाई लड़ना होगी। देव के अनुसार सांस्कृतिक क्रांति के बिना राजनैतिक व सामाजिक बदलाव होना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा, गैरबराबरी आदि का डटकर विरोध किया जाना चाहिए। जनता को तानाशाही के नुकसान से अवगत कराने की जरूरत पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि साम्राज्यवादी और नवउदारवादी शक्तियों से मुकाबला करना होगा। पत्रकार आलोक पुतुल ने कहा कि यह ऐसा वक्त है जब मुद्दों को प्रगतिशील ताकतें नहीं वरन प्रतिगामी तत्व उठा रहे हैं और हम उनके विषयों पर चर्चा करने के लिए मजबूर हैं।
युवा विचारक विनय शील का विचार था कि प्रगतिशील व लोकतांत्रिक शक्तियां विरोधी विचारधारा के मानने वालों से लगातार पिछड़ती जा रही हैं। हमें विपरीत विचारों के दुष्प्रचार के विरोध में अधिक सक्रियता से संघर्ष करना होगा। संजय शाम ने मत व्यक्त किया कि हमें लोगों की वैचारिक श्रृंखला बनाकर लोगों तक पहुंचने की ज़रूरत है। नंदकुमार कंसारी का कहना था कि छोटे-छोटे परंतु अनवरत आयोजनों से गांवों-देहातों तक फासीवाद से लड़ना होगा। उन्होंने इसे दुर्भाग्यजनक बताया कि जनपदीय चेतना की मौजूदगी के बाद भी लोगों तक नहीं पहुंचा जा सका है। अंजन कुमार का अभिमत था कि जन संस्कृति मंच बनाकर हमें लोगों तक पहुंचना सामान्यजनों तक पहुंचना होगा।
उन्होंने कहा कि तानाशाही ताकतें सांस्कृतिक बदलाव पर ही आमादा है, इसलिए इसे सांस्कृतिक संघर्ष के रूप में ही लड़ना होगा। लोगों कीमानसिकता में परिवर्तन लाना होगा। उनमें गैर लोकतांत्रिक व अवैज्ञानिक चेतना का विकास किया जा रहा है ताकि सत्ताधारी दल अपना हित साध सके। सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. विक्रम सिंघल ने नई परिस्थितियों में सांस्कृतिक व जनवादी संघर्ष की आवश्यकता पर जोर दिया ।
दलित लेखक व चिंतक संजीव खुदशाह ने इस बात पर दुख जताया कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को तानाशाही की ओर ले जाया जा रहा है। धनबल, मशीन व मीडिया के जोर पर केंद्र में सत्ता हासिल की गयी है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने अपने विकास संबंधी गिनती के कामों का उल्लेख न कर पुलवामा और बालाकोट जैसे विषयों पर वोट मांगे थे। उन्होंने इन विषयों को जोरदार ढंग से उठाने की ज़रूरत बतलाई।
प्रगतिशील व लोकतांत्रिक शक्तियों को अपनी पलटवार की ताकत बनाने को भी उन्होंने महत्वपूर्ण बताया। विश्वजीत हरोड़े का विचार था कि संगठनों को इस बात की कोशिश करनी होगी कि लोगों में प्रगतिशीलता, धर्मनिरपेक्षता, तार्किकता व वैज्ञानिकता की ओर रूझान बढ़े। उनके मुताबिक जीवन मूल्य बदले हैं और लोगों को अवैज्ञानिक बनाने के प्रयास हो रहे हैं। उनका दावा था कि दूसरे कार्यकाल में भाजपा घबराई हुई है और अपनी असफलताओं के कारण उसका पर्दाफाश होगा। उन्होंने इन मुद्दों को लेकर जमीनी स्तर तक व्यापक व सघन सांस्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता जतलाई। डॉ. आलोक वर्मा का मानना था कि हमें जनता के बीच सीधे जाना होगा। उन्होंने माना कि सांस्कृतिक एजेंडा के साथ राजनैतिक विचारधारा को नहीं भूला जाना चाहिए। साहित्यकार शाकिर अली का विचार था कि भाजपा की जीत भारत की बड़ी सांस्कृतिक हार है। नाटककार निसार अली ने कहा कि सांस्कृतिक यात्राएं भी निकाली जानी चाहिए ताकि जनचेतना का विस्तार हो। इप्टा से जुड़ीं ऊषा आठले का मत था कि लोगों में वैज्ञानिक चेतना का विस्तार किया जाना चाहिए. वहीं अजय आठले ने कहा कि वर्तमान पीढ़ी नई अर्थव्यवस्था से बनी है जिसकी मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा।
