गीता प्रेस को सम्मान से किसका कल्याण

हिंदू धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन करने वाले संस्थान, गीता प्रेस, गोरखपुर को 2021 का गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा भारत सरकार ने की है;

Update: 2023-06-22 02:16 GMT

- सर्वमित्रा सुरजन

कल्याण निकालने वाले लोग किसे धर्मपरायण और किसे अधर्मी मानते हैं, यह उनका पैमाना हो सकता है। लेकिन यह समझना कठिन नहीं है कि उनका पैमाना उस सनातन धर्म के आधार पर बना था, जिसमें नेहरूजी या बाबा अंबेडकर फिट नहीं बैठते थे। और कई मामलों में गांधीजी भी, जिनकी धर्म की परिभाषा कट्टर हिंदुत्व की बिल्कुल नहीं थी।

हिंदू धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन करने वाले संस्थान, गीता प्रेस, गोरखपुर को 2021 का गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा भारत सरकार ने की है। इस साल यानी 2023 में गीता प्रेस की स्थापना के सौ साल भी पूरे हो गए हैं। एक शताब्दी के लंबे सफर में गीता प्रेस ने हिंदुत्व के प्रचार में एक तरह से कीर्तिमान ही स्थापित किया है। गीता प्रेस ने भगवद्गीता, तुलसीदास की कृतियों, पुराणों और उपनिषदों की करोड़ों प्रतियां बेचीं हैं। गीता प्रेस की मासिक पत्रिका 'कल्याण' की आज भी दो लाख से ज़्यादा प्रतियां बिकती हैं।

अंग्रेज़ी मासिक संस्करण 'कल्याण कल्पतरु' की एक लाख से ज़्यादा प्रतियां घरों तक पहुंचती हैं। आज के दौर में जब देश के कई छोटे अखबार, साहित्यिक-वैचारिक लघु पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं, क्योंकि उन्हें छापने का खर्च पूरा नहीं निकल पाता, छपाई के लिए अच्छे कागज, स्याही, मशीनों के खर्च के अलावा वितरण आदि का प्रबंध इतना कठिन हो गया है कि कई जाने-माने प्रकाशन बंद हो गए। तब गीता प्रेस का सौ सालों से निरंतर सफलतापूर्वक चलते रहना एक बड़ी उपलब्धि ही है। बहुत से प्रकाशन जो अब भी चल रहे हैं, उसमें बड़ा योगदान सरकार और निजी क्षेत्रों से आने वाले विज्ञापनों का है। लेकिन गीता प्रेस ने तो यहां भी कीर्तिमान स्थापित किया है कि इसकी पत्रिका में विज्ञापन ही नहीं लिए जाते हैं। इसके पीछे गांधीजी की प्रेरणा बताई जाती है।

पाठक जानते हैं कि गांधीजी पत्रकारिता को मिशन की तरह मानते थे, जिसका उद्देश्य जनकल्याण था। समाचारपत्र लाभ के लिए निकाला जाए, यह उनकी राय में अनुचित था। गांधीजी ने लिखा भी है कि किसी समाचार पत्र को लाभ कमाने के साधन के रूप में माना जाता है, तो परिणाम गंभीर कदाचार होने की संभावना है। 'कल्याण' का पहला अंक 1926 में प्रकाशित हुआ था, इसमें गांधी जी का लेख भी छपा था। 'कल्याण' के संपादक भाईजी यानी हनुमान प्रसाद पोद्दार यह अंक गांधीजी को भेंट करने गए थे। तभी गांधीजी ने उन्हें संभवत: यह सलाह दी थी कि कल्याण या गीता प्रेस से प्रकाशित होने वाली किसी पुस्तक में बाहरी विज्ञापन न प्रकाशित किया जाए, इससे कल्याण व पुस्तकों की शुचिता बनी रहेगी। इसका पालन गीता प्रेस आज भी करता है। गीता प्रेस ने गांधी शांति पुरस्कार में दी जाने वाली एक करोड़ रूपए की राशि को भी लेने से इन्कार कर दिया है।

गीता प्रेस को देश का यह प्रतिष्ठित सम्मान मिलने पर हिंदुत्व और सनातनी खेमे में चौतरफा प्रसन्नता का माहौल है। लेकिन कांग्रेस की टिप्पणी से इस प्रसन्नता में खलल पड़ गया है। दरअसल कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने लेखक-पत्रकार अक्षय मुकुल की किताब गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया का जिक्र कर कहा है कि इस किताब में महात्मा गांधी के साथ इसके संबंधों और राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक मोर्चों पर चल रही लड़ाइयों का पता चलता है। जयराम रमेश ने लिखा, 'यह फैसला असल में सावरकर और गोडसे को पुरस्कार देने जैसा है।'

जयराम रमेश की इस टिप्पणी पर जैसा कि अनुमान था भाजपा ने बौखला कर जवाबी हमले शुरु कर दिए। भाजपा प्रवक्ता शहजाद पूनावाला ने कांग्रेस को हिन्दू विरोधी करार दिया और कहा कि गीता प्रेस को यदि एक्सवाईजेड प्रेस कहा जाता तो वे इसकी सराहना करते लेकिन चूंकि यह गीता है, इसलिए कांग्रेस को समस्या है। वहीं मुख्तार अब्बास नक़वी ने कहा, 'उन्हें लगता है कि सारे नोबेल पुरस्कार, सारे सम्मान वो सिर्फ एक ही परिवार के घोसले में सीमित रहने चाहिए। गीता प्रेस ने देश के संस्कार, संस्कृति और देश की समावेशी सोच को सुरक्षित रखा है।' इन पलटवारों में कहीं भी कांग्रेस की चिंता का समाधान नहीं है, कि यह पुरस्कार असल में सावरकर और गोडसे को देने जैसा है। क्योंकि इनका मकसद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना था। सावरकर और गोडसे की विचारधारा के लोग देश में बाबरी मस्जिद को गिराकर राम मंदिर बना रहे हैं। संविधान की अवहेलना करते हुए बार-बार अखंड भारत बनाने की बात छेड़ी जा रही है।

संसदीय परंपराओं को दरकिनार कर राजतंत्र की पद्धतियों को पुर्नस्थापित करने की कोशिश हो रही है। सत्ता के लिए हिंदुत्व को संकीर्ण अर्थों में पेश कर राम-नाम का सहारा लिया जा रहा है और इसमें अब गांधीजी के भगवाकरण की नापाक कोशिश महसूस की जा सकती है। क्योंकि कांग्रेस की आपत्ति को सीधे गीता के अपमान से जोड़ा जा रहा है। ठीक वैसे ही, जैसे बजरंग दल को बजरंग बली का अपमान बताने का शिगूफा कर्नाटक में प्रधानमंत्री मोदी ने छोड़ा था।

गांधीजी भी देश में रामराज्य चाहते थे, लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में, यानी ऐसा भारत, जिसमें छोटे-बड़े का भेदभाव न हो, धर्म और जाति के झगड़े न हों, सत्ता का मकसद आखिरी पंक्ति के आखिरी व्यक्ति तक सुख पहुंचाना हो, उसकी आंख के आंसू को दूर करना हो। लेकिन सावरकर-गोडसे के अनुयायी जिस रामराज्य की बात करते हैं, उसमें न दूसरे धर्म के लोगों के लिए बराबरी का स्थान है, न जातिगत और लैंगिक भेदभाव को दूर करने की नीयत। बल्कि वे संविधान की जगह मनुस्मृति की लिखी बातों को अधिक महत्व देते हैं। गीता प्रेस के प्रकाशन ऐसे ही विचारों की पुष्टि करते रहे हैं। अक्षय मुकुल की इस किताब में गीता प्रेस के आक्रामक हिंदुत्व पर विस्तार से चर्चा की गई है। उनके मुताबिक 'कल्याण' के लेखों की सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि उनमें हिंदू समाज के आपसी मतभेदों पर बात नहीं होती थी। 'कल्याण' का कहना था कि मंदिर में प्रवेश 'अछूतों' के लिए नहीं है और अगर आप पैदा ही 'नीची जाति' में हुए हैं तो ये आपके पिछले जन्म के कर्मों का फल है। आज़ादी के बाद जब हिंदू कोड बिल पर बहस चली तो गीता प्रेस ने महीनों तक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर पर तीखे हमले किए। 1951-52 में जब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी चुनाव में नेहरूजी के खिलाफ़ खड़े हुए तो 'कल्याण' ने मुहिम चलाई कि लोग प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को वोट दें क्योंकि 'कल्याण' के अनुसार पं. नेहरू अधर्मी थे।

कल्याण निकालने वाले लोग किसे धर्मपरायण और किसे अधर्मी मानते हैं, यह उनका पैमाना हो सकता है। लेकिन यह समझना कठिन नहीं है कि उनका पैमाना उस सनातन धर्म के आधार पर बना था, जिसमें नेहरूजी या बाबा अंबेडकर फिट नहीं बैठते थे। और कई मामलों में गांधीजी भी, जिनकी धर्म की परिभाषा कट्टर हिंदुत्व की बिल्कुल नहीं थी। गोडसे ने भी इसी लिए गांधीजी की हत्या की, क्योंकि वो हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम में आड़े आ रहे थे। लेकिन तब गीता प्रेस ने इसके विरोध में कुछ लिखने की जगह खामोशी को चुना। अक्षय मुकुल के मुताबिक 1951-52 गोविंद बल्लभ पंत हनुमान प्रसाद पोद्दार को भारत रत्न देना चाहते थे, ये भूलकर कि 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब 25,000 लोग जिन्हें हिरासत में लिया गया, उनमें पोद्दार भी थे। श्री पोद्दार और गांधीजी के निकट संबंधों के बारे में कई जगह लिखा गया है, लेकिन ये नहीं बताया गया कि पूना पैक्ट, हिंदू-मुस्लिम एकता, दलितों का मंदिर में प्रवेश इन तमाम मुद्दों पर उनके संबंध बिगड़ गए थे।

गीता प्रेस की इस पृष्ठभूमि को जानते-बूझते हुए भी केंद्र सरकार ने गांधी शांति पुरस्कार देने का जो फैसला लिया है, वह सोची-समझी चाल जैसा ही लग रहा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर इस सरकार के रहते गोडसे के नाम से भी कोई सम्मान या पुरस्कार की घोषणा हो जाए। वैसे लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने आरोप लगाया है कि पुरस्कार का निर्णय लेने वाली बैठक में उन्हें बुलाया ही नहीं गया। जबकि ज्यूरी में विपक्ष के नेता को होना चाहिए, ऐसा इसका नियम है। कांग्रेस के आरोप और आपत्तियों को भाजपा उसे हिंदू विरोधी करार देकर खारिज नहीं कर सकती। जिस पुरस्कार के साथ गांधी का नाम जुड़ा है, उसमें सत्य और धर्म दोनों की झलक दिखनी चाहिए। लेकिन अभी इसमें राजनीति की झलक दिख रही है। 2024 के चुनाव से पहले गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार से हिंदूवादियों और गांधीवादियों दोनों को साधने की कोशिश भाजपा ने की है। क्या इससे उसका कल्याण हो पाएगा।

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