राहुल गांधी विपक्ष का सबसे अहम चेहरा : सीताराम येचुरी
येचुरी की डीबी लाइव से आखिरी बातचीत। वामपंथ की कमज़ोरियां, भाजपा और दक्षिणपंथ के खतरनाक उभार का संकट, बंगाल की राजनीति और ममता की रणनीति, विपक्षी एकता जैसे सवाल
देश में संगठित वामपंथी आंदोलन के सौ साल पूरे हो चुके हैं। 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था। आम जनता के हितों के अलावा एक गैर बराबरी के समाज की परिकल्पना के साथ आगे बढ़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां वैचारिक तौर पर हमेशा से मज़बूत रही हैं। जन संघर्षों के साथ आगे बढ़ी हैं। लेकिन उनकी तमाम कमज़ोरियां भी रही हैं जिनकी वजह से आज ये पार्टियां भारतीय राजनीति में हाशिए पर पहुंच गई हैं। किसी ज़माने में सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी बन चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा (सीपीएम) के पास अब कोई मज़बूत नेतृत्व नहीं बचा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई की हालत भी वही है। भाकपा माले कुछ हद तक ज़मीनी संघर्षों के साथ आज भी बिहार के कई हिस्सों में मज़बूत दखल रखती है। एक दशक से भी ज्यादा वक्त तक माकपा के महासचिव रहे सीताराम यचुरी के निधन के बाद पार्टी के नए महासचिव बनाए गए हैं एम ए बेबी। अपने निधन से चंद दिनों पहले सीताराम येचुरी ने कम्युनिस्ट पार्टियों की कमज़ोरियों और मौजूदा राजनीतिक स्थितियों पर देशबंधु समूह के चैनल डीबी लाइव के साथ विस्तार से बात की थी। पेश है सीताराम येचुरी से अतुल सिन्हा की वह आखिरी बातचीत जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टियों की कमजोरियों से लेकर मोदी सरकार और दक्षिणपंथ के जबरदस्त उभार की चुनौतियों पर बहुत ही अहम बातें कही थीं।
सवाल - पिछले एक दशक में देश में जिस तेजी से दक्षिण पंथ का जो उभार हुआ उसमें वामपंथी पार्टियों और खासकर सीपीएम को कौन-कौन सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा? आपको भी पार्टी महासचिव बने एक दशक से ज्यादा हो गए, इस दौरान पार्टी की क्या स्थिति रही?
देखिए सबसे पहली चुनौती यह है कि दक्षिणपंथी ताकतों के निशाने पर हर समय वामपंथी पार्टियां ही रहती हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी क्योंकि सबसे बड़ी वामपंथी पार्टियों में से है सो हमें निशाना बनाकर हमारे ऊपर हमले इन 10 सालों में बहुत तेजी के साथ बढ़े हैं। हम इसका सामना कर सके हैं और अभी भी टिके हुए हैं एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा और बहुत कुछ होना चाहिए था वो नहीं हो पा रहा। हमारी जो कमजोरियां है उसको दूर करने की कोशिश में लगे हुए हैं। हमें अपने आप को और मजबूत करने के लिए जो कदम उठाने हैं वो आने वाले वक्त में उठाएंगे।
सवाल - सीपीएम शुरू से ही चुनावी राजनीति में रहा है और एक समय ऐसा था जब पार्टी बहुत ही मजबूत स्थिति में कई राज्यों की सत्ता में रही, कम से कम चार राज्यों में तो वाममोर्चा की सरकारें रही हैं, अब धीरे-धीरे सिमटकर वो केरल तक रह गई है और वहां भी फिलहाल कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं लगती। इसकी क्या वजह है?
देखिए चुनावी राजनीति में जब भी वामपंथी और खासतौर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बात आप करते हैं तो उसके मापदंड दो होने चाहिए। एक है चुनावी और दूसरी है संघर्षों के आधार पर। देश के एजेंडा को प्रभावित करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का चुनावी प्रभाव भी तभी बढ़ पाया जब हम जन आंदोलन और वर्गीय आंदोलनों को तेज करके उन सवालों को सामने ले आए। बंगाल के अंदर हमें लोगों ने इसलिए स्वीकार किया क्योंकि हमने भूमि का सवाल उठाया, भूमि सुधार को लेकर लड़ते रहे। जब भी बड़े बड़े भूमि संघर्ष हुए उस आधार पर हमें चुनावी सक्सेस मिलता गया। केरल में भी अगर आप देखेंगे तो वहां भूमि सुधार के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में रिफॉर्म, हेल्थ के क्षेत्र में रिफॉर्म हुए। सबसे पहले जब कम्युनिस्ट की सरकार वहां बनी तब से लेकर इन सभी सवालों के पर बहुत बड़े संघर्ष चले। तो संघर्षों को और चुनावी सक्सेस को आप अलग करके नहीं देख पाते हैं। जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी का सवाल है चुनाव में अगर एक समय में उपलब्धि रही है तो संघर्ष कमजोर पड़ते ही हम नाकाम होने लगे। जाहिर सी बात है कि संघर्ष कमजोर पड़े तो चुनावी नतीजे भी कमजोर हुए। दूसरी बात यह है कि एक और मिसमैच नज़र आता है। वो यह है कि संघर्ष बरकरार हैं और कई जगहों पर वो बढ़ भी रहे है लेकिन वो चुनाव के नतीजों में तब्दील नहीं हो रहे। अब यह क्यों हो रहा है। यहां पर अगर आप देखेंगे पिछले करीब 20 सालों से यह जो सामाजिक शोषण का सवाल है वो देश की राजनीति में एक अहम सवाल बनकर आ गया। सामाजिक न्याय का जो सवाल था इसे आर्थिक क्षेत्र में इंटीग्रेट करने की जरूरत थी, वह नहीं किया गया। आर्थिक पैमाने पर जब संघर्षों का इंटीग्रेशन ठीक नहीं होता तो अलगाव की स्थिति पैदा होती है औऱ लोगों के अंदर निराशा पैदा होती है। इसलिए इस अलगाव को दूर करना बहुत जरूरी है। हालांकि ये अलगाव आज से नहीं है। इसी वजह से 20 साल पहले तमाम वामपंथी पार्टियों ने गठबंधन की सरकारों और गठबंधन की राजनीति में खुद को शामिल किया और उसमें एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम लेकर चलने की बात की।
जब पार्टी की कमान हरकिशन सिंह सुरजीत जी के पास थी, तब से ही यह बात चल रही है और उस समय ये मुहिम काफी हद तक सफल भी हुई। आज वही स्थिति कुछ हद तक इंडिया गठबंधन तक पहुंची है। तो क्या लगता है कि वो जो गठबंधन उस वक्त था और आज जो बना है उसमें क्या फर्क है? तब और अब की राजनीतिक स्थितियों में भी तो फर्क है?
तब और आज के बीच मुख्य फर्क यह है कि इन 10 सालों में हिंदुत्व का प्रभाव और ऐसी ताकतों की मज़बूती बढ़ी है, लोगों की धार्मिक भावनाओं को उकसाने और बढ़ाने का काम तेज़ हुआ है। पहले सामाजिक न्याय और आर्थिक सवालों पर, अन्याय, आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्ष होता था, इन सवालों पर मिलकर आवाज़ उठती थी, तब का एजेंडा अलग था। लेकिन पिछले 10 सालों में, खास तौर से 2014 के बाद लोगों की मानसिकता बदल गई है। मतलब, व्यापक तरीके से हिंदुत्व का जो उभार दिख रहा है, वह खतरनाक है। सारे ज़रूरी सवाल हाशिए पर चले गए हैं। चाहे सामाजिक न्याय का सवाल हो या आर्थिक शोषण का सवाल, पहले इन्हें लेकर संघर्ष होते थे, लेकिन जब चुनाव का टाइम आता है तो ऐसे मुद्दे बैकग्राउंड में चले जाते हैं। हम बेरोजगार भी हैं, भूखे भी हैं लेकिन वोट डालेंगे हिंदू को बचाने के नाम पर। ये जो मानसिकता अचानक से बढ़ी, अचानक तो नहीं कहेंगे, धीरे-धीरे ही.. संघ परिवार ने जिस तरह से अपना एक नेटवर्क बनाया, उसका नतीजा है।
हमेशा यह कहा जाता रहा है कि दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों ही काडर बेस्ड रहीं। वामपंथ के लिए खास तौर से शुरू से कहा गया है कि वामपंथ एक मजबूत काडर आइडियोलॉजी और थिंकिंग बेस्ड पार्टी रही। वो भी रहे लेकिन उनका काडर इस तरह से कैसे फैल गया और वामपंथियों के काडर में क्यों इतना भटकाव, इतना अलगाव और यहां से पलायन करने की स्थिति पैदा हुई..?
देखिए, इसके अनेक कारण हैं। और यह जो खतरा है, वह अचानक पैदा नहीं हुआ। यह खतरा तो अपने राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जुड़ा रहा है। इसकी पैदाइश के साथ ही ये जुड़ा हुआ है। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन ने स्वीकार किया और परिकल्पना की कि आजाद भारत का चरित्र क्या होगा। जैसे, एक धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र वाला गणराज्य ही भारत का चरित्र होगा। लेकिन तब भी आरएसएस की विचारधारा वाले हिंदू राष्ट्र को लेकर टकराव तो चलता ही रहा। यह राष्ट्रीय आंदोलन के समय से यानी 100 साल से चल रहा है। लेकिन यह जो मौका उनको मिला 2024 में उसका इस्तेमाल करते हुए इस पुरानी भावना को फिर से आगे बढ़ाने का उनको मौका मिला। इससे उनका प्रभाव और इसका असर बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ा। इसके बढ़ने की वजह से इसका इंपैक्ट जो है वामपंथी आंदोलन पर, सामाजिक न्याय, आर्थिक शोषण के सवालों पर भी पड़ने लगा। यह सबसे बड़ा परिवर्तन है उस समय और आज के बीच में। अब जो इंडिया गठबंधन बना इस बार 1924 में उसका भी जो रुझान और विचारधारा है वो यही है कि भारत का चरित्र धर्मनिरपेक्ष औऱ लोकतांत्रिक ही रहेगा और उसी सवाल को लेकर यह समहति बनी कि अपने संविधान को बचाना है, जनतंत्र को बचाना है। यह बदलाव कुछ तो आपको नजर आ रहा होगा। खासकर चुनाव के नतीजों से कुछ उम्मीद तो जरूर बंधी है कि जनता ने बेशक फिर से एनडीए या मोदी की सरकार बनवा दी, लेकिन अकेले उन्हें बहुमत नहीं दिया। जाहिर सी बात है कि आज के दौर में अगर हम कहें तो राहुल गांधी एक बहुत ही इंपॉर्टेंट चेहरा हैं पूरे गठबंधन का।
इस वक्त क्या आपको लगता है कि राहुल गांधी की राजनीति जिस दिशा में जा रही है, जितने आक्रामक तरीके से वो लोगों के बीच आ रहे हैं, वही आक्रामकता इंडिया गठबंधन के सभी घटक दलों में होनी चाहिए?
बिल्कुल होनी चाहिए। क्योंकि पूरे इंडिया गठबंधन के विचार भी वही है जो राहुल गांधी के हैं। आज अगर आप देखेंगे पार्लियामेंट के अंदर बहुत जमीन आसमान का फर्क है। पिछले 10 साल में और अब जो बहस चल रही है, चाहे बजट पर हो या राष्ट्रपति जी के अभिभाषण पर हो, इन बहसों में इंडिया गठबंधन के घटक दलों की भागीदारी मजबूत हुई है। उन सबके भाषण अगर आप सुनेंगे तो एक बहुत बड़ा अंतर है और यह अंतर जो है वो क्वालिटेटिव अंतर है। वो जो सवाल उठा रहे हैं, इसी से हम समझ सकते हैं कि यह एक बहुत बड़ा प्रभाव आज पड़ रहा है देश में। इसके नतीजे आगे निकलेंगे। इस चुनाव में भी अगर वो बाकी धांधलियां नहीं होतीं तो नतीजे कुछ और होते। जैसे इलेक्शन कमीशन का रोल जो रहा, सेंट्रल एजेंसीज का रोल जो रहा, गोदी मीडिया का रोल जो रहा या पैसे का प्रभाव जो रहा अगर इन सबको हटाकर निष्पक्ष चुनाव होते तो यह सरकार में होते ही नहीं।
अभी एडीआर ने जिस तरह से खुलासे किए कई सारे उससे तो बहुत सारी धांधलियां बहुत साफ साफ नज़र आ रही हैं।
बिल्कुल। हमारी पार्टी ने खुद जो थोड़ा बहुत अंदाज या अनुमान लगाया था, हमारे पास कोई इतना बड़ा तंत्र तो है नहीं फिर भी हमने अनुमान यही लगाया था कि 5.14 करोड़ वोटों का फर्क जो पड़े और जितने की गिनती हुई वो 5.14 करोड़ का फर्क है। अब बताइए, हमारे पूरे के पूरे वोट जो पड़े वो 10 फीसदी से ज्यादा हैं। इससे तो पूरा का पूरा नतीजा ही बदल जाता। लेकिन अब इसकी जांच कौन करेगा...
