लोक स्वायत्तता की पहचान
लोक पर आधारित यह पुस्तक ललित सुरजन जी को समर्पित है व्यक्ति की समष्टि जहां से शुरू हुई, शायद वहीं से लोक की शुरुआत हुई;
- डॉ रश्मि दीक्षित
लोक पर आधारित यह पुस्तक ललित सुरजन जी को समर्पित है व्यक्ति की समष्टि जहां से शुरू हुई, शायद वहीं से लोक की शुरुआत हुई। लोक सीमारहित है छोटे से शब्द में असीमित अभिप्राय समेटे हुए हैं। पूरी धरा को अपने में समेटे, पूरी धरा में लोक समाया हुआ है। लोग सर्वहारा है और बिल्कुल अंतरंग भी। अपने में सृष्टी समष्टि और धरा का संपूर्ण सत्य समेटे अपने अथाह रूप में लोगों के मन में प्रवाहित होता लोक अपने आप में परिपूर्ण है। लोक में गीत है, राग है, नृत्य है, संस्कृति है, परामर्श एवं निष्कर्ष भी है। लोक की परंपरा बंधन मुक्त है जो अपने आप को किसी सीमा में ना बांध उन्मुक्त होकर बहती है। लोक को परिष्कृत कर लोकोत्तर बना देती है। मनुष्य के शरीर में रचा बसा लोक अपने विवेक से सारे राग देशों को खत्म कर चरम को पा लेता है।
आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, इस सदी में जी रहा मनुष्य अपने आपको ईश्वर मान बैठा है। नित नई- नई तकनीक और आधुनिक उपकरणों को अपनाने की होड़ में इंसान ने खुद को मशीन बना दिया। अपनी जड़ खोता इंसान आसमान में उड़ने की कोशिश करने लगा। अपने अस्तित्व को नकार वह भौतिक रूप से तो संपन्न हो गया पर आंतरिक रूप से खोखला हो गया। मनुष्य अपना नैतिक विनाष करता हुआ मूल्य हीन हो गया और अवसाद और असफलता के पाष में बंधता जा रहा है। मूल्य और आदर्श खरीदे नहीं जाते आत्मसात किए जाते हैं। ये लोक में समाहित है लोक भी मानव में। पाश्चात्य संस्कृति का मोहपास कुछ इस कदर हावी हुआ है कि मां की गोद से उठा मानव अपने आप को स्वयंभू समझने लगा।
महामारीओं की जंग से जूझती दुनिया अब विनाश की ओर अग्रसर है। स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं ने मध्यम वर्गीय अभिलाषाओं को बलवती कर दिया है। उच्च वर्गीय एवं निम्न वर्गीय की अपेक्षा मध्यमवर्गीय लोग अपनी अस्मिता को बचाने की जद्दोजहद में मरते रहते हैं । लोक भी शायद उन्हीं की संपत्ति बचा है। एक अदृश्य शक्ति उन्हें भय के साए में जीने को मजबूर करती है। कथाकार 'कामू गाब्रियल गार्सिया मार्केस' सभी जीवन के समानांतर अपने जीवन को चलाने की प्रेरणा देते हुए दिखते हैं।
बाजारवाद हर संस्कृति पर हावी होता दिख है । बाजार के विकास एवं विस्तार ने धर्म एवं लोक संस्कृति को भी गहरा प्रभावित किया है। नई खोज करने वाला मानव अपनी ही उत्पत्ति भूल गया। हमारा चिंतन लोकजीवन, भाषा की गिरावट, जातिगत भेदभाव सब हमें गर्त में ले जा रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने हमें जो विरासत दी है उसे हम धीरे-धीरे मिटाते जा रहे हैं । मानव विचार से नष्ट हो गया है। रिश्ते प्रेम सब मौके के हो गए हैं । जहां स्वार्थ है वहां ज्यादा गहराई आने लगी है। संबंधों ने औपचारिकता का बाना पहन लिया है।
श्री श्याम बाबू शर्मा का संकलन 21वीं सदी का लोक इस चिंतन को दिखाता है। शर्मा जी की चिंता अस्तित्व खोते लोक को बचाने के लिए हैं। वे खौफ में है कि धरती से मानव की उत्पत्ति की असलीयत मिट न जाए। आज घट रही घटनाओं, अचानक हमला कर रही आपदाओं और चरित्रहीन होते मानव ने लेखक को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि एन केन प्रकारेण लोक बच जाए। लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित हो । किताब में विद्वत चिंतकों के आलेख सम्मिलित हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से लोक और जीवन को जीवंत करने का प्रयास किया है। सभी अपने अपने लेखों के माध्यम से मृत्यु की ओर अग्रसर लोक के लिए चिंतित है।
शहरीकरण की भेंट चढ़ता गांव, तालाब और पोखरों को खाता स्विमिंग पूल, चौपालों को निगलते क्लब, दादा दादी, नानी की कहानियों को मिटाता मीडिया, मानव की सीमाएं पाटता जा रहा है। अपने में सिमटा मानव अपने को भूल गया है। इस परिचर्चा के माध्यम से लोक और आस्था का दर्शन तो प्रारंभ किया जा सकता है। बस लोगों को जागृत करना शेष है क्योंकि मानव लोक से जन्मा है लोक तो उसके मन में बसता है। भूत ,भविष्य और वर्तमान के आंकड़ों को देखा जाए तो तब से सब संभव है। हम लाक को जागृत कर सकते हैं किताब में संकलित आलेखों पर दृष्टि डालें तो सभी में लोक दृष्टिगत होता है सभी का चिंतन लोक पर है ,संस्कृति पर है, और उनके संरक्षण पर है।
प्रभाकर चौबे लोक की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि आज 21वीं सदी में लोग की परिभाषा ही बदल गई है । यह उत्पादन के साधनों और उत्पादक के बीच कहीं खो सी गई है। लोगों ने हाथों से काम लेने के बजाय आजकल मशीनों से काम लेना शुरू कर दिया है। और थोड़े-थोड़े उत्पादन की जगह बड़े पैमाने पर उत्पादन आरंभ हो गया है ।इन सब से सामाजिक रिश्तो में भी बदलाव आया है। नई टेक्नोलॉजी ने मनुष्य के बीच परस्परता को सीमित कर दिया है। एक बटन दबाकर दुनिया को नापने का काम किया जाता है और मनवांछित फल प्राप्त कर लिया जाता है। आज मनोकामना पूर्ति के लिए भगवान पर भरोसा नहीं किया जाता, लोग अपने आप को ही भगवान बनाने में तुले हुए हैं। पूंजी बाजार के भूत पिचास प्रेत एक और शव साधना के लिए पूरी धरती को घेर रहे हैं। महामृत्युंजय मंत्र की समवेत स्वर साधना खत्म हो गई है।
प्रयोगशाला में नित नए नए विमान, मिसाइलें बनाई जा रही है जीवन उपयोगी वस्तुओं का निर्माण कम से कम होता जा रहा है। मुर्दों को भी बेचने की तैयारी की जा रही है। आज मनुष्य घर बैठे बैठे अपनी हजार हजार बाहों से दुनिया भर के काम निपटा लेता है। वह मुनाफे के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। लहू में डूबी मुद्रा को वह अपने भैतिक सुख सुविधाओं को खरीदने में उपयोग करता है। इतनी चकाचौंध है कि आंखें चौंधीया जाती है और आवाजों के शोर से कान बहरे होने लगते हैं ।लेकिन फिर भी मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, वह इन्ही में खुश है और अपने आपको इन्हीं में कहीं खो देता है। 21वी सदी का लोक इसी चकाचौंध और शोर के बीच कहीं खो गया है। लोक की किसी को जरूरत नहीं सब अपनी अपनी स्वर साधना में लगे हुए हैं। लोक तो एक कोने में पड़ा हुआ इनकी बढ़ोतरी को देखता जा रहा है और अपने घटते स्तर पर दुखी भी है।
गांव हो या शहर पारिवारिक या सामाजिक बंधन हर जगह विध्वंस दिखता है। संस्कृति तो कगार पर ही खड़ी है। आज लोकतंत्र में लोक फैला हुआ है। यह 21वीं सदी है तमाम तरह की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद भी लोगों में अंधविश्वास और जात पात की दुर्गंध पसरी हुई है। इसी चिंता के साथ रामकुमार कृषक 21वीं सदी के लोक को आदमी के लिए नहीं मानते। 'गांव गांव ना रहे, ना शहर शहर, हवा घुलता जहर, चौपाल पर राह हुई, चौराहे बरसा रहे कहर ,गांव गांव ना रहे।। गांव को नष्ट होते देख डॉक्टर प्रताप राव कदम राग दरबारी के गांव शिवपाल गंज से हर गांव की तुलना करते हैं । गांव में सरलता, उच्च जीवन मूल्यों का महत्व, परंपरा, भाईचारा, स्नेह है। सुख- शांति और आडंबर विहींन जीवन को जीने वाले लोग बसते हैं।
गांव अपने पर निर्भर होता है लेकिन स्वतंत्रता के बाद जैसे-जैसे देश का विकास हुआ इन गांव को शहर में तब्दील होने में देर न लगी। लगभग एक दौड़ सी शुरू हो गई है जिनमें सारे गांव शामिल हो गए हैं। और बाजारीकरण ने ग्रामीण अंचल को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। गांव की वह भोली भाली जनता आज अपने को पिछड़ा मानते हुए शहरीकरण को अपनाने में लगी हुई है। हर चीज बिकने लगी है चाहे वह संवेदना हो या रिश्ते।
प्रेमचंद के समय का गांव न जाने कहां खो गया है। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हर गांव पर डाका डाल दिया है और किसी भी हल्कू में इतना दम नहीं बचा कि वह अपनी लाठी से इन सब का मुकाबला कर सके। लोक कहीं ना कहीं पीछे छूट गया है। सुधीर विद्यार्थी अपने शब्दों में आलेख के माध्यम से प्रेमचंद के हल्कू और रेनू के मृंदगिया को नायक बनाकर अपनी बात समझाते हैं ।गांव की चौपाल खत्म हो गई ह,ै ना अलाव जलते हैं, ना दोपहर सांझ को तमाकू पीकर बातें होती है। गांव में अब धुआं उठता है तो केवल बैर भाव का। आल्हा, ढोला, भाग कोई नहीं गाता ,ना हंसी ठठ्ठा होता है। हर डोले पर पार्टी और चुनाव की लड़ाइयां होती ह,ै जिसमें हल्कू का दम घुटता है।
लोक संस्कृति की धीरे-धीरे मौत होने लगी है अली सैयद लोक जीवन के बहाने आदमी को ढूंढना चाहते हैं। वह ब्रह्मांड और समय को लोक से जोड़कर जीवन के परिवर्तन को परिभाषित करते हैं। कहने का अर्थ यह है कि तमाम ब्रह्मांड की यह घटनाएं हम पर और लोक पर लागू होती हैं। जैसे-जैसे ब्रह्मांड में बदलाव होते जाते हैं वैसे वैसे प्रकृति भी निरंतर परिष्कृत होती जाती है। हमारी जीवनशैली, हमारी संस्कृति, उपलब्धियां, हमारी तकनीकी दक्षताएं, हमारे संस्कार और सरकार हमारे जीवन अनुभव सभी के सभी अतीत की बुनियाद पर टिके हुए हैं। और हमारा भविष्य वर्तमान भी अतीत पर ही है। लोक हमेशा सरलता से जटिलता की ओर वृद्धि करता है। मनुष्य की बहु सांस्कृतिक अभिरुचि या खानपान ,रहन सभी समेकित रूप से लोक हैं। लोकजीवन वर्तमान और अतीत के अनुभवों का ज्ञान और विस्तार है।
घायल होते लोक पर चिंतन करते हरिराम मीणा कहते हैं राज धर्म व धन की सत्ता के साथ पूंजी की जो दुर्गी संधि चारों और दिखाई दे रही है उसी का परिणाम है राजनीतिक मूल्यों का पतन। धर्म के ठेकेदारों के फलते फूलते अपराध आश्रय और धन्ना सेठों का राज गलियारों में दबदबा दखल लोक की महिमा की शरण को बढ़ा रहा है। मानव की यात्रा सरल से जटिल की ओर अग्रसर होती है ।आदिम कबीलाई घुमक्कड़ से जब हम स्थाई बस्तियों के युग में प्रवेश करते हैं ,तब लोक समाज विकट होने लगता है। जहां सरल सहज स्वाभाविक जीवन शैली दिखाई देती है जो परंपरागत अनुभवजन्य ज्ञान पर आधारित होती है। लोककथा परंपरा केवल मनोरंजन की विधा नहीं है बल्कि यहां हमें कथा संदर्भित कालखंड से जीवन के परिचित होने का अवसर मिलता है। समय की गतिशीलता और परिवर्तनशील होने के कारण धीरे-धीरे लेाक अंधेरों से गुजरता हुआ नष्ट होने की कगार पर आ चुका है।
डॉक्टर दामोदर खडसे के शब्दों में पूरा देश समाज सांस्कृतिक रूप से उठा हुआ है। 21वीं शताब्दी का लोक अपनी विरासत को कंधे पर रखकर वर्तमान की यात्रा करते हुए बेहतरी के लिए संघर्ष कर रहा है। कोई भी समाज अपने अतीत को झूठला कर वर्तमान में भविष्य की योजना नहीं बना सकता। अर्थात लोक में काल का चित्र बना रहता है। समाज वर्तमान में तमाम वेतन विसंगतियों के साथ 21वीं शताब्दी में प्रवेष ले रहा है। शिक्षा का प्रसार तो हो रहा है पर मनुष्य की भीतरी तौर पर कोई उजाला नहीं दिखाई देता। आज भी समाज में आध्यात्मिकता के नाम पर छद्म बाबाओं के पीछे भीड़ लगी है। ऐश्वर्य, शराब और ऐसे बाबा भोग विलास में लिप्त हैं और भोले भाले लोगों को अपने आश्रम में खड़ा कर लेते हैं ।समाज को शिक्षित और आगे बढ़ाने का जिम्मा जिन पर है, समाज में उनकी स्थिति अत्यंत अत्यंत उपेक्षित है। प्राचीन काल में गुरु का स्थान था वह लुढ़क कर अब केवल नौकरी तक सीमित हो गया है। शहर सरपट विस्तार पा रहे हैं और गांव पिछढ़ते जा रहे हैं ।
कई मामलों में हम पश्चिमी सभ्यता को अपनी जानकर अपना लेते हैं। डॉ सुनीता खत्री के शब्दों में 21 वी शताब्दी के प्रारंभ में वैश्वीकरण और बाजारवाद संचार के रथ पर आरूढ़ होकर सामने आया। जिसने विश्व को एक ग्राम मे बदलने का कार्य किया है। वहीं सच्चाई यह है कि अपनी जड़ों को, अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति से भी उत्तेजित उच्चरित किए हुए हैं। आधुनिक होने के भुलावे में हमने अपने अतीत को अपनी परंपराओं से अलग कर दिया है। आज आधुनिकता के नाम पर युवा पीढ़ी अपनी परंपराओं अपनी रीति-रिवाजों से दूर होती जा रही है। जन जीवन में मूलय हीनता, असुरक्षा और अध्ययन का साम्राज्य दिखता है। उपभोक्तावाद ने केवल हमें अपनी जमीन से उखाड़ फेंका है बल्कि हमारी संवेदनाएं मूल्यों और मर्यादाओं को हम से अलग कर हमें ऐसी अंधेरी सुरंग में फेंक दिया है, जहां से ना धर्म दिखता है और ना ही मां की गोद की गर्माहट मिलती है।
लोक कलाओं को उद्घाटित करते हुए वसंत निर्गुण अपने आलेख में लिखते हैं कि परंपरा का आधुनिकता के साथ विरोध नहीं है लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा की परंपरा में ही आधुनिकता के अंकुर फूटते हैं। आज हमारी कला परंपरा अपने उत्तरदायित्व को भूलती जा रही है कि किस प्रकार आज आधुनिकता के समय में हम अपनी पुरातन संस्कृति को भूल गए हैं। लोगों के मन में संस्कृति बैठी है। मनुष्य प्रकृति का निर्माता नहीं है ,लेकिन संस्कृति का निर्माता है। प्रकृति किसी आदृष्य शक्ति से संचालित होती है और मनुष्य द्वारा निर्मित संस्कृति स्वयं मनुष्य संचालित करता है । संस्कृति समय से प्रभावित होती है। संस्कृति के अंदर मुख्य दो तत्व मौजूद होते हैं एक वे जो सदैव अपरिवर्तनीय रहते हैं और दूसरे जिन्हें हम सार्वजनिक कह सकते हैं, और लोगों के अनुसार में बदलते रहते हैं । लोक साहित्य में बाजार संस्कृति का प्रवेश लोग को बिगाड़ने का काम कर रहा है।इस बाजार में जो सबसे बड़ी दिक्कत है उसमें एक बात की ओर ध्यान कम ही जाता है की लोक संस्कृति और मूल्यों के संदर्भ में लोग अधिक सक्रिय नहीं है।
अपने चिंतन के साथ भालचंद्र जोशी अपने आलेख में कहते हैं कि हमारे लोक का इतिहास इतना समृद्ध है कि उसके संग्रह पुर्नलेखन और विश्लेषण को लेकर सजगता बहुत जरूरी है क्योंकि यह धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। बाजार लोक की ऐसी सम्मेलन उपस्थिति को बेदखल करना चाहता है। संवेदनाओं की अनुपस्थिति बाजार का आकर्षण खत्म नहीं होने देती। संवेदना रहित व्यक्ति बाजार का सबसे अच्छा उपभोक्ता होता है लेकिन दिक्कत यह है कि लोक में लोक संस्कृति होगी तो ही बाजार और लोक कलाओं के माध्यम से उन्नति हेागी लेकिन यह सब बाजार को बढ़ाने नहीं देती।
अपने आलेख में श्याम बाबू शर्मा कहते हैं कि मनुष्य के विकास का सबसे बड़ा माध्यम उसकी संस्कृति है। वैज्ञानिक युग में संस्कृति का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। गांव नगर हो रहे हैं, उद्योग, मिले, फैक्ट्रियां स्थापित हो रहे हैं। वैज्ञानिक लोगों को पथ भ्रमित कर रहे हैं ।गांव में सहेजा लोकजीवन भौतिकता की चपेट में आकर अपना वर्चस्व खोता जा रहा है। लोग घरों से निकलकर बाजार में आ गए हैं उनका पहनावा खानपान सब बदल गया है।
शहरी बाजार अपने उफान पर है जबकि ग्रामीण बाजार और लोक जीवन एक नई शक्ति के साथ खड़े देखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा और अपने आप को स्थापित करने के लिए लोक जीवन और लोक बाजार को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। पहले भले ही शिक्षा का अभाव था लेकिन लोक को सहेजने वाले लोग बहुत थे। आज विकास के नाम पर देश में कुकुरमुत्ता की तरह फैली हुई वैश्विक कंपनियां इस लोक को दबाने में लगी हुई है। पूरी धरती की संस्कृति को नष्ट कर अपने आप को एक मात्र वर्चस्व युक्त बनाने में जुटी हुई है। नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम से निकाल दी गई है जिससे लोगों को मूल्यों के बारे में जानकारी मिले ।लेकिन भारतीय जीवन की मूल चेतना लोक चेतना को कोई नहीं नकार सकता। हम कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन मन में रची बसी लोक की भावनाओं को हम नहीं हटा सकते हैं।
इस तरह आज लोक चिंतन बहुत जरूरी हो गया है। मृत्यु के कगार पर खड़ा लोक आज विचारणीय स्थिति में है कि उसे किस प्रकार बचाया जाए। अकाल, महामारी, अशिक्षा पहले भी थी लेकिन लोग को सहेजने वाले लोग थे, इसलिए मौत ,घटनाएं हमें विचलित नहीं करती थी। आज हम एक नया लोक तैयार कर रहे हैं जिसमें जातिगत वैमनस्यता, सामाजिक रूढ़ी वादिता, वैचारिक पिछड़ापन और धार्मिक संकीर्णता कूट-कूट कर भरी हुई है। जातियों का आधुनिकरण हुआ है।
प्रगतिशीलता ने हमें अपने आप से ही जुदा कर दिया है। सारे बाजार की अर्थव्यवस्था गूंगी बहरी हो गई है । कोई किसी को नहीं सुनना चाहता। हत्या, हिंसा, मारपीट, व्यभिचार अपराधों की श्रेणी बढ़ने लगी है। आज इंसान मंगल ग्रह पर भी ध्वजा फहराने में लगा हुआ है लेकिन अपनी हि जड़ों में कहां से कहां आ गया है। वह खुद को पहचान नहीं पा रहा है कि वह कहां से कहां आ गया है। भूखवाद ने संस्कृति को कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है ।
विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं को भी बाजार में उतार दिया गया है। लोक बहुत विस्तृत मानसिकता का है वह संकुचित दृष्टियां नहीं अपनाता। वह राजा पर भी सवाल करता है और आम लोगों से भी। उसकी पाप पुण्य की परिभाषाएं भी अलग-अलग है। आधुनिकता की दौड़ में हम लोग को अपडेट करने पर तुले हुए हैं।
लेकिन लोक मरा नहीं है बल्कि हमारे मन में ही कहीं दब गया है। लोक जीवन जगत से बना है ।केवल गांव कस्बे और शहर से नहीं बल्कि संपूर्ण सृष्टि से बना है। वह आधुनिकता में भी जीता है और रूढ़िवादिता में भी। इस पृथ्वी पर निवास करने वाले सर्वसाधारण जनमानस में लोक विद्यमान हैं । वहं सिर्फ लेाक ही है जो मानव को मानव बनाता है। उसमें स्त्री-पुरुष का भेद नहीं ,है सभ्यता का भेद नहीं है वह केवल पशुओं को मनुष्य से अलग करता है। वह तुलसी और कबीर का लोक है सगुण और निर्गुण का लोक है। वहां आत्मा और परमात्मा का लोक है जो मनुष्य को मनुष्यता से जोड़ देता है।
हमारे पूर्वजों द्वारा दी गई अमूल्य सौगात जो धर्म ,विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में हमें उन्नत करती है। उस सारे विस्तार एवं गौरव को हम लोक के रूप में धारण करते हैं और उसके तेज को अपने भावी जीवन में साक्षात देखते हैं। यही हमारे राष्ट्र का स्वाभिमान है और हमारा भी। यहां हम अतीत वर्तमान और भविष्य के लिए अपनी संतति को सुरक्षित कर सकते हैं ।हमारे भूत में हुई भूले भविष्य में सुधार सकते हैं और अपने लोक को पुष्ट बनाने के लिए कदम आगे बढ़ा सकते हैं एवं एक सुदृढ राष्ट्र की कल्पना को साकार कर सकते हैं।