कर्नाटक ने नफरत की राजनीति की दुकान बंद की !

कर्नाटक चुनाव का मैसेज बहुत स्पष्ट बहुत लाउड है। संदेश यह है कि बहुत हो गया हिन्दू- मुसलमान अब जनता को अपनी रोजमर्रा की तकलीफों से निजात चाहिए;

Update: 2023-05-15 03:41 GMT

- शकील अख्तर

कांग्रेस के पास टाइम है। नेतृत्व को सख्त भाषा में अपना लास्ट एंड फाइनल फैसला सुनाना होगा। वह जो भी हो। पार्टी को जो भी उचित लगे। मगर तत्काल। अब समय नहीं है। पार्टी को इस बात को समझ लेना चाहिए कि वह जो भी फैसला करेगी वह नहीं करने से लाख दर्जें अच्छा होगा। पांच साल से चल रहे अनिर्णय ने जितना नुकसान किया है उसकी पूर्ति भी हो सकती है

कर्नाटक चुनाव का मैसेज बहुत स्पष्ट बहुत लाउड है। संदेश यह है कि बहुत हो गया हिन्दू- मुसलमान अब जनता को अपनी रोजमर्रा की तकलीफों से निजात चाहिए। यह संदेश इतनी ऊंची आवाज में है कि कर्नाटक से बाहर निकलकर पूर देश में गूंज रहा है। खासतौर से उन राज्यों में जहां अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं।
चुनाव वाले इन पांच राज्यों में से तीन हिन्दी प्रदेश कहलाते हैं। जहां भाजपा और संघ की शुरू से जड़ें रही हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान। जहां 1977 में ही भाजपा के मुख्यमंत्री बन गए थे। दूसरे बड़े हिन्दी राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा ( उस समय जनसंघ) के मुख्यमंत्री नहीं बने थे। कांग्रेस से टूट कर बने नेता या समाजवादी बने थे।

तो यह तीन राज्य जहां इस साल के अंत में चुनाव होना हैं वहां इस कर्नाटक जीत का इम्पेक्ट क्या पड़ेगा यह कर्नाटक और मध्य भारत से बहुत दूर बैठी एक नेता ने बताया। पश्चिम बंगाल में भाजपा को करारी हार दे चुकीं ममता बनर्जी ने कहा कि कर्नाटक के बाद कांग्रेस मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी जीतेगी। ममता का यह कहना बड़ी बात है। उससे भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने राजस्थान का नाम नहीं लिया।

यह उनकी नहीं कांग्रेस की गलती है। महा गलती। पूरे पांच साल से गहलोत और सचिन लड़ रहे हैं। 2018 में टिकट वितरण के समय से ही यह लड़ाई सतह पर आ गई थी। पार्टी की टिकट बांटने की समितियों से लेकर दोनों नेताओं की संयुक्त प्रेस कान्फ्रेंस में पत्रकारों के बीच तक उनकी तल्खी साफ दिखाई देने लगी थी। कांग्रेस ने जानें कितनी मीटिंगें दोनों के साथ कीं। कोई गिनती नहीं। मगर एक बार भी सख्ती नहीं दिखाई। नतीजा दोनों बेलगाम हो गए।

अभी भी कांग्रेस के पास टाइम है। नेतृत्व को सख्त भाषा में अपना लास्ट एंड फाइनल फैसला सुनाना होगा। वह जो भी हो। पार्टी को जो भी उचित लगे। मगर तत्काल। अब समय नहीं है। पार्टी को इस बात को समझ लेना चाहिए कि वह जो भी फैसला करेगी वह नहीं करने से लाख दर्जें अच्छा होगा।

पांच साल से चल रहे अनिर्णय ने जितना नुकसान किया है उसकी पूर्ति भी हो सकती है अगर पार्टी हिम्मत करके दोनों से साफ बात करे। कांग्रेस को राजस्थान में लाभ इसलिए है कि वहां भाजपा में भी ऐसी ही गुटबाजी है। या यह भी कह सकते हैं कि वहां कांग्रेस से ज्यादा स्थिति खराब है। क्योंकि वहां केन्द्रीय नेतृत्व वसुन्धरा राजे सिंधिया को नहीं चाहता। ऐसा कांग्रेस नेतृत्व में नहीं है कि वह किसी एक को सख्त नापसंद करता हो। तो भाजपा भी गुटबाजी की वजह से कांग्रेस जैसी ही लाचार स्थिति में है। इसलिए वहां चुनाव में कांग्रेस की संभावनाएं कम नहीं हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों की कमजोरियां बराबर हैं। जो जल्दी अपनी कमजोरियों पर काबू पा लेगा वह लाभ की स्थिति में रहेगा। इसलिए ममता ने यह सब जानकर कांग्रेस की जीत वाले राज्यों में राजस्थान का नाम नहीं लिया। कांग्रेस को अपनी दोस्त दुश्मन ममता के मैसेज को सही तौर पर ग्रहण करना चाहिए और उनसे विरोध वाले संबंध कम करके मेल-मिलाप वाले वास्ते बढ़ाना चाहिए।

यह मौका सही है। हर काम के लिए है। जीत की महिमा बड़ी होती है। तो विपक्षी एकता के लिए अपनी सुधरी हुई स्थिति का कांग्रेस को उपयोग करना चाहिए। साथ ही खुद अपनी पार्टी के लिए जीत का दूसरा अस्त्र प्रयोग करना चाहिए। वह है जीत का डंडा। जीत के डंडे में भी बड़ी ताकत होती है। बशर्ते की वह केवल अपनी पार्टी में अनुशासन के लिए चलाया जाए। भाजपा ने उसे जनता पर चला दिया। नतीजा अभी कर्नाटक में दिख गया।

यह जैसा ऊपर लिखा। लेख शुरू करते हुए कि यह बीजेपी के हिन्दू-मुस्ल्मि अजेंडे की हार है। जनता की जीत। जनता को जबर्दस्ती हिन्दू-मुसलमान का नशा करवाया जा रहा था। उसके वास्तविक सवालों को धर्म की आड़ में छुपाया जा रहा था। मगर वहां कांग्रेस के पूरी ताकत से चुनाव लड़ते ही वे छुपे दबे जनता के सुख-दु:ख के सारे सवाल उभर कर सामने आ गए।

जी हां, यह भी एक बड़ी बात है। कांग्रेस का फुल स्ट्रेंथ से चुनाव लड़ना। 2014 और उसके बाद होने वाले चुनाव कांग्रेस पूरी ताकत से लड़ ही नहीं रही थी। मगर राहुल की यात्रा और उसका कर्नाटक में तीन हफ्ते से ज्यादा रहना। सात जिलों की 51 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरना कांग्रेस के लिए निर्णायक साबित हुआ। इन 51 में 37 सीटें कांग्रेस जीत गई। यह था यात्रा का प्रतिफल। कांग्रेसी इसको समझ ही नहीं रहे थे। यात्रा वह आधार बनी जिससे कर्नाटक में कांग्रेस को दम मिला।

तो कांग्रेस को कर्नाटक जीत के कारण और जीत के मायने अच्छी तरह समझना होंगे। 2009 में कांग्रेस ने यूपी में 22 लोकसभा जीती थीं। लेकिन जीत के आधार को बढ़ाया नहीं और कमजोरियों पर काबू नहीं किया तो 2019 में राहुल खुद वहां से हार गए। अब 2024 में सारे हिसाब-किताब करने का सही समय है।

मगर उससे पहले चारों राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में कांग्रेस को कर्नाटक की तरह ही पूरी ताकत से चुनाव लड़ना होंगे। इनमें से तेलंगाना को छोड़कर बाकी तीन राज्यों में कांग्रेस की भाजपा से सीधी टक्कर होगी। और कर्नाटक में सांप्रदायिक अजेंडे के हार के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा जनता के रोजी-रोटी के मुद्दों पर बात करती है या उसी सांप्रदायिक विभाजन के मुद्दे पर अड़ी रहती है।

अगर भाजपा लोगों को रोजगार देने, महंगाई कम करने, सरकारी स्कूल, चिकित्सालय खोलने जैसी बातें करेगी तो कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर देगी। क्योकि कर्नाटक के नतीजों के बाद जनता की जिन्दगी से जुड़े यही मुद्दे महत्वपूर्ण हो गए हैं। और साम्प्रदायिक विद्वेष पैदा करने वाले धार्मिक मुद्दे गौण हो गए हैं। लेकिन अगर भाजपा अपने उसी मुद्दे हिन्दू-मुसलमान पर ही अड़ी रही तो तीनों राज्यों में फिर उसे 2018 की तरह मुंह की खानी पड़ेगी। कर्नाटक के बाद जनता हिन्दू-मुसलमान के जाल में फंसने को तैयार नहीं है।

कर्नाटक में भाजपा ने बहुत बड़ा प्रयोग किया था। देश में कहीं भी हलाल मुद्दा नहीं था। कभी रहा नहीं। भाजपा ने उसे कर्नाटक में बनाने की कोशिश की। उसी तरह हिजाब भी कहीं कोई मुद्दा नहीं है। मगर उसे बनाया। बाद में खुद प्रधानमंत्री मोदी बजरंगबली को राजनीति में ले आए। अति हो गई। और जनता ने इसे ठुकरा दिया। जनता से बड़ा कोई नहीं। हालांकि इन 9 सालों में जनता को बदनाम करने के लिए पूरी ताकत लगाई गई। व्हाट्सएप मैसेजों से लेकर मीडिया तक एक मुहिम चलाता रहा कि किसी भी चीज के लिए सरकार को दोषी न बताना पड़े इसलिए हर दोष जनता पर रख दो।

क्या आपने गौर किया कि चीनी मांझे से गला कटने से लेकर अग्निवीर स्कीम तक हर बात के लिए लोगों को ही दोषी ठहराया गया। चीनी मांझें पर सख्ती बरतने के बदले जनता खरीदती क्यों है- से लेकर बाइक सवार गले में कपड़ा बांधकर चलें जैसी बातें की गईं। ऐसे ही अगर सेना में ठेके पर नहीं जाना तो कोई आपसे जबर्दस्ती नहीं कर रहा जैसी बातें कही गईं। यह 75 साल में पहली बार है कि बिना इलाज के मौत के लिए भी जिम्मेदार खुद मरीज था या कोरोना में मरने से मोक्ष प्राप्त होगा जैसी निर्दयी बातें कही गईं।

तो दक्षिण की जनता ने तो अपना बदला ले लिया। भाजपा मुक्त दक्षिण कर दिया। अब देखना उत्तर और मध्य भारत की जनता को है कि वह खुद पर लगाए आरोप की हर चीज की दोषी वही है, को सिर झुकाकर मानती ही रहती है या सिर उठाकर कहती है दोषी हम नहीं दोषी आप हैं!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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