बलदेव की कविता पर कुछ नोट्स
बलदेव साव की इतनी सारी कविताएँ मैंने एक साथ इसके पहले कभी नहीं पढ़ी थीं;
- प्रभात त्रिपाठी
बलदेव साव की इतनी सारी कविताएँ मैंने एक साथ इसके पहले कभी नहीं पढ़ी थीं। अभी पढ़ते हुए लगा कि सचमुच मुझसे कुछ आत्मीय और सुन्दर छूट गया था, कुछ ऐसा भी, जिसके बारे में निस्संकोच यह कहा जा सकता है कि यह सार्थक सर्जनात्मक अनुभव के इलाके में रहने-जीने का सा अनुभव है। अभी पहले पाठ के बाद, मुकम्मल समीक्षा जैसी कोई बात कहने या लिखने की स्थिति में तो नहीं है, पर इतना जरूर कह सकता हूँ, हिन्दी की समकालीन कविता में स्थापित परम्परागत और आधुनिक, दोनों ही किस्म की कविताओं के संसार में, बलदेव का स्वर परिचित फिर भी भिन्न स्वर की तरह लगता है। उसकी भिन्नता चमत्कार केन्द्रित नहीं है, बल्कि संवेदना गर्भित है, और इस संवेदना में, मुझे छत्तीसगढ़ के ग्रामीण संस्कार सक्रिय दिखाई पड़ते हैं, इसे महज आंचलिकता या छत्तीसगढ़ी शब्द प्रयोग के अर्थ में ही नहीं लिया जाना चाहिए।
यह वास्तव में, एक भूगोल विशेष के अनुभवों को मानक हिन्दी की परम्परा में जोड़ने की विनम्र कोशिश है। संभवत: यह भी कि इसी के चलते, हिन्दी के व्यापक संसार के काव्यानुभव के परिप्रेक्ष्य में, इस अंचल के आत्मसजग व्यक्ति के सृजन संघर्ष को लिखना भी संभव हो सका है। इस तरह से सोचें तो उनकी कविता शब्द प्रयोग की आंचलिकता से थोड़ा आगे जाकर हिन्दी और छत्तीसगढ़ी की निरन्तर बातचीत का साक्ष्य भी है। कई बार तो एक खास, और निश्चय ही गैर-आंचलिकता वादी अर्थ में हिन्दी की छत्तीसगढ़ी कविता की तरह लगती है।
लेकिन ऐसा कहना भी शायद एक तरह की फतवे बाजी या सूक्तिपरकता ही हो सकती है, क्योंकि निश्चय ही उसका अनुभव संसार संकीर्ण राजनीतिक अर्थ में क्षेत्रीयतावादी नहीं है, बल्कि कई बार तो उसमें हिन्दी कविता की मुख्य धारा में शामिल होने की ऐसी विकलता दिखाई पड़ती है, कि वह थोड़ी अटपटी ही नहीं, बल्कि सर्जनात्मक स्तर पर गैर जरूरी भी मालूम पड़ती है। पर अभी जब मैं इस कविता के प्रथम पाठ का अनुभव लिख रहा हूँ, तो यह दुहराना जरूरी है कि बलदेव की कविता के छत्तीसगढ़ीपन की बात मैं, प्रसंगवश उसकी एक खासियत बताने के लिए कर रहा हूँ, वरना शायद उसकी कोशिश तो स्वीकृत मानकीकृत हिन्दी की पहचान और परम्परा के साथ जुड़ने में ही है। बेहतर है मैं कुछ उदाहरणों से अपनी बात कहूँ।
'सोने का दिन नहीं इनका / अल्यूमोनियम की रात भी नहीं/ तड़के सुबह फिर काम पर/जाना है जरूरी / और लौटते अँधेरे में राशन लाना उससे भी जरूरी / सोने भी दो उसे/देखती है एक जोड़ी आँख /भीगते हैं पेड़ /भीगता है गहरा हरा खेल का मैदान / ऐसी दूध की बरसात / बहुत उजली रात/गा रही है/होत वृन्दावन रास/देखन मैं न गयी'
यह 'गम्मत' देखते सुनते मस्ती करते लोगों के जीवन का एक दृश्य है। किसी भी छत्तीसगढ़ी के लिए मस्ती और आनन्द से भरपूर, रात की इस छवि को आँकते बलदेव वृन्दावन की याद करते लोक-मन और उसके परिवेश की सुखद प्राकृतिकता को सहज भाव से उकेरते हैं, पर अपने अनुभव में लगातार कसकता यथार्थ उन्हें मजबूर करता है कि वे ऐसी किसी रात को महज उत्सवधर्मिता के एक पारम्परिक प्रतीक के रूप में नहीं रचते। भाषा और अन्तर्वस्तु दोनों ही स्तरों पर 'गम्मत' का यह दृश्य अगर छत्तीसगढ़ को हिन्दी से जोड़कर एक वैशिष्ट्य देता प्रतीत होता है, तो उसी दृश्य से उभरता यह अनिवार्य यथार्थ- बोध, हमें यह भी याद दिलाता है कि सच्चाई वृन्दावन के रास की ओर उन्मुख नहीं है, बल्कि काम पर जाने और राशन लाने की अनिवार्यता की ओर उन्मुख है। यह यथार्थ बोध उनकी कविताओं को समकालीन हिन्दी कविता की उस परम्परा से जोड़ता है, जहाँ बदलते छत्तीसगढ़ की व्यथा-कथा को वे ज़रूरी राजनीतिक दृष्टि से देखने की पहल करते हुए कहते हैं।
