झोले में पुस्तकालय
किताबों से हमारे अनुभव संसार का विस्तार होता है। नए अवसरों का संसार भी खुलता है;
- बाबा मायाराम
बच्चों में किताबों को पढ़ने की रूचि उनकी स्कूली किताबें पढ़ने तक सीमित हो गई है। किताबें समय मांगती हैं। लेकिन किताबों की दुनिया अलग है। जब बच्चे यहां रंग-बिरंगे चित्रों वाली किताबें पढ़ते हैं। कहानी और कविता पढ़ते हैं, उनके हाव-भाव देखते ही बनते हैं। दिल उछल जाता है। वे कहानी और कविताओं के माध्यम से एक अलग दुनिया की सैर करते दीखते हैं।
किताबों से हमारे अनुभव संसार का विस्तार होता है। नए अवसरों का संसार भी खुलता है। मुझे कुछ पुस्तकालयों को देखने और ऐसे लेखकों से मिलने का मौका मिला है, जिनकी दुनिया किताबों से जुड़ी थी। आज इस कॉलम में इन सबकी चर्चा करना उचित होगा, जिससे उनके महत्व के बारे में समझा जा सके।
हमारे गांव में एक स्वयंसेवी संस्था थी, जिसका एक पुस्तकालय था। सबसे पहले मेरा इसी पुस्तकालय में किताबों से साक्षात्कार हुआ। किताबों को उलटना-पलटना, चित्र देखना, पढ़ना और उनके बीच रहना, मुझे बहुत अच्छा भाता था। वहां किताबें वर्गीकृत करके कांच की अलमारी में व्यवस्थित रखी होती थी। अलमारी खुली होती थी, जिससे जो भी किताब चाहिए, वह निकाल कर देखी जा सकती है।
पुस्तकालय का सदस्य बनने के लिए बहुत ही मामूली शुल्क जमा करना होता था। उसके बाद किताब को पढ़ने के लिए घर ले जाया सकता था और निर्धारित समय में पढ़कर वापस किया जा सकता था। जो लोग संस्था के पुस्तकालय में नहीं आ पाते थे, उनके लिए संस्था ने गांव तक पुस्तकें पहुंचाने के लिए चलता-फिरता पुस्तकालय (सचल पुस्तकालय) भी शुरू किया था।
इसमें संस्था के कार्यकर्ता साइकिल से गांव जाते थे और वहां झोले में भरकर पुस्तकें ले जाते थे। वे गांव में एक चबूतरे या पेड़ के नीचे किताबें फैलाकर बैठ जाते थे। वहां किताबों को देखने, उलटने-पलटने बच्चों की भीड़ जमा हो जाती थी। इन बच्चों व वयस्कों के लिए 25 पैसे सदस्यता शुल्क रखा गया था। इसे जमा कर वे किताबें घर ले जा सकते थे। और अगले हफ्ते जमा कर फिर दूसरी किताब ले जा सकते थे। कई बार बच्चों से घर के बड़े सदस्य किताबें मंगवाते थे। यह सिलसिला लंबे समय तक चला।
मुझे भी इस सचल पुस्तकालय को देखने का मौका मिला। यह बहुत अनूठा था। हमारे इलाके में किताबें पढ़ने का चलन कम है। उस समय बच्चों के पास भी स्कूली किताबों के अलावा कोई और किताबें पढ़ने के लिए नहीं होती थीं। शायद अब भी नहीं होती।
पुस्तकालय की गतिविधियों का एक और कार्यक्रम होता था व्याख्यान करवाना। इसके तहत शिक्षा, समाज, साहित्य और पर्यावरण से जुड़े देश के जाने-माने लोगों को आमंत्रित किया जाता था, और उनका व्याख्यान करवाया जाता था। जिससे अलग-अलग मुद्दों पर लोगों को विशेषज्ञों के विचार जानने को मिलते थे। संगोष्ठियों में विचारों का आदान-प्रदान भी होता था।
इसके बाद मुझे इंदौर में नईदुनिया समाचार पत्र से जुड़ने का मौका मिला, वहां की लायब्रेरी काफी समृद्ध थीं। रायपुर में देशबन्धु का संदर्भ पुस्तकालय भी बहुत अच्छा था। कई बार देश-विदेश की खबरों के लिए संदर्भ सामग्री देखने की जरूरत पड़ती थी, या किसी विशेष अवसर की फोटो चाहिए होती थी, देशबन्धु के संदर्भ पुस्तकालय में सहज ही उपलब्ध हो जाती थी। बाद में मुझे कई और पुस्तकालय देखने का मौका मिला।
मेरे एक मित्र हैं, अरविंद गुप्ता जी, जो पुणे रहते हैं। टॉयमेकर के नाम से प्रसिद्ध हैं, उन्होंने विज्ञान व गणित को सिखाने के लिए अनूठा तरीका अपनाया है। वे बेकार व मामूली चीजों से खिलौने व मॉडल बनाकर बच्चों को उसके पीछे के सिद्धांतों को समझाते हैं। इसके अलावा, उनका एक महत्वपूर्ण काम है, देश-दुनिया के बाल साहित्य का अनुवाद करना। उसे उनकी वेबसाइड पर देखा जा सकता है। उनकी वेबसाइड पर सैकड़ों किताबें उपलब्ध हैं, जिसे कोई भी डाउनलोड कर सकता है। अरविंद गुप्ता के यू ट्यूब पर कई वीडियो भी हैं, जिसमें उन्होंने कई किताबों का परिचय दिया है। वे कई बार इन किताबों के बारे में विस्तार से भी बताते हैं।
उन्होंने मुझे 15 ऐसी कहानियों की किताबें भेजी हैं, जिनमें पुस्तकालय की पहल की गई है। ये देश-दुनिया की कहानियां हैं, जिनमें अलग-अलग तरीकों से जरूरतमंद बच्चों व बड़ों को किताबों को पहुंचाने का काम किया है। इसमें ऐसी भी कहानियां हैं, जिनमें लोग गधे व घोड़ों का इस्तेमाल दूरदराज के गांवों में ले जाने के लिए करते हैं। पहाड़ों के गांवों में किताबें ले जाने में इससे मदद मिलती है।
इसी प्रकार की पहल मध्यप्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था एकलव्य ने की है। उन्होंने पुस्तकालय भी संचालित किए हैं और बच्चों को लिए मोबाइल लाइब्रेरी भी चलाई हैं। सचल पुस्तकालय की एक पहल मध्यप्रदेश के हरदा शहर में चल रही है। कुछ साल पहले मुझे भी इस लाइब्रेरी को भी देखने का मौका मिला था।
यह पहल एक स्कूल शिक्षिका शोभा वाजपेयी ने शुरू की है, जिसे कुछ शिक्षकों व पुस्तकप्रेमी लोगों ने सहयोग दिया है। यह मुख्यत: गरीब बच्चों के लिए है। यहां लाइब्रेरी के लिए न कोई भवन है और न बड़ी-बड़ी कांच की आलमारियों में किताबें कैद हैं। खुले आसमान के नीचे, पेड़ की छांव में दरी बिछी होती हैं। किताबें होती हैं, रंगीन स्कैच पेन व पेंसिल होती हैं और खेलकूद का सामान और खिलौने भी।
वर्ष 2013 में चहक की शुरूआत हुई। किताबें एकत्र करना शुरू किया। कुछ एकलव्य संस्था से, कुछ दोस्तों से, कुछ अपने घर से किताबें एकत्र कीं और कुछ किताबें खरीदी भी। किताबों की पहचान के लिए उन पर लगाने के लिए 'चहक ' की सील बनवाई गई, बच्चों के बैठने के लिए दरी खरीदी गई।
शोभा वाजपेयी बताती हैं कि हम बहुत मामूली ढंग से पुस्तकालय चलाते हैं। कभी दरी पर बैठ कर तो कभी आसपास से कुर्सी मांग कर तो कभी खड़े खड़े बाइक से सहारा लेकर ही हम लोग किताबें बांटते हैं। खड़े रहने की स्थिति तब बनती जब उन घरों में कोई नहीं होता या कुछ खास कार्यक्रमों से गहमा-गहमी रहती है।
वे आगे बताती हैं कि यहां सिर्फ स्कूल की तरह सब कुछ शब्दों से ही नहीं सिखाया जाता बल्कि चित्रकला, हाव-भाव के साथ कविता सुनाना, खेल-कूद करवाना और कहानी-कविता का नाट्य रूपांतरण आदि गतिविधियां भी होती हैं। यह लाइब्रेरी के साथ गतिविधि केन्द्र भी है।
यह सही है कि बच्चों में किताबों को पढ़ने की रूचि उनकी स्कूली किताबें पढ़ने तक सीमित हो गई है। किताबें समय मांगती हैं। लेकिन किताबों की दुनिया अलग है। जब बच्चे यहां रंग-बिरंगे चित्रों वाली किताबें पढ़ते हैं। कहानी और कविता पढ़ते हैं, उनके हाव-भाव देखते ही बनते हैं। दिल उछल जाता है। वे कहानी और कविताओं के माध्यम से एक अलग दुनिया की सैर करते दीखते हैं।
इस छोटे कस्बे में जहां बस्तियों में सार्वजनिक स्थान नहीं है, वहां मिलने-जुलने और विचारों के आदान-प्रदान का मंच है। यहां बैठकर विभिन्न विषयों पर बात करते हैं। देश-दुनिया व ज्ञान-विज्ञान की दुनिया से रू-ब-रू होते हैं। वे अपने सवालों के जवाब खोजते हैं।
कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से बच्चे एक-दूसरे से सीख रहे हैं, किताबों की दुनिया से परिचित हो रहे हैं, उनके अनुभव संसार फैल रहा है। नए-नए विचार व अनुभवों से हम जुड़ते हैं। रचनात्मकता बढ़ती है। नवाचार करते हैं। बच्चे सोचते हैं, चित्र बनाते हैं, कहानी लिखते हैं। कुछ जगह बाल अखबार बनाते हैं और आपस में एक-दूसरे से सीखते हैं। ऐसी पहल को बढ़ावा देने की जरूरत है।
अगला सवाल है हम क्या कर सकते हैं? इसका एक जवाब तो यही हो सकता है कि हम बच्चों को किताबें उपहार में दें। उन्हें जब भी मौका मिले, पुस्तकालयों में जाने के लिए प्रोत्साहित करें, खुद भी ले जाएं। स्कूलों में पुस्तकालय होते हैं, पर उनका कई कारणों से इस्तेमाल नहीं होता है, वहां से किताबें लाने की आदत डालें।
यह भी पाया गया है कि अगर पुस्तकालय में पुस्तकों के साथ एक गतिविधि केन्द्र भी हो तो वहां बच्चे अधिक आकर्षित होते हैं। उदाहरण के लिए बच्चे वहां पर कागज के छोटे-छोटे खिलौने बना सकते हैं या फिर कबाड़ से जुगाड़ यानी फेंकी हुई चीजों से कई मजेदार चीजें बना सकते हैं। इस तरह बच्चे किताबें तो पढ़ेंगे ही, साथ में कई हस्त कुशलताएं भी सीखेंगे और उनके चेहरे पर भी मुस्कान होगी। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं?