आदिपुरुष काण्ड और भक्ति का ढोल
पिछले शुक्रवार 16 जून को रिलीज हुई 600 करोड़ की फिल्म 'आदि पुरुष' के टपोरी संवादों पर हिंदी भाषी भारत में हुई चर्चा, उन पर आई प्रतिक्रियाओं के दो आयाम हैं;
- बादल सरोज
हनुमान सचमुच की मुश्किल में हैं । इनका पूरा गिरोह न जाने हनुमान जी के पीछे हाथ पांव धोकर क्यों पड़ा है ? पहले उनके नाम पर एक गुंडा गिरोह बनाया, उसके बाद उनकी निर्मल छवि को भयानक डरावनी पहचान देकर हिंदुत्व की आई डी बनाई । इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो अभी कुनबे के ब्रह्मा जी ने इन्हें कर्नाटक की सारी सीटों से चुनाव ही लड़वा मारा । बजरंग दल को ही बजरंग बली साबित करते हुए मोदी स्वयं जय बजरंग बली के नारे से अपनी सभा शुरू करते थे और मतदाताओं से बटन दबाने से पहले बजरंग बली का नाम सुमिरन करने को भी कहते थे ।
पिछले शुक्रवार 16 जून को रिलीज हुई 600 करोड़ की फिल्म 'आदि पुरुष' के टपोरी संवादों पर हिंदी भाषी भारत में हुई चर्चा, उन पर आई प्रतिक्रियाओं के दो आयाम हैं । एक आयाम आश्वस्ति देता है और वह यह कि अभी, बावजूद सब कुछ के, भाषा के प्रति संवेदनशीलता और विवेक बचा हुआ है । आम हिन्दुस्तानी, एक सीमा से ज्यादा भाषाई छिछोरापन सहन करने की स्थिति में कमसेकम अभी तक तो नहीं पहुंचे हैं । यह अच्छी बात है - उम्मीद जगाने वाली बात है । दूसरा आयाम है इसका संवाद लेखक तक सीमित रह जाना । इस विमर्श का व्यक्ति केंद्रित हो जाना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करना रोग और विकार के सही निदान करना नहीं है । जब बीमारी और उसका अकारण ही पता नहीं चलेगा तो स्वाभाविक ही उपचार में भी मुश्किल जायेगी । इस लिहाज से इस प्रसंग को थोड़ा सतह से नीचे खंगालकर देखने की आवश्यकता है ।
यह हल्कापन सिर्फ मनोज मुन्ताशिर से 'गर्व से कहो हम शुक्ला हैं' हुए संवाद लेखक की कारस्तानी भर नहीं हैं । उनसे भी यह अनजाने में, अनचाहे नहीं हुआ, इसे तो खुद शुकुल जी स्वीकार कर चुके हैं । इस विधा में अपने से भी बड़े वाले अर्नब गोस्वामी से उसके टीवी पर हुई हुई सार्वजनिक बात चीत में उन्होंने कबूला कि 'हां, बिलकुल । ये कोई भूल नहीं है । बहुत सोच-समझकर बजरंग बली के डायलॉग लिखे गए हैं । हमने जानबूझकर संवाद सरल किए हैं । क्योंकि फिल्म के सभी किरदार एक ही तरह की भाषा नहीं बोल सकते । इनमें विविधता होनी चाहिए ।'
वे यही तक नहीं रुके - उन्होंने डेढ़ दो हजार साल की रामायण वाचक पाठन परम्परा को भी अपने स्तर के अनुरूप नीचे दर्जे पर लाकर खड़ा कर दिया और दावा किया कि 'हम सब रामायण को कैसे जानते हैं? हमारे यहां कथा-वाचन की परम्परा है । एक तो पढ़ने की परम्परा है और दूसरी वाचन की । मैं एक छोटे से गांव से आया हूं । हमारे यहां दादियां-नानियां जब रामायण की कथा सुनाती थीं, तो ऐसी ही भाषा में सुनाती थीं । जिस डायलॉग का आपने जिक्र किया, इस देश के बड़े-बड़े कथावाचक और संत ऐसे ही बोलते हैं । मैं पहला शख्स नहीं हूं, जिसने ये डायलॉग लिखा है ।'
