भक्ति-मार्ग के 272 पथिकों की प्रतिमाओं का अनावरण
संसदीय समितियों में विचार और परीक्षण के लिए भेजे जाने वाले विधेयकों की सुस्थापित परंपरा पिछले लगभग एक दशक में शनै: शनै: खत्म कर दी गई है।;
अनिल जैन
संसदीय समितियों में विचार और परीक्षण के लिए भेजे जाने वाले विधेयकों की सुस्थापित परंपरा पिछले लगभग एक दशक में शनै: शनै: खत्म कर दी गई है। दिसंबर, 2023 में संसद के दोनों सदनों के 125 से ज्यादा विपक्षी सदस्यों को निलंबित मुख्य चुनाव आयुक्त को कानूनी कार्रवाई से मुक्त करने वाला घोर अनैतिक और असंवैधानिक विधेयक पारित कराया गया तब भी इन 272 में से किसी एक ने नहीं कहा कि लोकतंत्र खतरे में है।
ह तो नहीं कहा जा सकता कि भारत का चुनाव आयोग पहले पूरी तरह दूध का धुला हुआ था। उसकी कार्यशैली पर सवाल पहले भी उठते रहे हैं। उनमें कभी किसी सवाल का समाधान हुआ, तो कभी नहीं भी हुआ। लेकिन पिछले सात-आठ वर्षों से तो चुनाव आयोग पूरी तरह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी का रसोईघर बना हुआ है, जहां वही पकता है जो केंद्र सरकार का शीर्ष नेतृत्व और उसकी पार्टी चाहती है। हाल ही में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तो चुनाव आयोग ने जिस तरह का रवैया अपनाया उससे स्पष्ट हो गया है कि अब देश में चुनाव प्रक्रिया सिर्फ खानापूर्ति के लिए यानी दुनिया को यह बताने के लिए ही होगी कि भारत में लोकतंत्र है।
बिहार के चुनाव में निर्वाचन आयोग ने बेखौफ होकर वह सब कुछ किया जो उसे कतई नहीं करना चाहिए था और वह सब कुछ होने दिया जो होने से उसे हर हालत में रोकना चाहिए था। चुनाव आयोग के इस कदर बेखौफ होने की वजह यह है कि उसे सरकार का और एक तरह से न्यायपालिका का भी संरक्षण प्राप्त है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार तो सरकार ने कानून बनाकर पहले ही अपने हाथ में ले लिया है; और बाद में कानून बनाकर ही उसने चुनाव आयोग को भी पूरी तरह बेलगाम कर दिया है। यानी चुनाव आयोग के किसी फैसले को न्यायपालिका में चुनौती नहीं दी जा सकती।
यही नहीं, यह कानून भी बना दिया गया है कि किसी मुख्य चुनाव आयुक्त या आयुक्त के खिलाफ उसकी सेवानिवृत्ति के बाद भी उस पर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। यही वजह है कि चुनाव आयोग से उसके किसी भी फैसले को लेकर सवाल किया जाता है तो अव्वल तो वह जवाब नहीं देता; और देता भी है तो बिल्कुल सत्तारूढ़ दल के मुंहजोर प्रवक्ता के अंदाज में। चुनाव आयोग और सत्तारूढ़ दल की सांठ-गांठ इस बात से भी जाहिर होती है कि जब भी चुनाव आयोग पर कोई सवाल उठता है तो सत्ताधारी पार्टी के नेता उसके प्रवक्ता बनकर उसका बचाव करने मैदान में उतर जाते हैं। यही काम खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी करने में कोई संकोच नहीं करते हैं।
इस बार बिहार विधानसभा के चुनावी नतीजे आने के बाद निर्वाचन आयोग के विवादास्पद और संदेहास्पद कामों को जायज ठहराने के लिए सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के पूर्व जजों, पूर्व नौकरशाहों, पूर्व राजदूतों और पूर्व सैन्य अधिकारियों को बुद्धिजीवियों के रूप में पेश कर मैदान में उतारा गया है। देश के इन सरकार-प्रेरित 'बुद्धिजीवियों' को अचानक अहसास हुआ कि देश का लोकतंत्र खतरे में हैं। इस सिलसिले में उन्होंने देश की संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका, सेना और खासकर चुनाव आयोग की निष्पक्षता व विश्वसनीयता में अपना भरोसा जताते हुए एक खुला खत लिखकर लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं पर लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगाया है। इन महानुभावों ने अपने खत में कहा है कि विपक्ष के नेता चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर जहरीली भाषा में निराधार आरोप लगाकर उसे बदनाम कर रहे हैं, संसद की संविधान सम्मत कार्यवाही पर उंगली उठा रहे हैं, न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं और सेना के शौर्य तथा उपलब्धियों पर संदेहों को हवा देकर अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के 16 पूर्व जजों, भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा और विदेश सेवा से जुड़े रहे 123 नौकरशाहों और सैन्यबलों के 133 पूर्व अफसरों यानी कुल 272 लोगों के हस्ताक्षरों से जारी इस खुले पत्र में कहा गया है कि विपक्षी नेताओं का यह गैर जिम्मेदाराना रवैया चुनावों में उन्हें लगातार मिल रही शिकस्त से उपजी हताशा-निराशा का नतीजा है। इसलिए समूचे नागरिक समाज का कर्तव्य है कि वह पूरी दृढ़ता के साथ निर्वाचन आयोग के साथ खड़ा रहे। इस पत्र में चुनाव आयोग से कहा गया है कि वह जिस राह पर चल रहा है, उसमें कुछ भी गलत नहीं है, इसलिए वह उस राह पर अबाध गति से आगे बढ़ता रहे।
इस बारे में आगे बात करने से पहले यह बताना जरूरी है कि इन 272 महानुभावों में कुछेक को छोड़कर लगभग सभी किसी न किसी स्तर औपचारिक रूप से भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं। इनमें से किसका अतीत कितना साफ-सुथरा रहा है, किसने अपने पद पर रहते हुए कितनी ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है, यह अभी तक बहुत कम लोगों को मालूम था, लेकिन विपक्षी नेताओं के नाम इनका खुला पत्र जारी होने के बाद इन सभी की प्रामाणिक और दिलचस्प जन्मकुंडलियां सार्वजनिक हो चुकी हैं, जिनसे जाहिर होता है कि ये लोग अपने रिटायरमेंट के बाद भाजपा और आरएसएस से क्यों जुड़े हैं। सोशल मीडिया में सप्रमाण तैर रही इनकी जन्मकुंडलियां बता रही हैं कि इनमें से ज्यादातर के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर मामले हैं, जिनकी जांच ठंडे बस्ते में दबा दी गई हैं और कई लोग सेवानिवृत्ति के बाद किसी न किसी रूप में सरकार की कृ पादृष्टि के लाभार्थी बने हुए हैं।
फिर भी देश को सरकार और मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार का आभारी होना चाहिए कि उनकी वजह से एक साथ इतनी 'प्रतिमाओं' का अनावरण हुआ, लोग उनके चेहरे देख सके और औपचारिक रूप से यह जान सके कि हमारी न्यायपालिका, प्रशासन, पुलिस और सैन्यबलों में कैसे-कैसे दुर्दांत भ्रष्ट लोग बैठे हुए थे। इन लोगों के सत्तारूढ़ दल की वॉशिंग मशीन में प्रवेश करने की वजह भी देश अब समझ रहा है।
चुनाव आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त के गंदे कामों की पैरवी करने मैदान में उतरे इन लोगों की प्रबुद्धता और देश के प्रति जिम्मेदारी के एहसास का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले एक दशक में इन लोगों की रातों की नींद उस किसान आंदोलन के वक्त हराम नहीं हुई थी, जिसमें 500 से ज्यादा किसान मारे गए थे। नोटबंदी के समय बैंकों की कतार मे खड़े-खड़े भूखे-प्यासे मर गए लोगों को देखकर भी इन मगरूर महानुभावों की संवेदना नहीं जागी थी। कोरोना महामारी के दौर में अपने मां-बाप या छोटे बच्चों को पीठ पर लादे पैदल चलकर हज़ारों मील दूर अपने गांव पहुंचे बेबस लोगों के काफ़िले भी इन मगरूर महानुभावों को द्रवित नहीं कर पाए थे। दो साल पहले मणिपुर में हिंसा की लपटों के बीच महिलाओं को सड़कों पर नंगा करके घुमाया जाना और पुलवामा व पहलगाम जैसे कांड भी मानवता के इन पुजारियों को विचलित नहीं कर सके थे।
संसदीय समितियों में विचार और परीक्षण के लिए भेजे जाने वाले विधेयकों की सुस्थापित परंपरा पिछले लगभग एक दशक में शनै: शनै: खत्म कर दी गई है। दिसंबर, 2023 में संसद के दोनों सदनों के 125 से ज्यादा विपक्षी सदस्यों को निलंबित मुख्य चुनाव आयुक्त को कानूनी कार्रवाई से मुक्त करने वाला घोर अनैतिक और असंवैधानिक विधेयक पारित कराया गया तब भी इन 272 में से किसी एक ने नहीं कहा कि लोकतंत्र खतरे में है। सरकार अपनी मनमानी करने को कानूनी जामा पहनाने वाले कई विवादास्पद विधेयकों को राज्यसभा में पारित कराने से बचने के लिए उन्हें धन-विधेयक का दर्जा दे देती है, मगर रातों-रात पैदा हुए लोकतंत्र के इन पहरुओं के माथे पर कभी शिकन नहीं आती। 17वीं लोकसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं कराया गया था और अभी 18वीं लोकसभा में भी वही हाल है, लेकिन इनमें से किसी की आवाज नहीं उठी। इलेक्टोरल बांड्स जैसे सरकार के अनैतिक हथकंडे पर भी नैतिकता की यह रंग-बिरंगी मंडली खामोश बनी रही।
दरअसल अपने खुले खत के जरिये विपक्षी नेताओं को हड़काने और नसीहत देने वाली यह मंडली जिस सत्ता के भक्ति-रस में डूबी हुई है, उसके बारे में शायद उसे मुगालता है कि यह सत्ता अक्षुण्ण है और अब इसे कोई हटा नहीं सकता। इस मंडली को याद रखना चाहिए कि हर अति का अंत होता है और अभी जो अति हो रही है, इसका भी अंत होकर रहेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)