विपरीत विचारों को सुनने का अभ्यास करना होगा सरकार को
सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय पर एक 14 साल पुराने मामले को लेकर मुकदमा चलाने की अनुमति देकर दिल्ली के उप राज्यपाल ने साबित कर दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के लिये अब भी दूर की कौड़ी है;
- डॉ. दीपक पाचपोर
यह तो सच है कि कोई भी व्यक्ति या संगठन अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता परन्तु लोकतंत्र का यह तकाज़ा है कि सरकारों को अपनी आलोचना सुनने की क्षमता विकसित करनी ही पड़ती है। यह भी सच है कि मोदी एवं भाजपा जिस परिवेश की उपज हैं, उसमें आलोचना तो दूर सवाल करने या नुक्ताचीनी की भी गुंजाईश नहीं होती।
सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय पर एक 14 साल पुराने मामले को लेकर मुकदमा चलाने की अनुमति देकर दिल्ली के उप राज्यपाल ने साबित कर दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के लिये अब भी दूर की कौड़ी है। देश के संविधान ने चाहे लोगों को अपनी राय रखने की आजादी के मजबूत प्रावधान कर रखे हों लेकिन समाज इस बात का आदी नहीं है कि वह नये विचारों की ओर कान और ध्यान दे; या किसी विषय पर नये दृष्टिकोण से विचार कर सके। वैसे समाज में विचारों के स्तर पर नवाचार लाना या उनमें ताज़गी भरना सरकार का ही काम है। उनमें विचार बोने का काम चाहे सरकार का न हो लेकिन आज़ाद खयाली को प्रोत्साहन देना और उसे संरक्षित रखना लोकतांत्रिक समाज की ही जिम्मेदारी है। ये विचार प्रचलित मान्यताओं के खिलाफ़ हो सकते हैं या फिर परम्पराओं से हटकर भी, उनमें सांस्कृतिक हस्तक्षेप न करते हुए देश में एक वैचारिक प्रवाह को मुक्त बनाये रखने के लिये आवश्यक वातावरण बनाना उसी का काम है। अगर विचारधारा को कोई बाधित करता है तो उन अवरोधों को संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से हटाना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का उत्तरदायित्व होता है। इसके बिना उस देश का 'लोकतंत्र की जननी' होने का दावा बेकार है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इसलिये दुनिया भर में तवज्जो दी जाती है। अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को सुनकर और उसे सम्मान देकर सरकारें अपना कद बढ़ाती हैं। दुर्भाग्य से भारत में नये विचार जन्म लेने के पहले ही मर रहे हैं।
अरुंधति रॉय के सन्दर्भ में यह बात और पुख्ता हो जाती है। 9 से अधिक पुस्तकों की अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ी गयी लेखिका अरुंधति के खिलाफ यह मामला 27 नवम्बर, 2010 को उनके द्वारा दिल्ली के एलटीजी सभागार में दिये भाषण को लेकर दर्ज हुआ है। इसमें उन्होंने कश्मीर पर अपनी राय रखी थी। 'आजादी- द ओनली वे' नामक इस कांफ्रेंस में उन्होंने कथित रूप से कश्मीर को भारत से अलग करने सम्बन्धी प्रचार किया था। इस कार्यक्रम में उनके साथ सैयद अली शाह गिलानी, एसएआर गिलानी, डॉ. शेख शौकत हुसैन एवं कवि करवर राव शामिल थे। दोनों गिलानी तो बरी हो गये, शेष के खिलाफ मामला दर्ज हुआ है। वैसे उनके खिलाफ कई धाराओं के अंतर्गत मामले चलाने की अनुमति मांगी गयी थी, पर मंजूरी केवल 153ए तथा 153वी के तहत ही मुकदमे दर्ज करने की दी गयी जो नस्ल, धर्म, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर वैमनस्यता बढ़ाने व सद्भाव के खिलाफ काम करने तथा राष्ट्रीय एकीकरण को नुकसान पहुंचाने से सम्बन्धित हैं। 14 वर्ष बाद मामला दर्ज करना यही बतलाता है कि नरेन्द्र मोदी सरकार अपने खिलाफ विचार रखने वालों की शिनाख्त जारी रखे हुई है और मौका मिलते ही उन्हें सलाखों के पीछे भेजने पर आमादा है। वैसे देखें तो मामला कांग्रेस सरकार के वक्त का है और इतने समय के बाद भी उनके भाषण का अब तक कोई प्रतिकूल असर समाज पर न पड़ना बतलाता है कि मोदी सरकार तिल का ताड़ बनाना चाहती है।
