वरूण फैक्टर को लेकर भाजपा में असमंजस
देश के प्रथम राजनैतिक परिवार के एक सदस्य एवं भारतीय जनता पार्टी के सांसद वरूण गांधी को लेकर इन दिनों कयास और असमंजस का दौर जारी है;
देश के प्रथम राजनैतिक परिवार के एक सदस्य एवं भारतीय जनता पार्टी के सांसद वरूण गांधी को लेकर इन दिनों कयास और असमंजस का दौर जारी है। दरअसल पीलीभीत लोकसभा का पिछले दो बार से प्रतिनिधित्व करने वाले वरूण का टिकट इस बार भाजपा ने काट दिया है। उनकी मां मेनका गांधी का सुलतानपुर का टिकट बरकरार रखा है जहां की वे पहले से सांसद हैं। पहले मेनका पीलीभीत की नुमाइंदा हुआ करती थीं परन्तु 2009 में उन्होंने वह सीट अपने बेटे को सौप दी। चार लाख से अधिक वोटों से जीत दर्ज कर गांधी परिवार से अलग हो चुके एक अन्य सदस्य ने अपना तूफानी आगाज़ किया था। याद हो कि इंदिरा गांधी के एक तरह से तयशुदा वारिस माने जाने वाले दूसरे पुत्र संजय गांधी की आपातकाल के दौरान एक जहाज दुर्घटना में जब मौत हो गयी थी तो बड़े बेटे राजीव पायलेट की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये थे। पारिवारिक मतभेदों के कारण मेनका अपने पुत्र के साथ अलग रहने लगी थी। पले जनता दल व बाद में वे भाजपा में आ गयीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह एवं अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वे मंत्री भी बनीं। उन्होंने कई सीटों पर हार-जीत दोनों का ही स्वाद चखा।
नरेन्द्र मोदी की 2014 में बनी सरकार में भी मेनका मंत्री बनीं लेकिन दूसरी बार (2019) में पुन: निर्वाचित होने के बावजूद उन्हें यह मौका नहीं मिला। इस साल के चुनाव प्रचार में वरूण के उग्र बयानों से उम्मीद थी कि उन्हें या वरूण को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मोदी-2 सरकार में मिल सकती है लेकिन ऐसा न हुआ। इतना ही नहीं, जब वरूण ने पिछले कुछ समय में अपने बयानों को संयमित एवं सर्वस्पर्शी बनाना शुरू किया तो भाजपा नेतृत्व के कान खड़े हो गये। विशेषकर उन्होंने शासकीय सुविधाएं अल्पसंख्यकों समेत सभी वर्गों तक पहुंचाने की ज़रूरत बतलाई।
उन्होंने लखीमपुर खीरी में किसानों को एक केन्द्रीय राज्यमंत्री के पुत्र द्वारा कुचले जाने की भी आलोचना की जिसमें करीब आधा दर्जन किसान मारे गये थे। वरूण लेखन भी करते हैं। उन्होंने एक लेख में शासकीय योजनाओं की असफलताओं पर भी लेख लिखा जिसके कारण केन्द्र सरकार की फज़ीहत हुई थी। इसी से आभास हो गया था कि मां-बेटे पर संकट आ सकता है। ऐसा ही हुआ जब बारम्बार मंत्रिमंडल के विस्तार या उसमें फेरबदल के बावजूद दोनों में से किसी को भी स्थान नहीं मिला। उल्टे, सांगठनिक फेरबदल के अंतर्गत मेनका को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी निकाल बाहर किया गया। अंदेशा तो यहां तक था कि दोनों के टिकट कट सकते हैं तथा पीलीभीत व सुलतानपुर सीटों से अन्य प्रत्याशी आजमाये जायेंगे। यह आशंका आधी खरी उतरी। मेनका की सीट तो परिवार ने बचा ली लेकिन वरूण की जगह पर दूसरे को उतारा गया।
सियासी पेंच यहीं से शुरू होता है। कयासों एवं अनुमानों की गुंजाइशें भी यहीं से खुलती हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री तथा समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने पहले ही कह दिया कि अगर वरूण अपनी सीट से लड़ते हैं, या किसी भी सीट से तो सपा उन्हें समर्थन देगी। अगर उनकी चाही किसी सीट पर उम्मीदवार भी घोषित हो गया हो तो वह खाली करा दी जायेगी। वरूण-मेनका को लेकर अनुमान थे कि यदि उन्हें टिकटें न मिलीं तो दोनों पार्टी छोड़ सकते हैं। अब वह स्थिति तो भाजपा हाईकमान ने टाल दी है लेकिन वरूण के निर्दलीय चुनाव लड़ने से लेकर सपा या कांग्रेस में जाने तक के विकल्प खुले हैं।
हालांकि अब साफ है कि वे अपनी मां की स्थिति को खराब नहीं करेंगे क्योंकि उनके ऐसे कदम से मेनका की जीत की सम्भावना भीतरघात से धूमिल हो सकती है। हालांकि एक-एक सीट के लिये तरसते मोदी, जो तीसरी मर्तबा पीएम बनने का सपना संजोये हुए हैं, ऐसा नहीं होने देंगे लेकिन स्थानीय नेतृत्व या कार्यकर्ता क्या कर सकते हैं, भला इसकी गारंटी कौन ले सकता है? वैसे कोई शक नहीं कि मेनका की इतनी लोकप्रियता तो है कि पार्टी के सम्भावित अंदरूनी विरोध के बाद भी वे अपने दम जीत सकती हैं। तो भी माना जा रहा है कि पुत्र की ओर से ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाया जायेगा जो मां को अड़चन में डाले।
अब बात रहती है कि क्या वे निर्दलीय चुनाव लडेंगे, तो यह भी अंदाजा लगाया जा रहा है कि वे अमेठी से चुनाव लड़ सकते हैं। बात तो कांग्रेस के राहुल गांधी के भी वहां से लड़ने की होती रही है, पर साफ है कि जब देश ऐसे नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है जिसमें राहुल की संसद में मौजूदगी बहुत ज़रूरी है, तो वे अपनी सुरक्षित सीट वायनाड (केरल) के ही जरिये आएंगे। यहां तक माना जाता है कि वर्तमान सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के लिये राहुल के मुकाबले वरूण कहीं बड़ी चुनौती होंगे। यह अलग बात है कि मेनका गांधी ने 1982 में सक्रिय राजनीति में आने के बाद इसी सीट पर अपना पहला चुनाव अपने जेठ राजीव गांधी के खिलाफ लड़ा था परन्तु वे बुरी तरह पराजित हुई थीं। वैसे तब से अब तक का सियासी परिदृश्य काफी बदल चुका है। अब दोनों स्थापित नेता हैं।
एक और उम्मीद यह भी जताई जा रही है कि वरूण कांग्रेस में आ सकते हैं। हालांकि उनके पुराने बयान कांग्रेस की नीति के खिलाफ जाते हैं। लगभग एक साल पहले स्वयं राहुल कह चुके हैं कि उनके विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित होने के कारण उन्हें यहां (कांग्रेस में) दिक्कत होगी। तो भी चुनावी रणनीति के तहत कुछ भी मुमकिन है। जो भी हो, वरूण का टिकट काटकर भाजपा कई तरह की दिक्कतों का सामना कर सकती है क्योंकि इस युवा सांसद का किसी पार्टी की टिकट पर या निर्दलीय लड़ना लगभग तय है। वे चुनाव प्रपत्र पहले ही खरीद चुके हैं। देखना होगा कि भाजपा वरूण फैक्टर से कैसे निपटेगी?