युवाओं व छात्रों के साथ काम कर रहीं विद्यासागर-फुले फाऊंडेशन की पूजा शर्मा ने नई पीढ़ी के बीच जनजागरण करना ज़रूरी बताया। गौतम बंधोपाध्याय, राधिका तारक आदि भी इस बैठक में शामिल हुए। दूसरे सत्र में भावी कार्यक्रमों पर विस्तार से चर्चा की गई। विभिन्न प्रतिनिधियों ने जो कार्यक्रम सुझाए, उनमें प्रमुख हैं रचना गोष्ठियों का आयोजन, कॉलेज के छात्रों व 30 से 35 आयु वर्ग के लोगों से संवाद स्थापित करना, स्मृतियों के अंतर्विरोधों को उजागर करना, लोकतंत्र और संविधान पर कार्यक्रम, गांधी और कार्ल मार्क्स
पर विचार गोष्ठियां, नाटक व लोक नाट्यों, विशेषकर नाचा-गम्मत आदि का सतत व व्यापक आयोजन, जन मुद्दों पर व्यापक सहमति का निर्माण करना, छत्तीसगढ़ी व लोक भाषाओं में विभिन्न कार्यक्रम, बाल साहित्य के साथ बच्चों के लिए नाटकों का लेखन-प्रकाशन व मंचन, मोबाईल पर बच्चों के लिए व उनके द्वारा लघु फिल्मों का निर्माण, प्रगतिशील व लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करने वाले आयोजन, दलितों-महिलाओं के कार्यक्रम, शिक्षा-संस्कृति पर अधिक ध्यान, नियमित वैचारिक विमर्श, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय व कैफी आजमी की जन्मशती के अलावा कबीर, आंबेडकर, नेहरू, टैगोर आदि पर आयोजन, पुस्तिकाओं का प्रकाशन, जाति
उन्मूलन पर जनजागरण, पुस्तक मेला व सामाजिक विषयों पर लघु फिल्म निर्माण आदि।
साझा सांस्कृतिक मोर्चा ने यह भी निर्णय लिया कि प्रेमचंद पर प्रदेश भर में विभिन्न स्तरों पर कार्यक्रम किये जाएंगे। तय किया गया कि विभिन्न साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के अलावा शालेय व कॉलेज के विद्यार्थियों को इसमें शामिल किया जाएगा। बैठक में इस बात पर भी बल दिया गया कि सोशल मीडिया पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि अब वह सूचनाओं के प्रसार एवं अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम बन गया है। अतः इसके जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश की जाएगी। लोगों में शिक्षा के प्रसार हेतु ईश्वरचंद्र विद्यासागर का द्विशताब्दी वर्ष बड़े पैमाने पर मनाया जाएगा। समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार हेतु व विज्ञान क्लब बनाने और समाज को वैक्षानिक चेतना से संपन्न करने की कोशिश होगी। प्रतिभागियों में इस बात पर भी सहमति थी कि देश-दुनिया के हालिया मसलों पर सदस्यों के बीच अधिक और सतत विचार-विमर्श की ज़रूरत है।
विषय़ प्रवर्तन व संचालन डॉ. विक्रम सिंघल तथा धन्यवाद ज्ञापन निसार अली ने किया। जिन संगठनों के प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की, उनमें प्रमुख हैं- प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, क्रांतिकारी संगठन मंच, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन, गांधी ग्लोबल फेमिली, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव फोरम, पीपुल्स फोरम, इंडियन, इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन, नदी-घाटी मोर्चा, विद्यासागर-फुले फाऊंडेशन, ब्रेकथ्रू साईंस सोसायटी, दलित मुक्ति मोर्चा आदि।