साहित्य-सृजन से भी बनी छत्तीसगढ़ राज्य की पहचान
प्रेमचंद जी ने लखनऊ में 9-10 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए 'साहित्य का उद्देश्य' शीर्षक अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था - 'साहित्य का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है;
- स्वराज्य करुण
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का सपना बहुत पुराना था। इसे साकार करने के लिए सामाजिक -सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठनों और पत्र -पत्रिकाओं सहित साहित्यकारों की भूमिका को भी हमें याद रखना चाहिए। इस उद्देश्य से सामाजिक-सांस्कृतिक कर्मियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने तरीके से अभियान चलाया, वहीं साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के जरिए इसके लिए माहौल बनाया। उनके साहित्य -सृजन से भी राष्ट्रीय क्षितिज पर छत्तीसगढ़ को एक अलग राज्य के रूप में पहचान मिली।
प्रेमचंद जी ने लखनऊ में 9-10 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए 'साहित्य का उद्देश्य' शीर्षक अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था - 'साहित्य का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्जा इतना न गिराइए । वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। 'छत्तीसगढ़ प्रदेश के निर्माण में साहित्यकारों की सृजनात्मक भूमिका की चर्चा के दौरान हमें प्रेमचंद जी के इस महत्वपूर्ण विचार को भी याद रखना चाहिए।
राज्य स्थापना के 25 साल पूरे हो गए हैं। यह इस राज्य का रजत जयंती वर्ष है। परस्पर सहमति और सद्भावना के वातावरण में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के जरिए छत्तीसगढ़ प्रदेश का अस्तित्व में आना एक ऐतिहासिक घटना है।
हरियाली से आच्छादित पहाड़ों, पर्वतीय झरनों, नदी -नालों, मूल्यवान खनिजों और वनों से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ पहले सिर्फ एक भौगोलिक इलाका माना जाता था। यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोकगीतों, लोकनृत्यों, लोक नाटकों, कृषि संस्कृति पर आधारित ग्रामीण त्योहारों, साहित्यिक रचनाओं और अनेक ऐतिहासिक तथ्यों से यह साबित हुआ कि देश के अन्य प्रदेशों की तरह छत्तीसगढ़ भी इस विशाल भारत -भूमि की एक सांस्कृतिक इकाई है । फलस्वरूप देश के कर्णधारों तक यह संदेश पहुँचा कि एक अलग राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ के उभरने की तमाम संभावनाएँ मौज़ूद हैं ।
इस अंचल की कला -संस्कृति पर, यहाँ के रीति -रिवाजों पर,यहाँ की सामाजिक -आर्थिक समस्याओं पर और यहाँ के दर्शनीय स्थलों पर भी साहित्यकारों ने ख़ूब लिखा। साहित्यकारों का सृजन रंग लाया और एक नये राज्य के रूप में सबका सपना साकार हुआ। छत्तीसगढ़ का रंग- बिरंगा साहित्यिक कैनवास बहुत दूर तक फैल गया। इसमें हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और आंचलिक बोलियों की रचनाओं के कई रंग खिलते नज़र आते हैं ।
प्रदेश के साहित्यिक संसार में 'छत्तीसगढ़ -मित्र ' के आगमन से एक नया वातावरण बना, जब 125 साल पहले पहले 1900 के जनवरी महीने में साहित्यकार पंडित माधव राव सप्रे ने अपने साथी रामराव चिंचोलकर के साथ मिलकर पेंड्रा से इस मासिक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन शुरु किया था । इस अंचल में समाचारों और विचारों के प्रकाशन के लिए यह उस दौर की पहली पत्रिका थी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सहकारिता आंदोलन के प्रमुख नेता वामनराव लाखे इसके प्रकाशक थे। इस पत्रिका का मुद्रण रायपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस में होता था।
आर्थिक समस्याओं के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र 'का प्रकाशन तीन साल बाद दिसम्बर 1902 में बंद करना पड़ा, लेकिन छत्तीसगढ़ में साहित्य और पत्रकारिता के विकास की राह पर उनका यह ऐतिहासिक प्रयास मील का पत्थर साबित हुआ। लगभग 110 साल बाद नये सिरे से इसका प्रकाशन रायपुर से सितम्बर 2012 में शुरु हुआ । वर्तमान में इसके सम्पादक डॉ. सुशील त्रिवेदी और प्रबंध सम्पादक डॉ. सुधीर शर्मा हैं।
