नफ़रत के खिलाफ असहयोग आंदोलन
नफरत का संचार मॉडल वैश्विक पटल पर एक स्थापित मॉडल है;
- मोहित कुमार पांडेय
नफरत का संचार मॉडल वैश्विक पटल पर एक स्थापित मॉडल है। 'रवांडा रेडियो' जैसे संचार मॉडलों के उदाहरणों से पता चलता है कि कैसे मीडिया की ऑडीओ विजुअल तकनीक का प्रयोग कर समाज में व्यापक स्तर पर नफ़रत के बीज बोए जाते हैं। न्यूजलौंड्री की एक रिपोर्ट ने पिछले साल इन 14 एंकरों में से कुछ एंकरों के कार्यक्रमों का अध्ययन किया। इस लिस्ट में मौजूद पूर्व में डीएनए नाम से कार्यक्रम करने वाले एक एंकर ने कुल 73 में से 28 बहसें साम्प्रदायिक मुद्दों पर कीं, जबकि महंगाई पर मात्र 2 व रोज़गार के मुद्दे पर 0 बहसें की।
हाल ही में इंडिया गठबंधन ने मीडिया के कुछ एंकरों की एक लिस्ट जारी करते हुए कहा कि वे अमुक एंकरों के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लेंगे। हालांकि इंडिया गठबंधन द्वारा जारी वक्तव्य में उनका मंतव्य बहुत स्पष्ट नहीं था, लेकिन बाद में उनकी तरफ से आए बयानों से ये साफ हुआ कि इंडिया गठबंधन की पार्टियों के प्रवक्ता इन एंकरों द्वारा चलाई जा रही नफरती बहसों का हिस्सा नहीं बनेंगे। गौर करने वाली बात यह है कि इंडिया गठबंधन के वक्तव्य में न तो चैनलों के बहिष्कार की बात थी और न ही उनके कार्यक्रमों पर रोक लगाए जाने की बात। इंडिया गठबंधन ने नफरती टीवी कार्यक्रमों के साथ असहयोग करने की उस बात को अपने वक्तव्य में शामिल किया, जिसे जनता, बुद्धिजीवियों व पत्रकारों का एक हिस्सा काफी दिनों से कह रहा है। ये पहली दफा नहीं है कि नफरत फैलाने वाले टीवी कार्यक्रमों के खिलाफ आवाज उठी है। हम जमीन से आने वाली मीडिया बाइटों, ढेर सारे आंकड़ों में ये बात देखते रहते हैं कि नफरत के कंटेंट से ऊब व जनता के मूल मुद्दे नदारद होने के चलते कई लोगों ने कहा है कि उन्होंने टीवी देखना छोड़ दिया है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जब हम मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहते हैं, तो बाकी खम्भों की तरह उसे भी परखने व उसकी गलतियों को उजागर करने की जिम्मेदारी जनता से जुड़ी संस्थाओं व स्वयं जनता की होती है। चैनलों के न्यूजरूम में होने वाली बहसों, बहसों को फ्रेम करने के तरीकों, बहसों के ग्राफ़िकों व बहसों के दौरान होने वाली जूतम-पैजार से असहमति दिखाने का अधिकार भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में आता है। समय-समय पर भारत के न्यायालयों ने अपने आदेशों या टिप्पणियों में भी ये कहा है कि अगर आप किसी कंटेंट से सहमत नहीं हैं तो आप उसे मत देखिए।
इंडिया एक राजनीतिक पार्टियों का गठबंधन है, जिसे अंतत: वोट मांगने के लिए जनता के बीच में जाना होता है। अगर कल को इन पार्टियों के नेताओं से जनता की ओर से ये सवाल पूछा गया कि आप उन बहसों का हिस्सा क्यों बनते हैं जिनसे रोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे गायब हैं और जिनमें केवल नफरत को परोसा जाता है, तो इन नेताओं को जनता के बीच जवाब तो देना पड़ेगा।