अरुंधति ऐसी लेखिका नहीं हैं जो किसी कोने में बैठकर गल्प साहित्य लिखे और पुरस्कार लेती फिरें। समाज के प्रति उनकी संपृक्तता बेहद सराही जाती है। हर तरह के सामाजिक सरोकारों पर वे लेख लिखती हैं और मौका मिले तो भाषणों, साक्षात्कारों आदि में भी अपने विचार रखती हैं। उन्मुक्त विचारों के लिये जानी जाने वाली रॉय एक लोकप्रिय लेखिका हैं जो हमेशा देश व दुनिया के सर्वहारा के साथ खड़ी नज़र आती हैं। उनके विचारों में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरा आग्रह दिखलाई देता है। संविधान में निहीत स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व के मूल भावों को उन्होंने न केवल संजोया है वरन उनकी प्रभावी अभिव्यक्ति उनके लेखन में हुई है। यहीं से मोदी सरकार से उनकी दुश्मनी शुरू होती है।
वे मोदी सरकार की निरंकुश कार्यपद्धति की हमेशा से विरोधी रही हैं। राजनैतिक असहमतियों से भरे उनके लेखों के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें अरुंधति ने मोदी सरकार की जमकर आलोचना की है। 2022 में प्रकाशित एक लेख में उन्होने भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की तुलना यूएस कैपिटल हिल के दंगाइयों से की थी। ऐसे ही, सुप्रसिद्ध पत्रकार करण थापर को 'द वायर' के लिये दिये एक इंटरव्यू में अरुंधति रॉय ने हिन्दू राष्ट्रवाद की सोच को विभाजनकारी बतलाते हुए कहा था कि भारत की जनता इसे कभी कामयाब नहीं होने देगी। उन्होंने इसी साक्षात्कार में भाजपा को फासीवादी करार दिया था। साथ ही उन्होंने उम्मीद जताई थी कि एक दिन देश इसका विरोध करेगा। उन्होंने कहा था कि वे भारतीयों पर भरोसा करती हैं और एक दिन देश इस अंधेरी खाई से बाहर निकल आयेगा। विभिन्न अवसरों पर अरुंधति ने कभी कश्मीर को भारत का हिस्सा मानने से इंकार कर दिया तो कभी गोवा की आजादी को गलत बताया तो कश्मीर की जनता पर भारतीय सेना के अत्याचारों की बात भी कही।
सम्भव है कि कुछ मुद्दों को लेकर किसी की अरुंधति के विचारों से सहमति न भी हो परन्तु एक सभ्य समाज के भीतर इतनी सहनशीलता अवश्य होनी चाहिये कि वह उन विचारों पर मुक्त संवाद कर सके। पसंद न आने वाले विचारों को लेकर किसी पर मुकदमा कर देना या उन्हें जेलों में डाल देना किसी स्वस्थ समाज की निशानी नहीं कही जा सकती। पिछले कुछ समय से भारत में यह नज़ारा आम हो गया है। अपने हक मांगने वाले, सरकार की खामियां बतलाने वाले, लोकतंत्र की बातें करने वाले, मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार आदि थोक के भाव में जेलों में भेजे गये हैं। लम्बे-लम्बे समय तक सरकार के इशारों व दबाव में उन्हें जमानत नहीं मिलती। कई ऐसे लेखक-पत्रकार या मानवाधिकार कार्यकर्ता बीमारी के बाद भी जेलों से नहीं छोड़े जाते। ये सारे ही मामले बताते हैं कि इस सरकार में प्रतिरोध की आवाज को सुनने की शक्ति नहीं है और न ही उसे लोकतंत्र की बुनियादी शऊर व यह समझ है कि एक समाज का निर्माण विविध विचारों को मिलाकर होता है। भारत की आजादी के बाद बनी सरकारों ने इस बात को ख्याल में रखा था और सरकारें सहिष्णुता के मार्ग पर चलती थीं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उनके असहमति के प्रति सम्मान के लिये जाना जाता था। प्रचण्ड लोकप्रियता के बाद भी उन पर साम्यवादियों, समाजवादियों तथा दक्षिणपंथियों द्वारा जोरदार हमले होते रहे परन्तु उन्होंने किसी को भी कुचलने की कोशिश नहीं की। उलटे, नेहरू संसद के भीतर लोगों को इस बात के लिये प्रोत्साहित करते थे कि वे शासकीय कामों की खामियां बतायें।
यह तो सच है कि कोई भी व्यक्ति या संगठन अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता परन्तु लोकतंत्र का यह तकाज़ा है कि सरकारों को अपनी आलोचना सुनने की क्षमता विकसित करनी ही पड़ती है। यह भी सच है कि मोदी एवं भाजपा जिस परिवेश की उपज हैं, उसमें आलोचना तो दूर सवाल करने या नुक्ताचीनी की भी गुंजाईश नहीं होती। ऐसे में अगर उनकी सरकार में अपने खिलाफ कुछ भी सुनने का माद्दा नहीं है, तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं होना चाहिये। असली सवाल यह है कि इस मामले में जनता किस तरफ है? एक ओर सरकार है तो हर पल नागरिकों को कमजोर करने को उद्धत रहती है जबकि दूसरी तरफ अरुंधति जैसे लोग हैं जो मानवीय चेतना को जगाने का काम करते हैं।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)