चिपको की तरह दक्षिण भारत का अप्पिको

चिपको आंदोलन की 50 वीं वर्षगांठ पूरी हो रही है। इस आंदोलन ने हिमालय में वन कटाई पर रोक लगवाने में सफलता पाई थी;

Update: 2024-06-22 00:27 GMT

- बाबा मायाराम

इस आंदोलन का असर हुआ कि कर्नाटक के पश्चिमी घाट में हरे पेड़ों को कटने पर सरकार ने रोक लगाई, जो अब भी जारी है। यह अहिंसक व गांधीवादी तरीके का आंदोलन था। पेड़ों से लोग चिपक गए थे। यह प्रतीकात्मक ही नहीं था, वास्तव में वनों का कटान रोकने के लिए वनों से लोग चिपक गए। बिलकुल उत्तराखंड के चिपको आंदोलन की तरह।

चिपको आंदोलन की 50 वीं वर्षगांठ पूरी हो रही है। इस आंदोलन ने हिमालय में वन कटाई पर रोक लगवाने में सफलता पाई थी। इसका देश-दुनिया में काफी असर हुआ था। कई जगहों पर इससे प्रभावित होकर लोगों ने पेड़, पहाड़, पानी, पत्थर और खेती को बचाने के लिए पहल शुरू की थी। इसके साथ, शराब बंदी आंदोलन, बीज बचाओ आंदोलन और पर्यावरण जागरूकता के लिए मुहिम छेड़ी। आज मैं इस कॉलम में चिपको से प्रेरणा लेकर कर्नाटक में चलने वाली एक महत्वपूर्ण पहल अप्पिको के बारे में करना चाहूंगा।

हाल ही में मुझे चिपको आंदोलन से प्रेरणा लेकर अप्पिको आंदोलन के सूत्रधार पांडुरंग हेगड़े से मिलने का मौका मिला। छत्तीसगढ़ के राजिम कस्बे में वे एक बैठक में हिस्सा लेने आए थे। इस दौरान उन्होंने मुझे अप्पिको आंदोलन की प्रेरणादायक कहानी सुनाई। वे देश-दुनिया में पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने की कोशिश कर रहे हैं।
आगे बढ़ने से पहले चिपको आंदोलन के बारे में जानना उचित होगा। मुझे एक-दो बार चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा को भी देखने व सुनने का मौका मिला है। मुझे उनकी एक बात याद है, जो उन्होंने इन्दौर की एक बैठक में कही थी। उन्होंने कहा था कि पेड़ भी जिंदा हैं,और वे बातें भी करते हैं। अगर उन्हें गले से लगाते हैं तो सुकून मिलता है।

चिपको आंदोलन महिलाओं की अगुआई में हुआ था। इसका श्रेय बहुगुणा जी भी महिलाओं को देते थे। वे कहते थे महिलाएं जंगल का महत्व अच्छे से जानती हैं, क्योंकि वह उनका मायका है, जो हर संकट के समय उनके साथ रहता है। जंगल से ही उनकी सब जरूरतें पूरी होती हैं। फल, फूल, शहद, ईंधन, चारा, पानी, रेशे सब कुछ। इस आंदोलन ने वन कटाई पर न केवल रोक लगाने में सफलता पाई थी, पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया था। बल्कि पूरी दुनिया में पर्यावरण के प्रति चेतना जगाई थी।

पांडुरंग हेगड़े दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडलिस्ट हैं। अपनी पढ़ाई के दौरान ही हिमालय के चिपको आंदोलन में शामिल हो गए थे और कई गांवों में घूमे थे और कार्यक्रमों में शामिल हुए थे। वे शुरूआत से स्वभाव से घुमक्कड़ हैं, और पर्यावरण के प्रति उनका विशेष लगाव रहा है। लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा और चिपको की प्रेरणा से उनकी जीवनधारा ही बदल गई। उन्हें बड़ी नौकरियों के प्रस्ताव मिले, लेकिन उन्होंने उनकी कर्मभूमि कर्नाटक को ही बनाया, जहां के वे रहने वाले हैं।

पांडुरंग हेगड़े जब पढ़ाई के बाद उनके गांव वापस लौटे तब तक घने जंगल उजाड़ में बदल रहे थे। हरे पेड़ कट रहे हैं। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। बचपन में वे खुद घर के मवेशी जंगल में चराते थे, तब बहुत घना जंगल देखा था। हरे पेड़, शेर, हिरण,जंगली सुअर,जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह-तरह की चिड़ियाएं देखी थीं। पर कुछ सालों के अंतराल में इसमें कमी आई।

अस्सी के दशक की बात है। हिमालय की तरह पश्चिमी घाट में वनों की कटाई होने लगी। यह उष्ण कटिबंधीय वन जैव विविधता के लिए जाने जाते हैं। जंगलों पर लोगों की आजीविका व जीवन निर्भर था। लेकिन सरकार की वननीति के चलते यहां की जैव विविधता व पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ा। इससे न केवल यहां के लोगों का जीवन कठिन हुआ बल्कि यहां के पीने के पानी और खेती की सिंचाई का भी संकट बढ़ने लगा। चिपको से प्रेरणा लेकर यहां भी अप्पिको ( कन्नड़ भाषा का शब्द) नाम से जिसका अर्थ भी चिपको ही होता है, आंदोलन चला।

उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर हस्तक्षेप करनी की सोची। इसी समय सुंदरलाल बहुगुणा जी कर्नाटक आए और उन्होंने चिपको आंदोलन का अनुभव ग्रामीणों को बताया और कहा कि आप भी इस काम को आगे बढ़ाएं। उनसे प्रेरणा लेकर सालकनी गांव से विरोध शुरू हुआ और आसपास के गांवों में फैला। यहां पदयात्रा की, जिनमें महिलाएं व युवा शामिल थे। इस आंदोलन का विस्तार जल्द ही पड़ोसी गांव सिद्दापुर तालुका तक हो गया।

इसके पहले पांडुरंग हेगड़े चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा के साथ कश्मीर से कोहिमा तक की पदयात्रा में शामिल हुए थे, जिसने पूरे देश का ध्यान खींचने की कोशिश की थी। इसीलिए पदयात्राओं का महत्व लोगों को जोड़ने व चेतना जगाने में क्या है, उसे अच्छी तरह समझते थे।

पांडुरंग हेगड़े ने इसमें सभी तबके को जोड़ा, राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया। उनका कहना था कि हमारा मुख्य उद्देश्य वनों की रक्षा करना है, जो हमारे और सभी जीव-जगत के जीवन का आधार है। हमें इसमें सबकी भागीदारी की जरूरत है, पर किसी का एकाधिकार नहीं होना चाहिए। हमें वननीति में बुनियादी बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में मददगार हो। जिस पर देश की बड़ी आबादी आश्रित है।

ग्रामीणों का कहना था कि कृषि उपज घट रही है, क्योंकि जंगल कट रहा है। फसलों में रोग लग रहे हैं। आर्थिक हालत खराब हो रही है। कर्ज बढ़ रहा है। उत्तर कन्नड़ जिले में 80 प्रतिशत जंगल था, जो वन दोहन के कारण काफी कम हो गया था। और उसकी जगह सागौन व यूकेलिप्टस लगाया था। जलस्रोत सूख गए थे। बारिश भी कम हो रही थी। जंगल से फल, चारा, ईंधन, जैव खाद और रेशा मिलते थे, उनमें कमी आ रही थी। अप्पिको आंदोलन से वनों को फिर से हरा-भरा करने में मदद मिली और लोगों की आजीविका भी इससे जुड़ी।