'हमने अँधेरे में यह कागज का टुकड़ा छोड़ा है/यह आपके लिए घोड़ा है/ इसका इस्तेमाल जैसा चाहो करो/किन्तु रहम करके / हमारी नंगी पीठ का खयाल करो।'
जाहिर है कि चुनकर विधान सभाओं और संसद में जानेवाले 'भारत भाग्य विधाताओं' (रघुवीर सहाय) की असलियत से बेखबर कतई नहीं है, बलदेव और शायद पूरी समझदारी के साथ, उस प्रजातंत्र को पहचानते हैं, तो छत्तीसगढ़-वासी के लिए आज तक पेट भर भोजन और सिर पर छत की व्यवस्था तक करा सकने में असफल रहा है। इस चुनाव को इसलिए ही वे दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर नहीं समझना चाहते, क्योंकि हर दल मत-पत्र के कागज से मिलने वाली ताकत का इस्तेमाल, लोगों की पीठ पर ही नहीं पेट पर भी घोड़े दौड़ाने की क्रूरता के साथ करता रहा है, पर इस मासूम अंचल के निरीह लोगों की तरफ से वे अगर रहम की दुहाई की सी भाषा में अपनी बात कहते हैं, तो यह शायद इसलिए कि क्रांति की किसी भी लफ्फाजी से कहीं ज्यादा जरूरी वे वास्तविक जीवन- स्थितियों की सच्चाई को मानते हैं। यह महत्त्वपूर्ण है कि इन जीवन स्थितियों की पहचान, प्रकृति परिवेश और अस्तित्व के अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में करते हुए, उन्होंने जन-संकट को, गिरे राजनीतिक संकट के रूप में देखेने का सरलीकृत तरीका नहीं अपनाया है।
'गुलेल से मार खायी, खून से लथपथ राम गिलहरी / जिन्दगी और मौत से किस कदर खेलती है/तेजधार चट्टान से, डगाल की ओर फलांगने के बीच / एक हरी पत्ती खून से लथपथ हाण्डी खोह में कैसे गिरती है/ दुख कातर किरणें सर्द अँधेरे में/कैसे मुँह छिपा लेती हैं नि:शब्द'
एक तरफ जरूरी राजनैतिक सचेतनता, तो दूसरी तरफ, व्यक्ति और सामुदायिक दुख के आस्तित्त्विक आयाम, बलदेव की कविता को, महज विषयगत व्यापकता ही नहीं देते. बल्कि यह सुझाते प्रतीत होते हैं कि वह मनुष्य के राग जगत को किसी स्थिर विचार की सरणि में नहि बाँधना चाहते। इसलिए समस्या या संकट ही नहीं, बल्कि कमनीय रागात्मकता की अपनी अभिव्यक्ति के लिए वे बड़े सतर्क ढंग से, परंपरागत लयात्मकता में लौटते हैं और तब प्रकृति का साहचर्य उन्हें अपनी वाणी की उस परम्परा से जोड़ता है जहाँ राग-विराग की दुनिया की सुन्दर और सार्थक छवियाँ है, और तब अपने को अन्दर की भाषा में पहचानते हुए वे, प्रगीतात्मकता की जिस दुनिया में हमें ले जाते हैं, वह तीव्र शहरीकरण की गति के विरुद्ध मानों मानवीय कल्पना का एक प्रति-संसार सा मालूम
पड़ता है :
'धरती के उत्तप्त तवे पर, छम-छम नाच
रहीं बूँदे
भींज रहा मैं बाहर भीतर, एक बीज
आँखें मूँदे '
ऐसी पंक्तियाँ, महज रुढ़ि कथन की तरह उनकी कविताओं में नहीं आतीं, बल्कि उनके काव्य-जगत में प्रकृति प्राणता, जैसे उनके ग्रामीण व्यक्तित्व की नैसर्गिकता को धारे सर्वत्र मौजूद और सक्रिय दीखती है। बाजवक्त तो यह भी लगता है कि शहरी जीवन के दुख और त्रास की राजनीतिक बू के विरोध-प्रतिरोध में लिखी गयी उनकी कविता, संभवत: उनके दायित्वबोध से ज्यादा जुड़ी हैं, जबकि गाँव और प्रकृति उनके राग-जगत से लेकिन आज राजनीतिक गुंडागर्दी के इस वक्त में, उनके यथार्थ बोध की सहजता से रची गयी कई कविताएँ भी, विडम्बनाओं से भरी हमारी हालत को बहुत धारदार ढंग से उजागर करती हैं,
'थी बहुत भोथरी धार/किए बूढ़े ने हँसिए से / वार पर वार / नहीं कटा गला साले का / गई गुंडे से जनता हार' ऐसी पंक्तियाँ, एकदम से असर करने वाली पंक्तियों की तरह आती हैं, पर ये ही पंक्तियाँ हमें यह भी याद दिलाती हैं कि बलदेव सिर्फ आलोचना के ही नहीं, प्रेम के भी कवि हैं, और वहीं बने रहना चाहते हैं।