100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली मानने के मायने क्या?

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को जारी आदेश में अरावली पहाड़ियों और रेंज (पर्वतश्रृंखला) को परिभाषित किया है;

Update: 2025-12-23 13:36 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को जारी आदेश में अरावली पहाड़ियों और रेंज (पर्वतश्रृंखला) को परिभाषित किया है. लेकिन इस विवादित परिभाषा के मायने क्या हैं? और क्या इससे खनन को बढ़ावा मिलेगा?

अरावली पर्वतमाला भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है. यह दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक करीब 37 जिलों में फैली हुई है. बीते कई वर्षों से अरावली क्षेत्र में खनन, निर्माण गतिविधियों और भूमि उपयोग को लेकर लगातार विवाद सामने आते रहे हैं. इसी संदर्भ में एक याचिका दायर की गई. सवाल उठाया गया कि जिन क्षेत्रों में खनन हो रहा है, वे वास्तव में अरावली पहाड़ियों के अंतर्गत आते हैं या उनके दायरे से बाहर हैं. एक अन्य याचिका में यह भी प्रश्न किया गया कि अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रेणियों में खनन गतिविधियों को जारी रखना सार्वजनिक हित की दृष्टि से कितना उचित है.

पिछले वर्ष सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हर राज्य अरावली पहाड़ियों और रेंज की परिभाषा अलग-अलग तरीके से तय कर रहे हैं. जिसके चलते अवैध खनन होता है. इसी कारण भ्रम और विवाद की स्थिति भी बनी हुई है. इस समस्या को हल करने के लिए अदालत ने एक समिति बनाने का आदेश दिया. इस समिति का काम सभी राज्यों के लिए अरावली की एक ही स्पष्ट परिभाषा तय करना था. पिछले वर्ष मई में केंद्रीय सशक्त समिति (सीईसी) का गठन किया गया.

इस समिति में भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सचिव शामिल थे. साथ ही दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के वन विभाग के सचिव, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) के प्रतिनिधि भी समिति का हिस्सा बने. एफएसआई ने अपनी रिपोर्ट में अरावली पर्वत या हिल और अरावली रेंज को परिभाषित किया है.

हाल ही में 20 नवंबर को अदालत ने भी इस परिभाषा को मान्यता दे दी है. रिपोर्ट में बताया गया है कि किसी पहाड़ी को अरावली का हिस्सा तभी माना जाएगा, जब उसकी ऊंचाई 100 मीटर या उससे अधिक होगी. इसके लिए यह देखा जाएगा कि उस पहाड़ी के आसपास सबसे नीची जमीन कहां है. दोनों की ऊंचाई में फर्क से अरावली का पता लगाया जाएगा. वैज्ञानिक भाषा में कहें तो यह फैसला लोकल रिलीफ के मानक से लिया जाएगा और न कि औसत समुद्र तल (मीन सी लेवल) से.

क्यों हो रहा है विरोध?

पर्यावरण एक्टिविस्ट, विशेषज्ञ और शोधकर्ता मानते हैं कि यदि 100 मीटर से नीचे की सभी पहाड़ियों में खनन की अनुमति दे दी जाती है, तो अरावली अपना अस्तित्व खो देगा. अत्यधिक विकास और निर्माण से पहाड़ियों का पर्यावरण और इकोलॉजी तबाह हो जाएगी. परति भूमि विकास समिति के फाउंडर जुनैद खान मानते हैं कि अदालत में मामला खनन से जुड़ा था. ऐसे में अरावली को परिभाषित करने की कोई जरुरत नहीं थी. डीडब्ल्यू से बात करते हुए वह कहते हैं," राजस्थान के पूर्व सीएम कैलाश गेहलोत ने वर्ष 2003 में 100 मीटर वाली इस परिभाषा की सिफारिश की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2010 में इसे खारिज कर दिया था. अब वर्ष 2010 के उन्हीं मानकों पर, इस परिभाषा को मंजूरी दे दी गई है."

पीपल फॉर अरावली की फाउंडर नीलम आलूवालिया डीडब्ल्यू से कहती हैं, "20 नवंबर को अरावली पर्वतमाला से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला मिला-जुला है. अदालत ने कहा कि जब तक पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पूरे अरावली क्षेत्र के लिए भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद के माध्यम से सतत खनन के लिए प्रबंधन योजना (एमपीएसएम) तैयार कर उसे अंतिम रूप नहीं दे देता, तब तक अरावली क्षेत्र में कोई भी नई खनन लीज नहीं दी जाएगी."

वह आगे कहती हैं, "लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों की समान परिभाषा को स्वीकार कर लिया है. यह चिंता का विषय है. इसका मतलब यह है कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली कई पहाड़ियां अरावली श्रृंखला से बाहर मानी जाएंगी और उन पर खनन की अनुमति दी जा सकती है. अरावली की पहाड़ियां पश्चिम की तरफ से आने वाली गर्म हवाओं और धूल भरी आंधियों को रोकती हैं. ये पहाड़ियां एक तरह की दीवार का काम करती हैं. इन्हें नुकसान पहुंचने पर पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली‑एनसीआर के क्षेत्रों में धूल भरी आंधियां और सूखा बढ़ जाएगा."

पहाड़ियों का पता लगाने के लिए क्या है वैज्ञानिक तरीका

पर्वतों की पहचान के लिए भूविज्ञान और भौगोलिक दोनों तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है. चट्टानों की संरचना, धरातल की ताकत, खनिज और मिट्टी, आदि को जांचा जाता है. साथ ही पहाड़ का क्षेत्रफल, ऊंचाई, ढलान की दिशा और आसपास के पर्यावरण को भी देखा जाता है. उसके बाद ही किसी निर्माण या खनन की इजाजत मिलती है.

आईएनएसए एमेरिटस साइंटिस्ट और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. डीएम बनर्जी बताते हैं कि 100 मीटर का नियम भूवैज्ञानिक हकीकत को पूरी तरह नहीं दर्शाता. कई छोटी ऊंचाई वाली पहाड़ियां, जो अरावली श्रृंखला से जुड़ी हैं, बाहर हो जाएंगी. भले वे वास्तव में अरावली का हिस्सा हों.

डॉ. डीएम बनर्जी कहते हैं, "अरावली रेंज को भूवैज्ञानिक दृष्टि से दो मुख्य समूहों में बांटा गया है. अरावली सुपरग्रोप इसके सबसे पुराने हिस्से को कहते हैं. दूसरा दिल्ली सुपरग्रोप है. इन दोनों की वजह से भूवैज्ञानिक अरावली की संरचना और उम्र को समझ पाते हैं."

वह आगे कहते हैं, "भूवैज्ञानिक ऊंचाई मापते समय हमेशा समुद्र तल (एमएसएल) को बेसलाइन मानते हैं. हम एवेरेस्ट को सबसे ऊंचा पहाड़ कहते हैं क्योंकि वो समुद्र तल से ऊंचा है. न की क्योंकि वो आसपास की जमीन से ऊंचा है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में लिखा है लोकल रिलीफ से अरावली की ऊंचाई देखी जाएगी. केवल फिजिकल मानकों पर किसी पहाड़ को नहीं परिभाषित कर सकते. यह अवैज्ञानिक है. भूवैज्ञानिक तथ्य को भी ध्यान में रखना होता है."

राजस्थान, दिल्ली और हरयाणा को ज्यादा नुकसान

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व उप महानिदेशक और ‘राजस्थान का भूविज्ञान' किताब के लेखक डॉ. मनोरंजन मोहंती ने डीडब्ल्यू से बात की. वह बताते हैं कि चट्टानों और पर्वत श्रृंखलाओं की पहचान टेक्टॉनिक प्लेटों और समय के आधार पर की जाती है. यानी यह देखा जाता है कि वे कैसे और किस समय बनीं. यह भी एक मानक है. लेकिन अब अरावली की ऊंचाई तय करने के लिए लोकल रिलीफ का इस्तेमाल किया जाएगा. जिसके लिए कंटूर लाइन का उपयोग होता है.

डॉ. मनोरंजन मोहंती इसे समझाते हैं. जब गंगीय मैदानी क्षेत्र (गेंजेटिक अलूवियल प्लेन) में पूर्व या उत्तर‑पूर्व दिशा में बढ़ते हैं, तो भूमि धीरे‑धीरे समतल मैदानों में बदल जाती है. पहाड़ों का एलिवेशन या ऊंचाई कम होने लगती है. लोकल रिलीफ यानी किसी चुने हुए क्षेत्र में सबसे ऊंचे और सबसे नीचे बिंदु की ऊंचाई घटती है.

डॉ. मनोरंजन मोहंती बताते हैं, "अरावली में लोकल रिलीफ या ऊंचाई हर क्षेत्र में सामान नहीं होगी. अगर आप दक्षिण से उत्तर अरावली की ओर यात्रा करें, यानी गुजरात से राजस्थान होते हुए दिल्ली और हरियाणा तक, तो आप धीरे-धीरे गंगीय मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करते हैं. इस क्षेत्र की भूमि प्राकृतिक रूप से कम ऊंची होती है. एलिवेशन कम होता जाता है. जैसे दिल्ली और हरियाणा में, ऊंचाई का लेवल गुजरात की तुलना में काफी कम होगा. गंगा, यमुना और अन्य नदियां इस क्षेत्र में बहती हैं. जिसके चलते पहाड़ियों पर कटाव या एरोशन भी ज्यादा होता है. इस वजह से पहाड़ियों की ऊंचाई उत्तर की ओर यात्रा करते हुए घटती जाती है.”

क्या कहती है सरकार

एफएसआई के आंतरिक आंकड़ों के अनुसार, राजस्थान में कुल 12,081 पहाड़ी ढलान वाले क्षेत्र हैं जिनकी ऊंचाई 20 मीटर से ऊपर है. उनमें से केवल 1,048 पहाड़ियां ही 100 मीटर से अधिक ऊंची हैं. लगभग 8.7 प्रतिशत ही मानदंड पूरा करती हैं. एक्टिविस्ट मानते हैं कि राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा में खनन गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा. वहां रियल एस्टेट और औद्योगिक क्षेत्र विकसित होंगे. विदेशी कंपनियां इसका फायदा उठाएंगी.

हालांकि प्रतिक्रिया देते हुए पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने दावा किया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर परिभाषा से अरावली क्षेत्र का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा 'संरक्षित क्षेत्र' की श्रेणी में आ जाएगा. उन्होंने मीडिया से कहा, "अरावली के कुल 1.44 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में, खनन केवल 0.19 प्रतिशत क्षेत्र में ही संभव है. बाकी पूरे अरावली क्षेत्र को संरक्षित और सुरक्षित रखा गया है. खनन का प्रभाव अरावली पर बहुत ही सीमित रहेगा."

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