लेकिन सवाल यह है कि जब सरकार में जिस तरह से बीजेपी ने अपनी मजबूत दखल पूरे ब्यूरोक्रेसी पूरे सिस्टम में बना रखा है, ऐसी स्थिति में क्या आपको लगता है कि आने वाले वक्त में चीजें ऐसे बदल सकती हैं, क्या यह पूरा सिस्टम जो कहीं न कहीं उन्होंने बना दिया है वह चरमराएगा और फिर कहीं ना कहीं जो लोग हक की आवाज उठा रहे हैं, उसका असर हो पाएगा?
बिल्कुल होगा। लेकिन चीजें दुरुस्त करने में समय लगेगा। लेकिन बदलाव जरूर होगा क्योंकि अब यह चल नहीं सकता इस तरीके से। सब चीज पर आपका कब्जा है - इलेक्शन कमीशन, सेंट्रल एजेंसियां, सभी फाइनेंशियल सेक्टर यानी सब चीजों के ऊपर आपका टोटल कंट्रोल है और एक सर्विलांस स्टेट बना रखा है आपने। पर्सनल लिबर्टी को खत्म करने वाली बातें और नए नए कानून जो ले आ रहे हो आप, अपना आईटी का जो कानून ला रहे हैं और वो जो पोस्टल बिल आया है.. तो ये सभी चीजें जो हैं एक कंट्रोल... एक टोटैलिटेरियन स्टेट बनाने की तैयारी में हैं। आधा तो खड़ा कर चुके हैं, अब पूरा खड़ा करने की कोशिश में हैं। अब इस चुनाव के नतीजों के चलते वो अब उस तरीके से संभव नहीं होगा जो पहले उनकी कोशिश थी।
अब जैसे चुनाव से पहले जब भी कैंपेन में तमाम नेता लोग गए चाहे वो कांग्रेस के हो चाहे वो लेफ्ट के हों, इलेक्टोरल बॉन्ड का बहुत ज़रूरी सवाल उठा, और बहुत ही बड़ी धांधली सामने आई। तो संसद के अंदर यह सारी चीजें फिर से क्यों नहीं उठ रहीं?
हमारी पूरी कोशिश है उठाने की। हम एकमात्र पॉलिटिकल पार्टी हैं जिन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड का एक पैसा नहीं लिया और वह याचिका मैंने खुद दर्ज करवाई थी सुप्रीम कोर्ट में जब इलेक्टोरल बॉन्ड आए थे। और जब इलेक्टोरल बॉन्ड लाए गए थे गैरकानूनी तरीके से मनी बिल के रूप में उसको जब राज्यसभा में जब ले आए थे, तब में सांसद सदस्य था तो उस समय मैंने उसका कड़ा विरोध किया था। और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट गए। सुप्रीम कोर्ट ने बाद में कहा कि किसी राजनीतिक दल को वो पेटिशनर के रूप में स्वीकार नहीं करेगी। सिर्फ वो एक्सेप्शन दिया सीपीएम को। और दिया इसलिए क्योंकि यह एकमात्र पार्टी है जिसने पहले दिन से इसका विरोध किया और एक पैसा उससे स्वीकार नहीं किया और जितनी भी बातें हमने वहां कहीं, सुप्रीम कोर्ट ने उसे एंडोर्स किया। अब उसका फॉलो अप करने की जरूरत है।
क्योंकि देखिए बहुत सारे ऐसे मुद्दे रहे जिन पर अभी तो खुल के बात होनी चाहिए और उन्हें जनता तक जाना चाहिए जहां से आपका मैंडेट आता है। वहां तक ये बातें जानी चाहिए जैसे पीएम रिलीफ फंड के नाम पर कोरोना के वक्त में जितने पैसे लिए गए उसका कोई हिसाब किताब नहीं... इलेक्टोरल बॉन्ड हो ही गया, इसके अलावा तमाम एजेंसियों का जो दुरुपयोग हो रहा है, उसके बारे में सब लोग बोल भी रहे हैं... बावजूद इसके वो एजेंसियां एक्टिवली अपना काम जो उनके इशारे पर करना है वो करती हैं.. तो क्या ऐसी एजेंसीज में ऐसे लोग नहीं हैं जो इंटरनली इस चीज को कहीं ना कहीं काउंटर करें या कहे कि ये गलत है?
बिल्कुल हैं। लेकिन उनका मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। अभी तक डरे पड़े हैं। वही होता रहा है पिछले 10 साल में। जो भी विरोध करेगा उसके ऊपर कारवाई। अब उनका मनोबल बढ़ाने की जरूरत है और मेरे हिसाब से वो बढ़ रहा है ये चुनाव नतीजों के बाद वो अपने आप में बढ़ रहा है और अचानक आप देखेंगे एक बहुत बड़ा इसके अंदर फर्क आएगा
हम अब थोड़ा सा पश्चिम बंगाल की तरफ चलते हैं पश्चिम बंगाल में.. ऐसा क्या था जो इतना बड़ा लेफ्ट का किला जीरो हो गया और ममता बनर्जी आज की तारीख में इतनी मज़बूत हो गईं ? ठीक है कि आपने भूमि का सवाल उठाया, ऐसी तमाम बातें आपने कहीं लेकिन क्या वह सारे सवाल अब खत्म हो गए? क्यों ममता बनर्जी को लोग लेफ्ट के मुकाबले इस मजबूती के साथ पसंद करते हैं?
देखिए। असली कारण आप देखना चाहते हैं कि क्यों हमारी यह हार हुई बंगाल में... वहां पर दरअसल आप देखेंगे कि जो परमाणु डील हुई अमेरिका के साथ, उसके चलते हमने यूपीए से जो समर्थन वापस लिया, उसके चलते ऐसा हुआ। उसके बाद कांग्रेस और तृणमूल के बीच में एक चुनावी गठबंधन बना बंगाल में। अब वो सिर्फ कांग्रेस और तृणमूल तक सीमित नहीं रहा, जितने भी वामपंथी विरोधी ताकतें थीं... आरएसएस से लेकर एकदम जो कट्टर माओवादी ग्रुप्स थे, वो सब इकट्ठा हो गए। एक बहुत बड़ा गैंगअप बना। तो कारण वहां पर चुनाव हरने का यही रहा था कि इंडेक्स ऑफ अपोजिशन यूनिटी, वो एक हो गया बंगाल में।
ये तो आप उस समय की बात कर रहे हैं। लेकिन क्या इतने सालों में ममता बनर्जी ने इतना कुछ कर दिया है वहां जो कि सीपीएम या ज्योति बसु के टाइम में भी नहीं हो पाया था?
बिल्कुल नहीं। वहां पर जो किया और अभी जो चल रहा है, वो यही है कि एक आतंकी राजनीति चल रही है। आज भी आप लोकल बॉडी इलेक्शन देख लीजिए। आप जनतांत्रिक तरीके से कोई काम नहीं कर सकते वहां। आज राजनीतिक हिंसा एक किस्म की शब्दावली बन गई है बंगाल में।
लेकिन उसके लिए आप सिर्फ ममता बनर्जी को जिम्मेदार मानते हैं या बीजेपी को भी?
अब बीजेपी को भी मानते हैं। लेकिन पहले जब वो शुरु हुई थी हमलोगों के खिलाफ वो यही था। देखिए, 300 से ज्यादा लोगों की हत्या होती है। गांव गांव में चुन चुनकर प्रमुख लोगों को आप एलिमिनेट करते हैं। पार्टी की जो लिंक होती है लोगों के साथ, अगर वो लिंक को आप बिगाड़ते जाओगे तो जाहिर है कि पार्टी का जो ग्रिप है वो कमजोर होता जाएगा। वही हुआ बंगाल में। और प्रशासन का दुरुपयोग। अब हम लोग तो बड़े नेक मतलब लोग थे, कि कांस्टिट्यूशन है, इंडिपेंडेंस है, लॉ एंड ऑर्डर इंफोर्समेंट का तो उन लोगों ने देखिए, क्या हाल कर दिया है। इनका दुरुपयोग करना ना हमारे बस की है, ना हमारी चेतना में है। लेकिन आजकल तो वही हो रहा सब जगह। तो यह सब चलने की वजह से जो हालत जो हुई है बंगाल में वो ये है कि हम संगठनात्मक तरीके से कमजोर होते गए औऱ जितना संगठनात्मक तरीके से कमजोर होते गए, हमारे ऊपर हमले और बढ़ते गए। अब इससे रिकवर करना थोड़ा मुश्किल था। अब उस रिकवरी की बाकी लोगों के साथ मिलकर एक शुरुआत हो रही है। हालांकि उस समय ही एक किस्म से बीजेपी और तृणमूल के बीच टकराव और तनाव की स्थिति है। एक कंफ्रंटेंशन की राजनीति दोनों ही चाहते हैं। दोनों चाहते हैं कि यह बाइपोलर हो और दोनों चाहते हैं कि यही दिखाया जाए कि असली चुनौती जो है दोनों के बीच में ही है और उस तरह का माहौल खड़ा किया उसके अंदर थर्ड फोर्स तो सिमट ही जाता है। आप तो जानते ही हैं कि अपने देश में पॉलिटिक्स में एक पोलराइज वातावरण होता है तो वहां पर थर्ड फोर्स जो है वह सिमट जाता है और वही हुआ बंगाल में।
तो अब जो यह स्थिति बनी है, खासतौर से एंटी बीजेपी मुहिम जब से चली और मोदी सरकार हटाने का जो अभियान चला, उसमें फिर सब साथ आए, इंडिया गठबंधन भी है, कहीं ना कहीं ममता बनर्जी का भी साथ है, तो यह जो तालमेल है, उसे लेकर लेफ्ट का क्या नजरिया है?
देखिए, लेफ्ट ने कहा था जहां तक इंडिया का सवाल है और दिल्ली की सरकार का सवाल है, बीजेपी को हटाना और आज के दिन इस धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र को, गणराज को, संविधान को बचाना अनिवार्य है। इसके लिए जो भी तैयार है इसके साथ चलने के लिए हम भी तैयार हैं। लेकिन अगर राष्ट्रीय स्तर पर तैयार हैं, इसका मतलब ये नहीं कि राज्यों में भी पूरी तरह यही स्थिति होगी। हर स्टेट में परिस्थिति अलग अलग है तो उस हिसाब से वो चलेगी और वही हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस को भी आप देख ही रहे हैं। कभी हां कभी ना। कभी इंडिया के साथ तो कभी नहीं। अब वो जब उनको सूट करता है तो हां, नहीं तो ना। अब देखेंगे कि कितनी दूर तक चल सकते हैं।
अब ये जो सरकार है जो कि बहुमत में नहीं है एनडीए की सरकार है। बीजेपी के सारे दावे फेल हो चुके हैं। इस सिचुएशन में भी जो यह तीसरी पारी है मोदी की, उसी अग्रेशन के साथ अभी तक चल रही है। क्या लगता है कि उसका यह अग्रेशन या उसका यह फासीवादी तरीका आने वाले वक्त में भी बना रहेगा या जो इंडिया गठबंधन के दल इकट्ठे हुए, एक मजबूत विपक्ष के तौर पर, इसे रोक पाएंगे?
