खुद को कठपुतली साबित करने पर आमादा हैं आतिशी
सदियों के राजतंत्र, लम्बी सामंतशाही व्यवस्था तथा 200 वर्षों की औपनिवेशिक दासता से लम्बा संघर्ष कर मुक्त होने वाले भारत के नवसामंतों को राजशाही का चस्का है;
- डॉ. दीपक पाचपोर
... तो अपनी ऊंची तालीम, दिल्ली सरकार में बतौर शिक्षा मंत्री के रूप में किया गया उनका चमकदार प्रदर्शन, शिक्षितों के संगठन आप की नेता होने की सारी उपलब्धियों को खाक में मिलाते हुए इन काबिल मोहतरमा ने अपनी बगल में यह कहकर एक कुर्सी खाली छोड़ दी, कि वह उनके गुरू व नेता अरविंद केजरीवाल की है। संदर्भ: भरत का अजुध्या में चलाया गया खड़ाऊ राज। यानी वे नाममात्र के राजा थे। 14 वर्षों का स्टॉपगैप अरेंजमेंट- अस्थायी व्यवस्था।
सदियों के राजतंत्र, लम्बी सामंतशाही व्यवस्था तथा 200 वर्षों की औपनिवेशिक दासता से लम्बा संघर्ष कर मुक्त होने वाले भारत के नवसामंतों को राजशाही का चस्का है। जब लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी धार्मिक विधि-विधानों के साथ और पौराणिक काल के डिज़ाइनर परिधानों में लिपटकर लोकतंत्र की सर्वोच्च आसंदी के बगल में मध्यकालीन सैंगोल का इवेंट रच सकते हैं, तो उनके नक्शे-कदम पर चलने वाली आम आदमी पार्टी की दिल्ली की नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना सिंह अपनी कुर्सी की बगल में भला क्यों नहीं एक कुर्सी खाली छोड़ सकतीं, जो एक तरह से खड़ाऊ राज का प्रतीक है।
आप को सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों की पार्टी कहा जाता है और आतिशी की तो उच्च शिक्षा ऐसे देश में भी हुई, जो अपनी लोकतांत्रिक परिपक्वता के लिये जाना जाता है। उनके माता-पिता मार्क्स और लेनिन से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम इन दोनों नामों के थोड़े-थोड़े अक्षरों से मिलाकर रखा था। हालांकि यह आश्चर्य की बात है कि वामपंथ से प्रभावित उनके अभिभावकों ने आतिशी को पढ़ने रूस या किसी साम्यवादी देश में न भेजकर एक पूंजीवादी देश ग्रेट ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भेजा था। यहां 'थ्री इडियट्स' के रैंचो को उद्धृत किया जा सकता है, जो कहता है कि 'ज्ञान जहां से मिले बटोर लेना चाहिये।' (चाहे मास्को विवि हो या हार्वर्ड अथवा गलगोटिया विवि।)
... तो अपनी ऊंची तालीम, दिल्ली सरकार में बतौर शिक्षा मंत्री के रूप में किया गया उनका चमकदार प्रदर्शन, शिक्षितों के संगठन आप की नेता होने की सारी उपलब्धियों को खाक में मिलाते हुए इन काबिल मोहतरमा ने अपनी बगल में यह कहकर एक कुर्सी खाली छोड़ दी, कि वह उनके गुरू व नेता अरविंद केजरीवाल की है। संदर्भ: भरत का अजुध्या में चलाया गया खड़ाऊ राज। यानी वे नाममात्र के राजा थे। 14 वर्षों का स्टॉपगैप अरेंजमेंट- अस्थायी व्यवस्था। जब राजा राम वनवास से लौटे तो भरत ने गद्दी सौंप दी। कुछ इसी तज़र् पर आतिशी ने संदेश दिया है कि इस कुर्सी पर असली हक तो केजरीवाल का है। वे तो परिस्थितियों के कारण यह काम सम्हाल रही हैं- भरत की तरह अनिच्छा से। जैसे भरत 14 वर्षों से इस अपराध भाव से राज करते रहे कि वे किसी और का हक मार रहे हैं। एक शासक जो खुद को ही प्रॉक्सी मान रहा हो, क्या उससे प्रशासकीय कुशलता तथा न्याय की उम्मीद की जा सकती है? भरत ने राजा के रूप में जब काम किया होगा तो यह भाव तो उनमें भी आया ही होगा। बहरहाल, रामकथा को एक ओर रख दिया जाये। कहते हैं कि महान मराठा शासक शिवाजी ने भी अपना राज-काज अपने गुरू रामदास समर्थ के नाम से ही चलाया था। एक ओर आध्यात्मिक पुंज की प्रेरणा तो दूसरी ओर उनकी माता जीजा के मार्गदर्शन में उन्होंने जैसा भी राज किया वह राजशाही के अंतर्गत की गयी व्यवस्था ही थी।
आतिशी तो लोकतांत्रिक पार्टी की नेता हैं। केजरीवाल द्वारा पद छोड़े जाने के बाद उन्हें विधायक दल का नेता एक निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत चुना गया है। बगल में एक और कुर्सी लगाकर आतिशी ने उस संविधान सम्मत प्रक्रिया पर ही पानी फेर दिया है। वैसे तो उनके पास एक नायाब मौका है कि वे अपनी कार्य कुशलता और योग्यता का परिचय दें। उनकी पार्टी कठिन दौर से गुजर रही है। एक ओर उनके असली सीएम के हाथ-पांव बांध दिये गये हैं, तो वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली के लेफ्टी. गवर्नर भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर पूरी पार्टी को ही नेस्तनाबूद करने पर तुले हैं। वैसे में आतिशी के पास खुद को साबित करने का मौका है। उन्हें बचे समय में दिल्ली के बहुत से काम करने हैं और उनके पास यह भी अवसर चलकर आया है कि दिल्ली विधानसभा का अगला चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जायेगा- सीएम होने के नाते। तो उन्होंने इस मौके पर अलग कुर्सी लगाकर बाकायदे ऐलान कर दिया कि आखिरकार वे हैं तो किसी के हाथों की कठपुतली ही। लड़ाई तो एलजी के हाथों की कठपुतली बनने से इंकार करने की लड़ी जा रही थी। आप एक के हाथ की कठपुतली बनने से तभी इंकार कर सकते हैं जब आप किसी की भी कठपुतली न बनें। देश में ऐसे कई उदाहरण हैं कि किसी को किसी की कृपा से कोई पद तो मिलता है, लेकिन उसे अपनी स्वतंत्र सत्ता साबित करनी होती है। आज भाजपा की इसीलिये तो आलोचना होती है कि उसने सभी को मोदी और उनके खासमखास अमित शाह के हाथों की कठपुतली बना दिया है। वे तो मजबूरी में बने हैं- आतिशी मैडम तो स्वघोषित कठपुतली बन बैठी हैं। ऐसे में उनका इक़बाल कैसे कायम होगा?
हो सकता है कि आतिशी ने स्वयं को निष्ठावान साबित करने के लिये ऐसा किया हो, पर यह है तो लज्जाजनक ही। पता नहीं यह आइडिया उनका खुद का था या उन्हें पार्टी नेतृत्व ने ऐसा करने के लिये निर्देशित किया था। यदि किसी ने कहा भी हो तो उन्हें मना कर देना था और ऐसे पद को स्वीकार ही नहीं करना था। सम्भवत: हाल ही में झारखंड में जो हुआ वह भी शायद आप के नेताओं को आशंकित कर गया हो। याद हो कि जेल जाने के पहले वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेता चम्पई सोरेन को सीएम बना दिया था। उस वक्त तो उन्होंने कहा था कि वे हेमंत की जगह पर काम कर रहे हैं और असली सीएम हेमंत ही हैं। जेल से छूटने के बाद जब हेमंत वापस अपनी कुर्सी पर विराजमान हुए तो चम्पई ने अपने अपमान के कई किस्से सुनाते हुए दल का त्याग कर दिया और भाजपा में समा गये। आतिशी शायद आप नेताओं को आश्वस्त करना चाहती होंगी कि वे हर घड़ी हर पल इस बात को याद रखेंगी कि वे केजरीवाल की दी गयी कुर्सी पर बैठी हैं। हालांकि वे ऐसा नहीं भी करतीं तो भी यह जगजाहिर सी बात थी। सवाल तो यह है कि इस महत्वपूर्ण पद पर बैठी सीएम से बाहर के लोग, खासकर विदेश से जो आएंगे, तो उन्हें भारतीय लोकतंत्र के इस रिक्त स्थान को देखकर आश्चर्य होगा। देश को लेकर बनने वाली उनकी धारणा किस तरह की हो सकती है- इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
यह कुछ वैसा ही है जैसे वाराणसी के एक थाने में भैरव बाबा की कुर्सी खाली रहती है। माना जाता है कि वे ही शहर के कोतवाल हैं। उसका निरीक्षण कोई अधिकारी कभी नहीं करता। उसे देखने तक लोग थाने में जाते हैं। शिकायत करने वालों को पुलिस रोक सकती है, परन्तु दर्शन करने वालों को नहीं। आतिशी कुछ कर सकें या नहीं, लोगों को उस खाली कुर्सी के दर्शन करने से रोक नहीं सकेंगी। यह एक तरह से खुद पर उन्होंने पहरेदारी बिठा ली है। वैसे मोतीलाल वोरा को जब मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था तब उनका मज़ाक उड़ाते हुए तत्कालीन एक बड़े पत्रकार ने लिखा था कि 'वोरा जी बड़ी सी कुर्सी होने के बावजूद उसके बिलकुल आगे के हिस्से में बैठते थे, ताकि जब भी उन्हें पद छोड़ने को कहा जाये तो उन्हें उठने में आसानी होगी।' आतिशी चाहती हैं कि उनका मज़ाक न उड़ाया जाये तो वे केजरीवाल की कुर्सी को तुरन्त हटवाएं। बाकी उनकी मज़ीर्!
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक है)