ललित सुरजन की कलम से - लोकपाल की आड़ में
'लोकपाल विधेयक पर चर्चा चलते हुए तीन माह पूरे हो गए। इतने समय में जनता को शायद यह समझ आ गया होगा कि लोकपाल बनने या न बनने से उसका कोई भला होने वाला नहीं है;
'लोकपाल विधेयक पर चर्चा चलते हुए तीन माह पूरे हो गए। इतने समय में जनता को शायद यह समझ आ गया होगा कि लोकपाल बनने या न बनने से उसका कोई भला होने वाला नहीं है।'
'यह सारा व्यायाम, उन दूसरे प्रश्नों से जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते थे, उसका ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है। पिछली जुलाई से अब तक के घटनाचक्र पर एक सरसरी निगाह डालें तो एक के बाद एक जुडी कड़ियां सामने आने लगती हैं।
सबसे पहले राष्ट्रमण्डल खेलों का घोटाला सामने आया, उसे खूब उछाला गया। एक तरफ सुरेश कलमाड़ी और उनके कुछ सहयोगी जेल भेजे गए तो दूसरी तरफ देश की सर्वोच्च संस्था यानी संसद की व्यवस्था कैसे पंगु बनाई जा सकती है, यह भी समझ में आया।
पहले तो लोकलेखा समिति और संयुक्त संसदीय समिति का विवाद चलते रहा, फिर लोकलेखा समिति में ही मतभेद अभूतपूर्व ढंग से सामने आए। समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की रिपोर्ट को लोकसभा अध्यक्ष ने ही खारिज कर दिया। अब जेपीसी रिपोर्ट की प्रतीक्षा है।'
(30 जून 2011 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/04/13_23.html