हिमालय के चिपको आंदोलन की तरह पश्चिमी घाट में अप्पिको आंदोलन भी प्रसिद्ध हुआ। वनों की कटाई के खिलाफ आंदोलन काफी हद तक सफल रहा। इसे न केवल लोगों का समर्थन हासिल हुआ बल्कि मीडिया में अच्छा कवरेज मिला, सरकारी महकमे में मान्यता मिली।
इस आंदोलन का असर हुआ कि कर्नाटक के पश्चिमी घाट में हरे पेड़ों को कटने पर सरकार ने रोक लगाई, जो अब भी जारी है। यह अहिंसक व गांधीवादी तरीके का आंदोलन था। पेड़ों से लोग चिपक गए थे। यह प्रतीकात्मक ही नहीं था, वास्तव में वनों की कटान रोकने के लिए वनों से लोग चिपक गए। बिलकुल उत्तराखंड के चिपको आंदोलन की तरह।

इस आंदोलन से नया नारा निकला। उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत ( टिकाऊ) से इस्तेमाल करो। यह आंदोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है। पर्यावरण संरक्षण के आंदोलन को आजीविका की रक्षा से जोड़ा।
पांडुरंग हेगड़े का कहना है कि यह आंदोलन किसी संस्था, व्यक्ति का काम नहीं, यह जनसाधारण का आंदोलन था, जो आज भी कई रूपों में जारी है। गांव-गांव संपर्क, पदयात्राएं, रैली और जुलूस निकले, लेकिन यह सभी स्थानीय लोगों के सहयोग, संसाधन व भागीदारी से हुए।

अप्पिको के साथ दक्षिण भारत में पर्यावरण बचाने के लिए कई और पहल हुई हैं, जिसमें पांडुरंग हेगड़े ने महती भूमिका निभाई है। हालांकि कई पहलों में इस आंदोलन को सफलता भी नहीं मिली, लेकिन फिर भी यह मुहिम जारी है। पांडुरंग हेगड़े ने पर्यावरण की जागरूकता की इस मुहिम को रचनात्मक गतिविधियों के साथ जोड़ा, नाटक व गीतों का भी इसमें इस्तेमाल किया।

जैव विविधता की एक कड़ी में मधुमक्खी बचाने की पहल की जा रही है। इसके लिए हनी फेस्टिवल ( शहद मेला) का आयोजन किया जाता है। इस मेले में युवा बड़ी संख्या में जुड़ते हैं और मधुमक्खी व जैव विविधता क्यों जरूरी है, इस पर विस्तार से बात होती है। इसमें मधुमक्खी की देशी प्रजातियों को बचाने पर जोर दिया जाता है।

चिपको और अप्पिको अब वन संरक्षण का पर्याय बन गए हैं। इससे प्रेरणा लेकर कई जगहों पर लोग पेड़ों को बचाने के लिए आगे आए हैं। पांडुरंग, इसकी पहचान और चेहरा भी माने जाते हैं। अप्पिको से शुरूआत के बाद छह राज्यों में पश्चिमी घाट बचाओ आंदोलन भी चल रहा है, जो पर्यावरण बचाने की महत्वपूर्ण पहल है।

पांडुरंग हेगड़े अब देश-दुनिया में पर्यावरण जागरूकता के लिए जाने जाते हैं। उन्हें विदेश के कई देशों में जाने का मौका भी मिला है। वहां के पर्यावरण और जनजीवन को देखने का करीब से देखने का मौका मिला है। उनका मानना है कि हमारे देश में जितनी विविधता है, उतनी ही विकल्पों की भी विविधता है। यहां कई रूपों में समाज, व्यक्ति व संस्थाएं विकल्प गढ़ने की कोशिश कर रही हैं। हर क्षेत्रों में यह विकल्प उभर रहे हैं, जो उम्मीद जगाते हैं।

अप्पिको आंदोलन अहिंसक पर्यावरण का आंदोलन था, जो आज भी अलग- अलग तरह से जारी है। इस आंदोलन ने पर्यावरण रक्षा को लोगों की आजीविका की रक्षा से जोड़ा। गांव के टिकाऊ जीवन पद्धति व टिकाऊ विकास, गांवों की आजीविका और दीर्घकालीन दृष्टि से पर्यावरण बचाने की राह अपनाई। अप्पिको आंदोलन का पर्यावरण रक्षा में एक महत्वपूर्ण योगदान है, जो अनुकरणीय व प्रेरणादायक है। लेकिन क्या सचमुच इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार हैं?

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