इस मुद्दे पर कई पत्रकारों, इन 14 एंकरों व कई अन्य लोगों की तरफ से बहस छेड़ी गई कि ये प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है। सत्ताधारी दल भाजपा ने तो इसकी तुलना 'आपतकालÓ से तक कर डाली। लेकिन गौरतलब है कि किसी ने ये तर्क नहीं दिया कि इंडिया गठबंधन का ये फ़ैसला क्या किसी पत्रकार की आवाज दबा रहा है? क्या इस फैसले ने इन पत्रकारों की आवाज को नियंत्रित करने का प्रयास किया है? इंडिया गठबंधन ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के एक मजबूत हथियार 'असहयोगÓ को अपनाते हुए जनता की भावना को अपने प्लेटफ़ॉर्म से रखा है और कहा है कि वे अब नफरत के तले आम जनता के मुद्दों को दबाने वाले संचार मॉडल का हिस्सा नहीं बनेंगे।
नफरत का संचार मॉडल वैश्विक पटल पर एक स्थापित मॉडल है। 'रवांडा रेडियोÓ जैसे संचार मॉडलों के उदाहरणों से पता चलता है कि कैसे मीडिया की ऑडीओ विजुअल तकनीक का प्रयोग कर समाज में व्यापक स्तर पर नफ़रत के बीज बोए जाते हैं। न्यूजलौंड्री की एक रिपोर्ट ने पिछले साल इन 14 एंकरों में से कुछ एंकरों के कार्यक्रमों का अध्ययन किया। इस लिस्ट में मौजूद पूर्व में डीएनए नाम से कार्यक्रम करने वाले एक एंकर ने कुल 73 में से 28 बहसें साम्प्रदायिक मुद्दों पर कीं, जबकि महंगाई पर मात्र 2 व रोज़गार के मुद्दे पर 0 बहसें की। उसी तरह से एक अन्य एंकर ने 'सवाल पब्लिक काÓ नाम से आने वाले कार्यक्रम में 68 में से साम्प्रदायिक मुद्दों पर 29 बहसें कीं और रोज़गार व महंगाई के मुद्दे पर 0 बहसें कीं। एक अन्य एंकर, जिन्होंने इंडिया समूह के इस एक्शन को प्रेस पर हमला बताया, उन्होंने 'आर-पारÓ के नाम से आने वाले अपने कार्यक्रम में 68 बहसों में से 43 बहसें साम्प्रदायिक मुद्दों पर कीं और रोज़गार व महंगाई के मुद्दे पर 0 बहसें कीं।
ग़ौरतलब है कि ये आंकड़े टीवी मीडिया में लहलहाती हुई नफरत की फसल के तले आम जनता के मुद्दों को रौंदने की हकीकत को दर्शाते हैं। मीडिया की एजेंडा सेट करने की ताकत की वजह से समाज में मीडिया की भूमिका बहुत अहम है। तब ऐसे में से नफरत की फसल बोने वाली मीडिया के साथ असहयोग करना मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला तो कतई नहीं है। आखिरकार ये भी जनता के बीच से उठी आवाज है। विपक्षी दलों ने जनता की आवाज का सम्मान करते हुए नफ़रत को पोषण देने वाले कार्यक्रमों से असहयोग का कदम उठाया है। ग़ौरतलब है कि ठीक इसके उलट सरकार की तरफ से कई मर्तबा टीवी कार्यक्रमों को हटवाया गया है, खबरों को डिलीट करवाया गया है और सरकार के खिलाफ रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को चिन्हित करने जैसे कदम उठाए गए हैं।
अपने इस फैसले से विपक्षी गठबंधन ने सत्ता के निरंकुश बल का इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि अपने नैतिक बल का इस्तेमाल करते हुए कहा है कि 'हम आपकी नफ़रत की मशीनरी का हिस्सा नहीं बनना चाहते।Ó शायद ये मीडिया के नैतिक मूल्यों को वापस पाने की कवायद में एक बड़ा कदम साबित हो। मीडिया संस्थाओं को इस कदम को एक आईने की तरह लेना चाहिए और दिखाना चाहिए कि जनता के मुद्दे अभी भी उसके केंद्र में हैं। मीडिया की नफरती मशीनरी के खिलाफ नैतिकता से भरा ये असहयोग आंदोलन शायद फिर से जनता के मुद्दों को मीडिया बहसों के केंद्र में लाए।
(लेखकर संचार विशेषज्ञ है)