मोदी ने संसद को सरकार का रसोई घर बना दिया
जिन बातों की जानकारी दुनिया के तमाम देशों को देने के लिए भारत के वर्तमान व पूर्व सांसद और राजदूत आदि भेजे गए हैं;
- अनिल जैन
जिन बातों की जानकारी दुनिया के तमाम देशों को देने के लिए भारत के वर्तमान व पूर्व सांसद और राजदूत आदि भेजे गए हैं, उन्हीं बातों को संसद में बताने से सरकार क्यों कतरा रही है? भारतीय सेना की ओर से हर दिन एक नया वीडियो जारी किया जा रहा है, जिनमें बताया जा रहा है कि सेना ने कैसे ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम दिया।
बात 1962 के अक्टूबर-नवंबर की है। भारत और चीन के बीच युद्ध चल रहा था। यह युद्ध भारत के उत्तर और पूर्वी सीमा क्षेत्र में चीन के हमले के बाद शुरू हुआ था। तब भारत को आजाद हुए महज 15 साल हुए थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता चरम पर थी और वे लोकसभा में लगभग तीन चौथाई बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने हुए थे। देश पर कांग्रेस का एकछत्र राज था। कांग्रेस के मुकाबले संख्या बल के लिहाज से विपक्ष आज के मुकाबले कितना कमजोर था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी थी, जिसके लोकसभा में महज 27 सदस्य थे। बाकी विपक्षी पार्टियों के संख्या बल का अंदाजा लगाया जा सकता है।
युद्ध के दौरान भारतीय जनसंघ (आज की भाजपा) की ओर से यह नहीं कहा गया था कि हम पूरी तरह भारतीय सेना और सरकार के साथ हैं। यह कहने के बजाय जनसंघ की ओर से जगह-जगह नेहरू सरकार की रक्षा और विदेश नीति की आलोचना करते हुए प्रदर्शन किए जा रहे थे। यद्यपि सर्वदलीय बैठकों में नेहरू और उनके मंत्री विपक्ष के तमाम सवालों का जवाब दे चुके थे लेकिन जनसंघ के युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी लगातार संसद की आपात बैठक बुलाने के मांग कर रहे थे, जिस पर नेहरू ने युद्ध के दौरान 8 नवंबर को संसद का विशेष सत्र बुलाया। कुछ विपक्षी सांसदों ने संसद का 'गोपनीय सत्र' बुलाने का भी सुझाव दिया था, जिसे नेहरू ने यह कहते हुए नकार दिया था कि लोकतंत्र में जनता को उसके द्वारा चुनी गई संसद की कार्यवाही के बारे में जानकारी होना चाहिए।
पूरे एक सप्ताह तक चले संसद के उस सत्र में नेहरू ने कहा था, 'चीन ने हमारे साथ धोखा किया है।'' उन्होंने यह मानने में भी कोई संकोच नहीं दिखाया था कि भारत इस हमले के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। पूरे एक सप्ताह तक चले उस सत्र में ही संसद ने सर्वसम्मति से वह ऐतिहासिक संकल्प पारित किया था कि भारत अपनी एक-एक इंच जमीन चीनी कब्जे से मुक्त कराएगा। वह संकल्प किसी एक व्यक्ति, एक पार्टी या किसी सरकार का नहीं बल्कि भारतीय संसद का यानी भारतीय जनता का था, लेकिन याद नहीं आता कि पिछले ग्यारह साल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की संसद और सरकार ने कभी उस संकल्प को पूरा करने की दिशा में कुछ किया हो।
पिछले 11 वर्षों से यह जरूर हो रहा है कि चीन जब-तब भारतीय सीमा का अतिक्रमण करते हुए भारत की कुछ न कुछ जमीन कब्जा कर लेता है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार खामोश बनी रहती है। यह स्थिति तब है जब मोदी अपने सभी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को अपने मुकाबले कमजोर और नाकारा बताते रहते हैं। उनकी पार्टी और सरकार का ढिंढोरची बन चुका गोदी मीडिया भी आए दिन फर्जी सर्वे के जरिये उन्हें देश का अब तक सबसे लोकप्रिय, शक्तिशाली और विजनरी प्रधानमंत्री और प्रभावशाली विश्व नेता बताता रहता है।
बहरहाल, चीनी हमले से जुड़ा यह पूरा संदर्भ बताने का मकसद यह है कि उस समय संसद का कितना महत्व होता था और प्रधानमंत्री संसद को लेकर कितने संवेदनशील होते थे। अभी भारत और पाकिस्तान के बीच महज चार दिन की सैन्य झड़प हुई, जिसे लेकर सभी विपक्षी दलों ने एक स्वर में कहा कि वे पूरी तरह वे भारतीय सेना और सरकार के साथ हैं। यहां तक कि पहलगाम में जो आतंकवादी हमला इस सैन्य टकराव की वजह बना था, उस हमले को लेकर भी विपक्ष ने सरकार से कोई सवाल नहीं किया था। पिछले 11 साल में यह पहला मौका था जब समूचा विपक्ष पूरी तरह सरकार के साथ खड़ा था। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने विपक्ष से मिले इस बिना शर्त समर्थन का जरा भी सम्मान नहीं किया। उल्टे प्रधानमंत्री की ओर से अलग-अलग मौकों पर विपक्ष पर कटाक्ष किए गए और उसे कमजोर करने की कोशिश की गई। यही नहीं, टीवी चैनलों पर होने वाली डिबेट में भी भाजपा के प्रवक्ता रोजाना विपक्षी नेताओं को देशद्रोही और पाकिस्तान व आतंकवादियों का हमदर्द बताते रहे।
पहलगाम हमले से लेकर पाकिस्तानी सेना से टकराव होने तक सरकार ने दो बार सर्वदलीय बैठकें बुलाईं लेकिन प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष के प्रति हिकारत का भाव रखते हुए दोनों बैठकों में शामिल नहीं हुए। पहली बैठक के समय वे बिहार में रैली करने चले गए और दूसरी बैठक के समय वे राजधानी में ही एक निजी टीवी चैनल के कार्यक्रम में भाग लेते हुए उस चैनल की एंकरों के साथ फोटो खिंचवाने में व्यस्त रहे। पहलगाम हमले के बाद से लेकर पाकिस्तान के साथ सैन्य टकराव शुरू होने तक उन्होंने सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष और नेता विपक्ष से मिलना भी उचित नहीं समझा, जबकि इस दौरान वे अपनी पार्टी के नेताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत से जरूर मिले। एक तरह से वे ऑपरेशन सिंदूर को अपनी पार्टी और सरकार का कार्यक्रम ही मान कर चलते रहे।
यही वजह रही कि पाकिस्तान के साथ संघर्ष विराम के बाद विपक्ष की ओर से संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग को भी उन्होंने ठुकरा दिया। ऑपरेशन सिंदूर को सेना के कई पूर्व अधिकारी और सामरिक मामलों के विशेषज्ञों ने अचानक किए गए संघर्ष विराम पर हैरानी और निराशा जताते हुए कहा है कि भारत को इस अभियान के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं। सरकार ने अचानक संघर्ष विराम का कोई कारण बताने के बजाय इस आधे-अधूरे अभियान को ही अपनी बड़ी कामयाबी बताने और इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने की कवायद शुरू कर दी है। इस सिलसिले में विभिन्न दलों के सांसदों, पूर्व सांसदों और राजनयिकों के सात प्रतिनिधि मंडल बनाकर दुनिया के विभिन्न देशों में भेजे गए हैं। सरकार की ओर से इस कवायद का इस्तेमाल भी विपक्षी दलों में फूट डालने के लिए किया गया। उसने प्रतिनिधिमंडल में शामिल करने के लिए विपक्षी सांसदों का चयन करने में संबंधित दलों के नेतृत्व की राय को नजरअंदाज करते हुए उन दलों से अपनी पसंद के सांसदों को चुना।
सरकार की ओर से कहा गया कि 59 लोगों से बने ये सात प्रतिनिधिमंडल दस दिन तक दुनिया के अलग-अलग देशों में जाकर वहां की सरकारों को आतंकवाद के प्रति भारत के रूख और आपॅरेशन सिंदूर के बारे में जानकारी देंगे। यानी ये प्रतिनिधि मंडल सरकार की ओर से दुनिया भर के देशों को बताएंगे कि आतंकवाद के प्रति भारत की क्या नीति है और पाकिस्तान किस तरह अपने यहां आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा है। भारतीय सेना के पराक्रम के बारे में भी दुनिया को अवगत कराया जाएगा। विपक्षी दल चाहते हैं कि यही सब बातें सरकार संसद में भी बताई जाएं, तो सरकार उसके लिए तैयार नहीं है।
सवाल है कि जिन बातों की जानकारी दुनिया के तमाम देशों को देने के लिए भारत के वर्तमान व पूर्व सांसद और राजदूत आदि भेजे गए हैं, उन्हीं बातों को संसद में बताने से सरकार क्यों कतरा रही है? भारतीय सेना की ओर से हर दिन एक नया वीडियो जारी किया जा रहा है, जिनमें बताया जा रहा है कि सेना ने कैसे ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम दिया। यही नहीं, दो दिन तक भारत की तीनों सेनाओं के बड़े अधिकारियों ने मीडिया के सामने बैठ कर ऑपरेशन की तमाम तकनीकी और रणनीतिक जानकारियां दी हैं। इसके बाद ऐसी क्या संवेदनशील जानकारी बच जाती है, जिसकी चर्चा संसद में होने पर अनर्थ हो जाएगा? जाहिर है संसद का सत्र नहीं बुलाने के पीछे राजनीति है। सरकार सब कुछ एकतरफा तरीके से अपनी राजनीतिक सुविधा के मुताबिक कहना और करना चाहती है।
संसद से मुंह चुराने और संसद का महत्व कम करने की मोदी की यह प्रवृत्ति नई नहीं है। पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार संसद को अपने रसोई घर की तरह इस्तेमाल कर रही है, जिसमें वही सब पकता है जो सरकार चाहती है। हर राष्ट्रीय महत्व के सवाल पर वह संसद में चर्चा कराने से कतराती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)