वे किन संतों और प्रवचनकर्ताओं का जिक्र कर रहे हैं इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया/अपनी विद्रूप अश्लीलता के लिए उन्होंने उन दादियों-नानियों को भी लपेटे में ले लिया जिनका काम भाषा बिगाड़ने का नहीं बोल और वर्तनी सुधारने का होता था, होता है । फिर बंदे ने यह कला कहां से सीखी होगी ? बहरहाल, लोग शुकुल जी के लिए नहीं बल्कि इसलिए परेशान हैं कि इनने अपने बोल बिगाड़े सो बिगाड़े बजरंगबली हनुमान के भी बिगाड़ दिए।
हनुमान सचमुच की मुश्किल में हैं । इनका पूरा गिरोह न जाने हनुमान जी के पीछे हाथ पांव धोकर क्यों पड़ा है ? पहले उनके नाम पर एक गुंडा गिरोह बनाया, उसके बाद उनकी निर्मल छवि को भयानक डरावनी पहचान देकर हिंदुत्व की आई डी बनाई । इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो अभी कुनबे के ब्रह्मा जी ने इन्हें कर्नाटक की सारी सीटों से चुनाव ही लड़वा मारा । बजरंग दल को ही बजरंग बली साबित करते हुए मोदी स्वयं जय बजरंग बली के नारे से अपनी सभा शुरू करते थे और मतदाताओं से बटन दबाने से पहले बजरंग बली का नाम सुमिरन करने को भी कहते थे । यह बात अलग है कि कन्नड़ भाषी रामायण हम्पी के पास की जिस जगह, अन्जनाद्री को हनुमान की जन्मस्थली बताती है उस सहित जिले और करीब की छह में से पांच सीटों पर भाजपा की करारी हार हुई, एक भी बमुश्किल हजार वोट के अंतर से जीती ।
इसके पहले यह पूरा कुनबा हनुमान की अपनी अपनी जन्मपत्री लिए अपने अपने हिसाब से उनकी जाति बताने में लगा रहा । राजस्थान के भाजपा विधायक ज्ञानदेव आहूजा ने हनुमानजी को घोटा वाला सांड बताया, भाजपा नेता केंद्रीय मंत्री सत्यपाल चौधरी ने कहा कि हनुमानजी आर्य थे । इधर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रहस्योद्घाटन किया कि हनुमान जी दलित थे तो उधर मप्र-छग दोनों में भाजपा प्रदेशाध्यक्ष रहे नंदकुमार साय ने हनुमानजी को आदिवासी बताया । भाजपा नेता व मंत्री चौधरी लक्ष्मीनारायण ने पक्की जानकारी दी कि हनुमानजी जाट थे, भाजपा सांसद हरिओम पांडे कुनबे के हिसाब से ज्यादा पॉलिटिकली करेक्ट खोज करके लाए और हनुमान जी को ब्राह्मण बताने के साथ साथ जटायु को मुसलमान बता मारा । इसी बीच भाजपा एमएलसी बुक्कल नवाब की प्रज्ञा एक बार पुन: जागृत हुई और उन्होंने फरमाया कि हनुमानजी मुसलमान थे ।
लाला रामदेव ने योग साधना शोध के बाद विश्व को बताया कि हनुमान जी क्षत्रिय थे । भाजपा के राज्यसभा सांसद गोपाल नारायण ने योगी आदित्यनाथ की बात काटते हुए हनुमानजी को दलित से भी नीचे बंदर बताया । अब जब हनुमान की लूट है लूट सके तो लूट चल ही रही थी तब जैन मतावलंबी भी कैसे पीछे रहते ; आचार्य निर्भय सागर जी ने बताया कि हनुमान जी और कुछ नहीं बल्कि जैन थे, हालांकि विवाद इसके बाद भी शेष रहा कि वे दिगंबर थे या श्वेताम्बर या अर्ध दिगंबर अर्ध लालाम्बर । यह वर्ष 2018 तक की भाजपा-खोजित हनुमान जाति चरितावली है । गुजरे 5 वर्षों में इन भाजपाई दावों में वे गुर्जर, यादव और कायस्थ भी हो गए और बालि कुर्मी बना दिए गए !! बहरहाल जो भी बनाया - टपोरी बनाने की हिम्मत हिमाकत किसी ने नहीं की ; इसके लिए शुकुल जी को ही अवतरित होना पड़ा ।
मनोज मुन्ताशिर शुक्ला का कहना है कि उन्होंने हनुमान से जो भी कहलवाया है वह 'आज कल के समाज की आम बोलचाल की भाषा है ।' उन्होंने तर्क-तूणीर से अमोघ ब्रह्मास्त्र छोड़ते हुए कहा कि 'पिछली रामायण 80 के दशक की भाषा में थी, 2023 में भाषा बदल चुकी है । अब सवाल यह है कि वे समाज और 2023 की आम बोलचाल की किसे मानते हैं ? वे दरअसल अपने समाज - कुनबे - की बात कर रहे हैं । उस कुनबे की बात कर रहे हैं जिसके सर्वोच्च नेता नरेन्द्र मोदी एक असामयिक और दु:खद मृत्यु की शिकार स्त्री के लिए '50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड' और एक गंभीर राजनीतिक हमले वाले हादसे में शहीद हुए पूर्व प्रधानमंत्री की जीवन संगिनी और एक बड़ी राजनीतिक पार्टी की प्रमुख एक महिला के लिए 'कांग्रेस की विधवा' जैसे घृणित जुमले इस्तेमाल करते हैं । एक जमाने में इन्ही की पार्टी के शीर्षस्थ जुगाडू प्रमोद महाजन उन्हें मोनिका लेविंस्की कह देते हैं । इन्ही के एक और नेता गिरिराज सिंह उनकी काली गोरी चमड़ी तक आ जाते हैं। ये सिर्फ कुछ मिसालें है - इस तरह की टिप्पणियों की तादाद इतनी ज्यादा है कि एक पूरा ग्रन्थ तैयार किया जा सकता है । इनके आगे शुकुल जी तो अभी ककहरा ही सीख रहे हैं ।
दीपिका के परिधान और शाहरुख के पठान पर आहत लोगों की भावनाएं हनुमान के हिस्से टपोरी संवाद थमाने से रत्ती भर भी आहत नहीं हुईं, उन्हें इनमे कुछ भी अनुचित नहीं लगा । बात बात पर टाकीजों पर पोस्टर फाड़ने वाले संघी गिरोहों को भी गुस्सा नहीं आया । इनका मुखपत्र जिसे कई बार ये अपना मुख और पत्र दोनों ही मानने से इनकार कर देते हैं वह ओर्गनाईजर और पांचजन्य भी कुछ नहीं बोला । स्वाभाविक भी है , क्योंकि यह असल में उनकीआम बोलचाल की भाषा है । देश भर में शोर मचने के बाद अब इन संवादों को हटाने की घोषणा से जरूर मुमकिन है कि उनकी भावनाएं आहत हो जायें ।
इसीलिये कृपया ध्यान दें कि खोट सिर्फ मनोज मुन्ताशिर शुक्ला में देखना नाकाफी होगा ; वे सिर्फ एक छोटी सी नाली हैं - ट्रिब्यूटरी हैं - गटर कहीं और है । जब तक इस गटर को नहीं सुखाया जाएगा तब तक दुर्गन्ध की सीपेज कभी बाढ़ तो कभी अंतर्धारा के रूप में प्रवाहित होती रहेगी और सिर्फ हजारों वर्ष में हासिल सभ्यता को ही नहीं बमुश्किल सदियों में संस्कारित भाषा और वर्तनी का शील और विवेक का संस्कार भी हरती रहेगी । और यह भी कि - जैसा कि सारे धर्मान्धों और धर्म-धंधेबाजों के बारे में साबित, प्रमाणित सच है - वे अंतत: उसी धर्म को कहीं ज्यादा नुक्सान पहुंचाते है जिसके नाम पर दूकान चला रहे होते हैं । इधर वाले मनोज शुक्ला मार्का लोग पंचतंत्र की कहानी के स्वामिभक्त बन्दर की तरह सोते समय राजा की मक्खी उड़ाने के लिए तलवार का इस्तेमाल कर उनकी छवि को ही घायल कर रहे हैं जिनकी भक्ति का ढोल पीटकर पैसा बटोर रहे हैं । ऐसे में तो आदिपुरुष काण्ड ही हो सकता था, सो हुआ है ।
(लेखक सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा)