नये संसद भवन और विशेष सत्र का औचित्य अब साफ है
पूर्व घोषणा के अनुसार भारतीय संसद अपने नये पते पर स्थानांतरित हो गई है;
- डॉ. दीपक पाचपोर
संसद भवन देश का है और उसी के पैसों से बना है। फिर, यह ऐसे समय पर बनना शुरू हुआ था तब पूरी दुनिया के साथ भारत के लोग कोरोना की दो-दो लहरों के प्रकोप को भुगत रहे थे। जब लोगों को ऑक्सीजन संयंत्रों, एंबुलेंसों, अस्पताल में विशेष बिस्तरों, दवाओं की आवश्यकता थी तब देश का प्रधान सेवक नयी बिल्डिंग बनवाने में व्यस्त था तथा राजकोष का खर्च इस अब भी गैर जरूरी भवन पर कर रहा था।
पूर्व घोषणा के अनुसार भारतीय संसद अपने नये पते पर स्थानांतरित हो गई है। सोमवार को पुरानी इमारत में उसने अपना अंतिम कामकाज निपटाया और मंगलवार को गणेश जी की विधिवत पूजा-अर्चना कर नये भवन का श्रीगणेश हुआ। 22 सितम्बर तक कई काम निपटाकर 5 दिवसीय विशेष सत्र समाप्त तो हो जायेगा लेकिन सोच-विचार करने वाला हर कोई जानता है कि इस नये संसद भवन और विशेष सत्र का औचित्य क्या है।
औचित्य पर इसलिये सवाल उठता रहेगा क्योंकि देश के पास पहले से एक शानदार भवन उपलब्ध है जिसने अपने सभा कक्षों एवं गलियारों में देश को निर्मित होते देखा है; और जो अभी भी इस हाल में है कि वह अगले सौ-एक साल तक तो देश को प्रेरणा देने के अलावा हमारी संसदीय ज़रूरतों को पूरा भी कर सकता है- अगर आवश्यक हुआ तो थोड़ी-बहुत मरम्मत करके एवं उसमें कुछ बदलाव लाकर।
हालांकि कोई कह सकता है कि अब तो नयी इमारत न केवल बन गई है और संसद का काम-काज नये पते पर प्रारम्भ भी हो गया है, तो इसके निर्माण के औचित्य पर सवाल करने का क्या अर्थ है। तो बात यह है कि संसद भवन देश का है और उसी के पैसों से बना है। फिर, यह ऐसे समय पर बनना शुरू हुआ था तब पूरी दुनिया के साथ भारत के लोग कोरोना की दो-दो लहरों के प्रकोप को भुगत रहे थे। जब लोगों को ऑक्सीजन संयंत्रों, एंबुलेंसों, अस्पताल में विशेष बिस्तरों, दवाओं की आवश्यकता थी तब देश का प्रधान सेवक नयी बिल्डिंग बनवाने में व्यस्त था तथा राजकोष का खर्च इस अब भी गैर जरूरी भवन पर कर रहा था। वैसे नये भवन के औचित्य पर तभी से सवाल उठते रहे हैं जब उसकी योजना बनी ही थी। जवाब न देने की आदी और सफाई देने में अपनी हेठी समझने वाली मोदी सरकार ने इस पर विस्तार से कभी अन्य दलों से चर्चा तक नहीं की। यहां तक कि भाजपा के सासंद तक इससे अनभिज्ञ थे।
दूसरे, जो शासकीय विधेयक लाये जा रहे हैं उनका भी इसलिये औचित्य पूछा जायेगा क्योंकि उन्हें कुछ दिनों पहले समाप्त हुए मानसून सत्र में लाया जा सकता था या वे आगामी शीतकालीन सत्र में भी पारित हो सकते थे। दूसरे, जो 7-8 शासकीय विधेयक लाये जा रहे हैं उनका भी इसलिये औचित्य पूछा जा रहा है कि उन्हें कुछ दिनों पहले समाप्त हुए मानसून सत्र में लाया जा सकता था या वे आगामी शीतकालीन सत्र में भी पारित हो सकते थे। अभी देशवासी इस राष्ट्रीय तमाशे के बीच में पहुंचे थे कि नये-नये तमाशों को एक के बाद एक प्रस्तुत करने में माहिर प्रधानमंत्री ने नया आईटम पेश कर दिया जो सबसे महत्वपूर्ण है- महिला आरक्षण। सोमवार की शाम को कैबिनेट की हुई बैठक में बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण का मसौदा मंजूर करने से लगा था कि इसके लिये भी रास्ता साफ हो गया है। अगर ऐसा होता होता यह अच्छी बात होती परन्तु जो 6 पेजी विधेयक लाया गया तो वह भी 'पोस्ट डेटेड' निकला। इसे परिसीमन के बाद 2026 में लागू किया जायेगा। इसके प्रारूप का अध्ययन करने एवं विभिन्न राजनैतिक दलों के भीतर विचार-विमर्श के लिये सांसदों को समय तक नहीं दिया गया। भारतीय जनता पार्टी के केन्द्र में दूसरे कार्यकाल के लगभग अंतिम चरण में यह विधेयक लाना बहुत कुछ बतलाता है। अब देखना होगा कि जब इसके लागू होने का वक्त आएगा (2026 में) तो इसके प्रावधान क्या होंगे और उसका स्वरूप क्या रहेगा। वह सभी वर्गों की महिलाओं को समुचित न्याय दे पाता है या नहीं, यह भी देखे जाने की आवश्यकता है। पहले और दूसरे दौर में भाजपा के पास बहुमत की कमी तो थी नहीं और उसने अनेक विधेयक बगैर चर्चा या सर्वसम्मति की परवाह किये बिना ही पारित कर कानून बनाये हैं, तो इसे तत्काल पारित करने में कहां दिक्कत थी- यह भी स्पष्ट होना चाहिये।
यह विधेयक पिछले करीब चार दशकों से दिन के उजाले का इंतज़ार कर रहा था। उसके कुछ प्रावधानों को लेकर अनेक दलों की आपत्तियां थीं। मुख्य आपत्ति समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल की थी जिनकी मांग थी कि जिस प्रकार इस विधेयक में आरक्षण के भीतर उप आरक्षण के रूप में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिये प्रावधान हैं, वैसे ही अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये भी प्रावधान हों। भाजपा इन दिनों जातिगत गणना के मुद्दे पर घिरी हुई है क्योंकि कांग्रेस समेत अनेक विपक्षी पार्टियां इसके हक में हैं और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो नारा ही दिया है कि 'जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी भागीदारी।' अगर भाजपा सरकार इस विधेयक में उस विसंगति को ठीक कर देती तो यह विपक्ष की जीत मानी जायेगी तथा उसे ओबीसी की अधिक भागीदारी का सिद्धांत मानना होगा। फिर तो जातीय जनगणना भी कराने की मांग जोरदार ढंग से उठेगी। तो भी उम्मीद थी वे विसंगतियां दूर होतीं और विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व के बढ़े हुए हक की बाट जोहती देश की आधी आबादी को विधायिकाओं में बड़ी हिस्सेदारी मिल सकती। महिलाओं समेत सभी समतावादियों को मोदी ने निराश किया है। यह भी एक तरह से झुनझुना साबित हो गया है।
ये सारी कवायदें बताती हैं कि मोदी के सामने 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना एक बड़ी चुनौती है। वह ऐसे और कठिन होता जायेगा क्योंकि इस साल के अंत में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव (छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना एवं मिजोरम) भी जीतना भाजपा के लिये कठिन माना जा रहा है। अब तो मुकाबले में मजबूत विपक्षी गठबन्धन इंडिया भी है। प्रशासक के रूप में पूर्णत: नाकाम और हर मोर्चे पर सुपर फ्लॉप साबित हो चुके प्रधानमंत्री के पास ऐसे आयोजनों के जरिये अपनी छवि चमकाने के अलावा और कोई उपाय नहीं हैं। 9-10 सितम्बर को भारत में हुए जी-20 के सम्मेलन की अध्यक्षता करने का अवसर एक तयशुदा रोटेशन व प्रक्रिया के तहत देश को मिला था। इसे यूं प्रचारित किया गया मानों वह मोदी की लोकप्रियता के बल पर हासिल किया गया पद हो।
श्री मोदी के लिये पहले तो अपनी पीएम की उम्मीदवारी को ही बचाने और फिर भाजपा को तीसरी बार सत्ता में लाने के कठिन टास्क हैं। ऐसे में छोटे-मोटे इवेंट काम नहीं आने वाले। इसलिये जी-20 का इस्तेमाल उन्होंने अपनी छवि चमकाने के लिये तूफानी अंदाज़ में किया। दिल्ली में उनके पोस्टर छाये हुए थे तथा उनके आर्थिक मॉडल के दुष्परिणामों को हरे पर्दों से ढंक दिया गया था ताकि विदेशी मेहमान गुजरात मॉडल के ढोल की पोल को न जानें। उसी श्रृंखला में संसद के स्थानांतरण को भी देखा जाना चाहिये। पुराने भवन से नये में जाने के कार्यक्रम को ऐसा डिज़ाइन किया गया था जिससे मोदी की गिरती छवि को टेका मिले। अंतिम समारोह में सत्ता से जुड़े जिन लोगों के भाषण हुए, उन्होंने ख्याल रखा था कि सारा श्रेय मोदी को जाये तथा उनके नेतृत्व की प्रशंसा हो। प्रोटोकॉल के अनुसार समारोह के सर्वोच्च अतिथि उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तक यह कहकर प्रधानमंत्री को खुश करते नज़र आये कि श्री मोदी के कहने के बाद उन्हें दिक्कत आती है कि अब क्या कहा जाये। नये संसद भवन में इसी तरह से काफी कुछ देखने को मिलेगा क्योंकि मोदी एवं उनकी सरकार पुराने भवन में बनी संसदीय परम्पराओं, मर्यादाओं, आदर्शों और नैतिकता का बोझ उतारकर नये पते पर बिंदास तरीके से रहने जा रही है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं।)