सवाल यह है कि वो नियमों के आधार पर चलेंगे या नहीं चलेंगे। वो तो पहले भी नहीं चल रहे थे, लेकिन अब उनको चलाना पड़ेगा। वो दबाव जो है अब इंडिया गठबंधन की तरफ से पड़ रहा है। अभी तक उनकी दादागिरी थी। अभी भी कुछ नहीं बदला। वही कैबिनेट है। वही हमारे नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर हैं। वही प्रिंसिपल सेक्रेटरी है पीएम की। मतलब सब कुछ वही चल रहा है। ले दे कर सब कुछ आपका वही है। तो कुछ बदला नहीं है जबकि आपने 92 सिटिंग सीट्स आप हारे। हां, 29 नई सीटें आपने जीतीं। फिर भी आप पिछली बार से 63 कम हैं। ये मामूली बात नहीं है। 20 फीसदी नुकसान हुआ है भाजपा को इस बार। इसके बावजूद अब एनडीए को भी मिला के वो जो है सिर्फ 20 सीट का बहुमत है। अब यह कब तक चलेगी कहा नहीं जा सकता। अब चंद्रबाबू नायडू और नितीश कुमार जी को ही ले लीजिए। अगर ये दोनों हटे तो उसकी रीढ़ की हट्टी हट जाती है। चंद्रबाबू नायडू जी हों या नितीश कुमार हों उनका बेसिक फोकस है उनके राज्य। उनको जो चाहिए पहले वह हासिल करेंगे। वो अभी फायदा ले रहे हैं। बाद में स्थितियां बदल सकती हैं।
अब थोड़ा सा पार्टी की जो अंदरूनी हालत है, आपकी जो कार्यशैली है उस बारे में बात कर लेते हैं। आपके जितने फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन हैं - चाहे वो स्टूडेंट विंग हो, मजदूरों, किसानों के संगठन हों, महिलाओं का संगठन हो, पहले जिस तरह से यह फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन काम कर रहे थे क्या अभी उनके अंदर वह ऊर्जा व ताकत नज़र आ रही है.. उन्हें फिर से पहले की तरह सक्रिय करने और उनमें ऊर्जा भरने के लिए पार्टी क्या कर रही है?
वो हो रहा है। बीच में लग रहा था कि कुछ ठहराव जैसी स्थिति आ गई थी, लेकिन अब वो स्टेज पार हो चुका है। एक नए किस्म की ऊर्जा आप देखेंगे छात्र और नौजवानों में आ चुकी है। खास तौर से नई ऊर्जा जो है वह किसानों और हमारे खेत मजदूर संगठनों तक पहुंची है। किसानों का इतना बड़ा संघर्ष इसी वजह से हुआ। और यह जो पूरा का पूरा निजीकरण का ड्राइव चल रहा है इसके खिलाफ मजदूर वर्ग खड़ा है, ट्रेड यूनियन मूवमेंट तेज हो रहे हैं। यह बदलाव आ रहा है। हम समझते हैं कि इसका बहुत बड़ा योगदान होगा आने वाले दिनों की राजनीति में।
अब आखरी सवाल। जो लेफ्ट यूनिटी की बात आज से नहीं पिछले कई दशक से चलती रही है, क्या जो उनमें फिर से किसी व्यापक एकता का कुछ फॉर्मूला है?
बिल्कुल सही कहा आपने। कई दशकों से यह टूट चल रही है। और जिन कारणों से यह टूट हुई वो कारण भी अब शायद जिंदा नहीं हैं। लेकिन अब किस तरीके से ये एकता हो वह तबतक संभव नहीं होगा जब तक सैद्धांतिक रूप से उन सवालों के ऊपर चर्चा करके आप कुछ नतीजे पर पहुंचो और वो चर्चा अगर अब शुरू करेंगे आप तो बहुत समय जाएगा। तो हमारा यह मानना यह है कि दो किस्म से ये एकता बन सकती है – एक तो ये कि ऊपर से नेता लोग जो हैं हैंडशेक करके अपस में जुड़ जाएं और ये ऐलान करें कि हम जुड़ गए। दूसरा तरीका ये है कि नीचे के स्तर पर, जन संगठनों के साथ उनके बीच में यह एकता बनते बनते संघर्षों में ऊपर को उठे। ये हम समझते कि ज्यादा टिकाऊ है। क्योंकि नेपाल में देख ही चुके आप कि कैसे ऊपर ऊपर हाथ मिलाए और देखिए बाद में अब कहां पर पहुंचे। उनको तब भी हम चेतावनी देते रहे थे क्योंकि उन पार्टियों के साथ काफी अच्छा तालमेल रहा है हमारा। हम कहते थे कि इस तरीके से नहीं हो पाएगा, नीचे के स्तर से बनाइए एकता। लेकिन अपने यहां अब ये नीचे के स्तर से बन रहा है। आप देख रहे हैं इस दौर में अब स्टूडेंट मूवमेंट हो, ट्रेड यूनियन हो, किसान आंदोलन हो, मतलब इन सब में ये एकता नीचे के स्तर से बन रही है। सब जगह कोऑर्डिनेशन कमेटी तो बन ही गई तो अब कहीं पर भी टकराव तो उस तरीके से नहीं है जो पहले हुआ करता था। तो हम समझते हैं कि आने वाले दिनों में यह नीचे के स्तर से और मजबूत होते हुए आगे बढ़ेगा।