आधुनिक युग में विगत एक शताब्दी से कुछ पहले भी छत्तीसगढ़ की परिकल्पना एक राज्य के रूप में की जाने लगी थी। माधवराव सप्रे द्वारा सम्पादित पत्रिका (छत्तीसगढ़ मित्र )के तो शीर्षक में ही 'छत्तीसगढ़ 'नाम जुड़ा हुआ था। उन दिनों अपनी इस पत्रिका की नियमावली में सप्रे जी ने इस विशाल अंचल का उल्लेख 'छत्तीसगढ़ विभाग ' के नाम से किया था। शायद इस अंचल की विशेषताओं को देखते हुए ही उन्होंने ऐसी परिकल्पना की थी । सप्रे जी की मर्मस्पर्शी कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' उनकी इस पत्रिका में 1901 में प्रकाशित हुई थी, जिसे उन दिनों भारत के हिन्दी जगत में काफी प्रशंसा मिली ।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जब यह इलाका सी.पी .एंड बरार (मध्य प्रान्त एवं बरार ) प्रशासन के अधीन था, उस समय 1906 में राजिम क्षेत्र के ग्राम चमसूर निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, कवि और लेखक स्वर्गीय पंडित सुन्दर लाल शर्मा ने अपने खंड काव्य 'दानलीला' में प्रकाशन स्थल ' सी.पी.एंड बरार प्रान्त के बदले ' छत्तीसगढ़ प्रान्त ' अंकित करवाया था। ललित मिश्रा द्वारा सम्पादित और वर्ष 2007 में 'युग प्रवर्तक : पंडित सुन्दर लाल शर्मा 'शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में भी इसका उल्लेख है। पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने अछूतोद्धार के लिए जन जागरण में भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई।
छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण 140 साल पहले छप चुका था । यह वर्ष 1885 में प्रदेश के धमतरी नगर में लिखा गया था। इसके रचनाकार थे व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय। अपने महाग्रंथ 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में स्वर्गीय हरि ठाकुर ने प्रदेश की 51 महान विभूतियों के साथ हीरालालजी का भी परिचय दिया है।
यह भी उल्लेखनीय है कि 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण 'के प्रकाशन के 52 साल बाद यानी आज से 88 साल पहले वर्ष 1937 में राज्य के बस्तर अंचल की प्रमुख सम्पर्क भाषा 'हल्बी' का व्याकरण भी सामने आया, जब 'हल्बी भाषा बोध' शीर्षक से इसका प्रकाशन हुआ। जगदलपुर के ठाकुर पूरन सिंह हल्बी व्याकरण की इस प्रथम पुस्तक के लेखक थे। लगभग आठ दशक बाद वर्ष 2016 में उनके पौत्र और जगदलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार विजय सिंह के प्रयासों से इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ ।
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष रह चुके, बिलासपुर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक के अनुसार पहला छत्तीसगढ़ी नाटक आज से 120 साल पहले छपा था । उन्होंने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार 'में लिखा है कि पंडित लोचन प्रसाद पांडेय के वर्ष 1905 के नाटक 'कलिकाल' को छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला नाटक माना जा सकता है, जिसकी भाषा में लरिया बोली की छाप मिलती है। उल्लेखनीय है कि लरिया बोली छत्तीसगढ़ के ओड़िशा से लगे रायगढ़ जिले के कई गाँवों में प्रचलित है। पंडित लोचनप्रसाद पांडेय रायगढ़ के पास महानदी के किनारे ग्राम बालपुर के निवासी थे, लेकिन रायगढ़ उनका कर्मक्षेत्र रहा।
रंगमंच के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ की पहचान बनाने में रायपुर के हबीब तनवीर की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने अपनी संस्था 'नया थियटर' के जरिए छत्तीसगढ़ के अनेक आंचलिक कलाकारों को मंच दिया। छत्तीसगढ़ को सांस्कृतिक पहचान दिलाने के लिए दुर्ग जिले के ग्राम बघेरा निवासी दाऊ रामचंद्र देशमुख द्वारा वर्ष 1971 में गठित संस्था 'चंदैनी गोंदा' की भी ऐतिहासिक भूमिका थी। उन्होंने अपनी इस संस्था में अनेक लोक कलाकारों, गीतकारों, संगीतकारों और गायक -गायिकाओं को जोड़ा।
ग्राम बालपुर (वर्तमान जिला ; जांजगीर -चाम्पा ) के पाण्डेय बंशीधर शर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार माने जाते हैं। उन्होंने ' हीरू के कहिनी ' शीर्षक छत्तीसगढ़ी उपन्यास लिखा था, जो आज से लगभग सौ साल पहले वर्ष 1926 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। उनके इस छत्तीसगढ़ी उपन्यास का दूसरा संस्करण इसके लगभग 74 साल बाद, वर्ष 2000 में राज्य बनने के सिर्फ डेढ़ महीने पहले डॉ. राजू पाण्डेय के सौजन्य से नये स्वरूप में प्रकाशित हुआ। द्वितीय संस्करण का सम्पादन रायगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार ईश्वर शरण पाण्डेय ने किया । इस छत्तीसगढ़ी उपन्यास में ब्रिटिश युग के गुलाम भारत के छत्तीसगढ़ के गाँवों, किसानों और मज़दूरों की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण है।
1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में छत्तीसगढ़ की सोनाखान जमींदारी के वीर नारायण सिंह ने भी अपने प्राणों की आहुति दी थी। उनके वीरता पूर्ण संघर्ष और बलिदान पर पहला उपन्यास '1857 सोनाखान ' शीर्षक से 2022 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार आशीष सिंह ने लिखा था। विगत 7 सितम्बर 2025 को रायपुर में उनका निधन हो गया। उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का लेखन और सम्पादन किया था। उनका लेखन मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की उन महान विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित रहा है ,जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था। आशीष सिंह छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरि ठाकुर के सुपुत्र थे।
इस अंचल में दृश्य -काव्य के रूप में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे सन्देस' वर्ष 1965 में प्रदर्शित हुई। लेखक और निर्माता -निर्देशक मनु नायक की यह फिल्म छुआछूत के खिलाफ जन -जागरण के साथ -साथ सहकारिता के महत्व को रेखांकित करती है। रायपुर जिले के ग्राम सकलोर में जन्मे विश्वेन्द्र ठाकुर का व्यंग्य उपन्यास 'किस्सा बहराम चोट्टे का ' भी छह दशक पहले ख़ूब चर्चित और प्रशंसित हुआ था। छत्तीसगढ़ में छपा पहला हिन्दी व्यंग्य उपन्यास था। 1962 में प्रकाशित इस उपन्यास को कुछ विद्वानों ने स्वतंत्र भारत में हिन्दी का पहला व्यंग्य उपन्यास माना है। उपन्यास का दूसरा संस्करण तिरेसठ साल बाद इस वर्ष 2025 में प्रकाशित हुआ है, जिसका विमोचन स्वर्गीय विश्वेन्द्र जी के जन्म दिन पर 25 अक्टूबर को रायपुर में किया गया। जयप्रकाश मानस के 19 छत्तीसगढ़ी व्यंग्य लेखों के संग्रह 'कलादास के कलाकारी' का प्रकाशन वर्ष 1995 में हुआ। पुस्तक के आमुख में राज्य के प्रसिद्ध साहित्यकार हरि ठाकुर ने इसे व्यंग्य विधा में छत्तीसगढ़ी भाषा की प्रथम पुस्तक के रूप में वर्णित किया है।
नये राज्य की सरकारों ने भी यहाँ के साहित्यिक -जनमत का सदैव हार्दिक स्वागत किया है। राज्य गठन के सिर्फ सात वर्ष बाद विधानसभा में सर्वसम्मति से विधेयक पारित हुआ और प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। 2008 में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन हुआ। छत्तीसगढ़ सरकार ने 2019 में सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. नरेंद्र देव वर्मा के लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीत 'अरपा पैरी के धार -महानदी हे अपार* को राज्य -गीत का दर्जा दिया । डॉ. वर्मा द्वारा 1973 में रचित इस गीत में 'छत्तीसगढ़ -महतारी' की वंदना है । स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. खूबचन्द बघेल गांधीवादी सत्याग्रह के साथ अपने साहित्यिक लेखन के जरिए भी देश की आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय रहे। उन्होंने आज़ादी के बाद छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए जन जागरण के उद्देश्य से भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई। डॉ. बघेल ने 1956 में राजनांदगांव में 'छत्तीसगढ़ी महासभा 'और 1967 में रायपुर में 'छत्तीसगढ़ भातृ संघ ' का गठन किया। वह हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने 'ऊंच -नीच ' , 'करम छड़हा' 'जरनैल सिंह ' और 'लेड़गा सुजान के गोठ ' जैसे लोकप्रिय नाटकों की रचना की थी। रायपुर निवासी वरिष्ठ साहित्यकार (स्वर्गीय) हरि ठाकुर छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच के संयोजक बनाए गए थे। वह लेखक, कवि और पत्रकार भी थे। राजिम के संत कवि पवन दीवान भी अपनी कविताओं के माध्यम से विभिन्न मंचों पर लगातार जन -चेतना जाग्रत करते रहे। कविताओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन को दिशा देने का एक महत्वपूर्ण प्रयास वर्ष 1977 में हुआ, जब वरिष्ठ साहित्यकार, भिलाई नगर निवासी स्वर्गीय विमल कुमार पाठक के सम्पादन में आंचलिक कवियों का सहयोगी संकलन 'छत्तीसगढ़ जागरण गीत ' के नाम से सामने आया। प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर द्वारा प्रकाशित इस गीत - संग्रह की रचनाओं से जन - जागरण का शंखनाद हुआ ।
वरिष्ठ साहित्यकार ,भाषा विज्ञानी और छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. विनय कुमार पाठक ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार ' में छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा में है। बिलासपुर के प्रयास प्रकाशन द्वारा इसका पहला संस्करण 1971 में, दूसरा संस्करण 1975 में और तीसरा संस्करण 1977 में प्रकाशित किया गया था।
लेखक डॉ. पाठक ने इसके गद्य साहित्य खंड में लिखा है कि आरंग में प्राप्त सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला उदाहरण माना जा सकता है। यह कलचुरि राजा अमरसिंह का शिलालेख है। डॉ. पाठक ने छत्तीसगढ़ी भाषा में रचित106 पन्नों के अपने इस लघु शोध ग्रंथ में छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य की विकास यात्रा को कहानी, उपन्यास, नाटक और एकांकी, निबंध और समीक्षा, अनुवाद और छत्तीसगढ़ी कविता के क्षेत्र में हुए कार्यों को रेखांकित किया है।
साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए रायगढ़ के पंडित मुकुटधर पाण्डेय को 1976 में, दुर्ग के डॉ. सुरेन्द्र दुबे को 2010 में और बिलासपुर के पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी को 2018 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया जा चुका है। दुर्भाग्य से ये तीनों साहित्यिक दिग्गज अब इस दुनिया में नहीं हैं। इनमें से पंडित मुकुटधर पाण्डेय तो हिन्दी कविता में छायावाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। साहित्य के तीन महारथियों की कर्मभूमि के रूप में राजनांदगांव जिला प्रसिद्ध है। डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी , डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र और गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस कस्बाई शहर में रहकर अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना से राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया।
जगदलपुर (बस्तर) के लाला जगदलपुरी ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी सहित वहाँ की हल्बी और भतरी बोलियों में भी ख़ूब साहित्य-सृजन किया। उनकी पुस्तक 'बस्तर; इतिहास एवं संस्कृति ' ख़ूब चर्चित हुई। लालाजी की हिन्दी गज़लों का संग्रह 'मिमियाती जि़न्दगी; दहाड़ते परिवेश ' लगभग चार दशक पहले प्रकाशित हुआ था । जगदलपुर में जन्मे गुलशेर खाँ (शानी) आगे चलकर अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने गए। 1965 में प्रकाशित उनके उपन्यास 'काला जल 'पर नब्बे के दशक में दूरदर्शन से धारावाहिक का भी प्रसारण हुआ। सरगुजा (अम्बिकापुर) के समर बहादुर सिंह की तीन पुस्तकों (1) सरगुजा -एक अध्ययन, (2) सरगुजा की आधुनिक पृष्ठभूमि और (3) सरगुजा की आदिम जातियां, बाबूलाल जैन 'जलज ' की दो पुस्तकों (1) वैशाली के वर्धमान और (2) नारी -धरती से अम्बर तक, अमरनाथ सिंह हजारी की चार पुस्तकों (1) सतरंगिनी ,(2) भारती के दीप ,(3) स्मृति कण और (4) अरुणिमा की भी उस दौर में काफी चर्चा हुई। अम्बिकापुर निवासी साहित्यकार डॉ. कुंतल गोयल और रामप्यारे रसिक की रचनाओं से भी सरगुजा के साहित्यिक परिवेश को दूर-दूर तक पहचाना गया। भारतेन्दु हिन्दी साहित्य समिति, अम्बिकापुर द्वारा 2000 में प्रकाशित डॉ. लालचंद ज्योति की शोध -पुस्तक 'परिचय के दर्पण में सम्पूर्ण सरगुजा' में संयुक्त अथवा अविभाजित सरगुजा जिले का भौगोलिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिचय मिलता है। राज्य निर्माण के बाद छत्तीसगढ़ में और भी ज़्यादा उत्साह के साथ भरपूर साहित्य-सृजन और प्रकाशन हो रहा है। यहाँ के हर जिले की अपनी साहित्यिक दुनिया है, जहाँ सक्रिय और समर्पित, वरिष्ठ और कनिष्ठ साहित्य साधकों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जो अपनी छत्तीसगढ़ी, हिन्दी और आंचलिक बोलियों की रचनाओं से प्रदेश के साहित्य -भंडार को लगातार समृद्ध करते जा रहे हैं।