मोदी की विदेश नीति पर सवालिया निशान
नरेन्द्र मोदी सरकार जिस विदेश नीति पर चल रही है, उसके संभावित नुकसान के बारे में राहुल गांधी काफी पहले से आगाह करते रहे हैं;
नरेन्द्र मोदी सरकार जिस विदेश नीति पर चल रही है, उसके संभावित नुकसान के बारे में राहुल गांधी काफी पहले से आगाह करते रहे हैं। लेकिन कभी भी नेता प्रतिपक्ष श्री गांधी की सही सलाह को मोदी सरकार ने नहीं सुना, बल्कि भाजपा नेता उन्हें राजनीति का नौसिखिया साबित करने में लगे रहे या फिर उनके बयानों से देशविरोधी ताकतों को बल मिलता है, ये आरोप लगाते रहे। अभी डोनाल्ड ट्रंप के युद्धविराम के दावों को लेकर भी राहुल गांधी ने जो सवाल किए उसके बाद भाजपा नेताओं ने यहां तक कह दिया कि राहुल गांधी पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं और उन्हें निशान-ए-पाकिस्तान से नवाज़ा जाएगा। घरेलू राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं, लेकिन विदेश नीति में सारे दल अब तक एकजुटता दिखाते रहे हैं, मगर अब मोदी सरकार में यह परंपरा भी टूट चुकी है। अब विदेश नीति मोदीनीति के तौर पर प्रस्तुत की जा रही है।
ऑपरेशन सिंदूर को लेकर 33 देशों में भेजा गया सर्वदलीय प्रतिनिधमंडल इसकी मिसाल है। भारत के पहले भी पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध हुए, कभी भी भारत ने पहले हमला नहीं किया, बल्कि परिस्थितियां संभालने के लिए उसे हथियार उठाने पड़े। यह बात पूरी दुनिया में अकाट्य सत्य की तरह बनी हुई है, इसलिए इससे पहले भारत को कभी भी अपना पक्ष रखने के लिए सांसदों, राजनयिकों की टोली देश-देश नहीं भेजनी पड़ी। इस बार भी भारत ऐसा कुछ न करता तब भी दुनिया ऑपरेशन सिंदूर पर सवाल नहीं करती। क्योंकि जैसा हमेशा हुआ, अब भी वैसा ही हुआ कि सीमापार से आतंकी हमारी धरती पर आए, हमला किया, निर्दोष नागरिकों को मारा और तब जाकर भारतीय सेना ने पाकिस्तान के आतंकी अड्डों पर हमला किया। पाकिस्तान ने पलटवार करने के लिए जो कदम उठाए, भारत ने उनका भी तगड़ा जवाब दिया।
अफसोस है कि पुंछ जैसे सीमाई इलाकों में निर्दोष नागरिकों की मौत हुई, लेकिन यहां सेना की नहीं सरकार की गलती थी, कि उसने पहले से नागरिक सुरक्षा के इंतजाम नहीं किए। बाकी जिन शहरों या सैन्य अड्डों को पाकिस्तान ने निशाना बनाने की कोशिश की, वो सारी हमारी रक्षा प्रणाली ने नाकाम कर दी थी। लेकिन इस बीच डोनाल्ड ट्रंप ने बीच में आकर सब गड़बड़ कर दिया। ट्रंप की मध्यस्थता से भारत युद्ध विराम के लिए सहमत हुआ यह संदेश तो पूरी दुनिया में गया ही, क्योंकि भारत ने अब तक इसका खंडन नहीं किया है। दूसरी तरफ पाकिस्तान को भी बढ़कर बोलने और खुद को पीड़ित की तरह पेश करने का मौका मिला। मोदी सरकार की विदेश नीति की यह सबसे बड़ी असफलता थी कि जिन देशों ने पहलगाम हमले के तुरंत बाद भारत के लिए सहानुभूति दिखाई, उनमें से कोई ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद भारत के साथ खड़ा नहीं रहा, अफगानिस्तान को छोड़कर।
अब प्रधानमंत्री मोदी देश में तो खुद घूम-घूमकर ऑपरेशन सिंदूर का श्रेय लेने और उस पर राजनीति करने में लगे हैं, उधर उनका पक्ष रखने के लिए विदेशों में गया प्रतिनिधिमंडल भी भारत के पक्ष में माहौल बनाने में किस हद तक सफल होगा, यह विचारणीय है। क्योंकि इन प्रतिनिधिमंडलों की बैठकें अमूमन सामाजिक संगठनों, विचार मंचों, और वहां के प्रवासी भारतीय समुदाय से हो रही हैं, बहुत कम देशों में सरकार के साथ उच्च स्तरीय बैठक इन दलों की हुई है। जबकि विदेश नीति के मसले, किस देश को किस मुद्दे पर कितना साथ देना है, ऐसे फैसले सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोग ही तय करते हैं, जो नीति निर्धारक होते हैं असल शक्ति उनके हाथों में होती है, और इन लोगों के साथ सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल की बैठकें हुई हैं, ऐसा देखने नहीं मिला। मेहमाननवाजी के तकाजे के हिसाब से अपने देश आए भारतीय प्रतिनिधिमंडल को हर देश सम्मान दे रहा है, उनकी बात सुन रहा है, आतंकवाद की निंदा भी कर रहा है, लेकिन क्या मोदी सरकार का मकसद केवल यही था। अगर ऐसा ही समर्थन जुटाना था तो फिर इन तमाम देशों में भारतीय दूतावास इस जिम्मेदारी को पूरा कर सकते थे। अच्छी, मनलुभावन बातें करने के लिए क्या जनता के धन पर इन प्रतिनिधिमंडलों को भेजा गया है।
खास तौर पर अमेरिका की बात करें तो भारतीय प्रतिनिधिमंडल के पहुंचने के बाद डोनाल्ड ट्रंप के बयान में कोई बदलाव आया, यह परखना चाहिए। क्योंकि मकसद तो भारत को सही और पाकिस्तान को गलत दिखाना है। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ऐसी कोई खबर नहीं आई कि ट्रंप का कोई बयान परिवर्तन हुआ हो। बल्कि अब इस प्रतिनिधिमंडल के बाद विदेश सचिव विक्रम मिस्री और राष्ट्रीय सुरक्षा उपसलाहकार पवन कपूर भी अमेरिका जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि उनकी यात्रा का मकसद अमेरिका को यह समझाना ही है कि भारत और पाकिस्तान अपने मसले खुद सुलझा सकते हैं और इसमें किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं है। अमेरिका के पाकिस्तान के साथ बढ़ते व्यापारिक संबंधों को लेकर भी भारत अपनी चिंता व्यक्त कर सकता है। अब सरकार के इन दो प्रतिनिधियों से क्या ट्रंप को पाकिस्तान का साथ देने से रोका जा सकेगा, यह विचारणीय है। वैसे गौरतलब है कि शशि थरूर के नेतृत्व में गए प्रतिनिधिमंडल ने वहां अलग-अलग मंचों से आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात रखी, लेकिन इन मंचों पर ट्रंप सरकार का कोई नुमाइंदा रहा हो, ऐसी खबर नहीं थी।
इधर फ्रांस भी भारतीय दल पहुंचा है, लेकिन खबर ये भी है कि राफेल बनाने वाली दसॉ एविएशन ने भारत के साथ इस लड़ाकू विमान का सोर्स कोड यानी उसे चलाने वाला सॉफ्टवेयर या उसकी प्रोग्रामिंग भारत के साथ साझा करने से इंकार कर दिया है। भारत को अगर यह सोर्स कोड मिलता तो उसे अपने रक्षा उपकरणों को आगे जाकर अपग्रेड करने में मदद मिलती। मगर फ्रांसीसी कंपनी के इंकार के बाद अब भारत फिर से अपने पुराने परखे दोस्त रूस से सहायता लेने जा रहा है। रूस में बनने वाले एस यू 57 लड़ाकू विमान भारत खरीदने पर विचार कर रहा है और रूस ने इसकी तकनीकी जानकारी भारत के साथ साझा करने पर सहमति जताई है। यानी घूमफिर कर रूस ही हमारा मददगार साबित होता है। लेकिन फिर भी देश अमेरिका को लेकर दीवानगी दिखाता है, यह दुखद है।
कुल मिलाकर आज की तारीख में यही नजर आ रहा है कि मोदी सरकार बिना सोचे समझे वैश्विक, वैदेशिक संबंधों पर आगे बढ़ रही है, उसमें देश का नुकसान हो रहा है।