कबीर ने प्रत्यक्ष अनुभूतियों को दिया महत्व

कबीर तो ऐसे संत हुए जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभूतियों को महत्व दिया और जो कुछ देखा परखा.........;

Update: 2017-06-09 17:33 GMT

कबीर तो ऐसे संत हुए जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभूतियों को महत्व दिया और जो कुछ देखा परखा, उसमें जिन बातों पर उन्हें विश्वास जमा, सत्य का एहसास हुआ उसको अपने आचरण में उतारने के बाद श्रद्धालुओं को जन हिताय निरपेक्ष भाव से बताने की उन्होंने चेष्टा की, वही आगे चलकर उनका दर्शन हो गया। प्रयोग सिद्ध कबीर के कथनों पर लोगों का विश्वास बनता गया उनकी विचारधारा में अवगाहन करने वालों का समूह बढ़ता गया और वह कबीर पंथ से नाम से अजस्र प्रवाही नद क्या, विचार का असीम सागर सा बन गया।

कबीर को देखकर विचार आता है कि केवल कागजी ज्ञान के आदी, व्यर्थ बयान के व्यसनी, उपाधियों की मुंडमाला लटकाये, शब्दों की अलंकारिता से मदारी जैसे डमरू बजा कर स्वयं को स्थापित करने के लिए नाना प्रकार के द्राविणी प्राणायाम करने वाले भटके हुए, जो लोग हैं वे अल्पजीवी क्षणजीवी ही होंगे। दीर्घजीवी वही हो सकते हंै जिन्होंने सदाचरण का सन्मार्ग अपनाया हो, परोपकार जिनके अहर्निश आचरण का प्रिय विषय हो, अतिथि दिनचर्या का देवता हो, कथनी और करनी एक हो, सर्वभूत हितै रता की धारणा हो। सत्ता, वह चाहे धर्म के नाम की हो या प्रशासन की, जो उनकी खामियों को उजागर करे। भले वाणी अटपटी होगी जनमानस में गहरी पैठ उसकी ही हो सकती है। कबीर 600 वर्ष पहले हुए पढ़े-लिखे नहीं थे। न अभिजात्य वर्ग के न पंडित थे न मौलवी। सत्ता के कोई पदाधिकारी भी नहीं, गरीबी, कपड़ा बुनने वाला जुलाहा, रोज कमाना रोज खाना। इन सब भौतिक कमियों के बाद 'मैं कहता अंखियन देखीÓ फिर मसि कागद तो छुआ नहीं। आश्चर्य से भी अचरजकारी है कि पोथी से पंडिताई नापने वालों के लिए भी उनके वृहद साहित्य है। साखी, सबद, रमैनी, बीजक आदि। कबीर की विचारधारा से आचरण गत निर्लिप्त होते हुए सहस्रावधि लोग आज कबीर पर लिखकर, बोलकर, जीवनयापन कर रहे हंै। खैर, कबीर को क्या करना इनसे? वे तो समस्त प्राणी मात्र के हित के लिए कहते थे।

कबीर अक्खड़ थे। कटु सत्य कहते थे। चर्रा-बर्रा, टूटय के फाटय, रटाटोर कहना उन्हें प्रिय था। क्योंकि उस समय भी तो शक्ति की भक्ति करने वाले कम न थे। यह कबीर गरीब, कमजोर, उपेक्षित लोगों के अपढ़, अनिर्वाचित स्वस्फूर्त हिमायती थे, जिसका फल उन्हें क्या-क्या भोगना पड़ा था। इन पंक्तियों में पढ़िये:-
कहा अपराध संत हौ कीन्हा, बांधि पोट कुंजरकुं दीन्हा, कुंजर पोट बहुत वन्दन करे, अजहूं न सूझै काजी अन्धेरे। तीनि बेर पतियारा लीन्हा, मन कठोर अजहू न पतीना।
इस पद से स्पष्ट है कि किसी काजी ने कबीर के हाथ-पैर बांधकर हाथी के पैर के नीचे डलवा दिया था। हाथी को रौंदने के लिए जब प्रेरित किया गया तो उसने पोटली बने हुए कबीर को प्रमाण किया पर कुचला नहीं। काजी के तीनों प्रयत्न व्यर्थ गये।

कबीर सुकरात की तरह कड़वी बातें कहते थे। उनके विद्रोही हृदय का स्वर, तत्कालीन शासन व्यवस्था् और सामाजिक अवस्था पर तीव्रतम आघात करता था। झूठा रोजा, झूठी ईद जैसे वाक्यों से क्रुद्ध होकर बादशाह सिकन्दर लोदी ने कबीर को जंजीरों से बंधवा कर गंगाजी में फिंकवा दिया किन्तु कबीर किसी प्रकार बच गये। वह कहते हंै:- गंग लहर मेरी टूटी जंजीर, मृग छाला पर बैठे कबीर, कहे कबीर कोई संग न साथ, जल थल राखत है रघुनाथ। कबीर बेलाग बोलने में बेताज बादशाह थे। आडम्बर के विरोध में वे कहते हैं:- कनवा फराय जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी, होई गैले बकरा। मुड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेई मुड़ाय, बार-बार के मूड़ते, भेंड़ न बैकुण्ठ जाय। फूटी आंख विवेक की, लख न संत असन्त,  जाके संग दस बीस है, ताको नाम महन्त।

वे बनारस के आडम्बरी संर्तों का वर्णन करते हुए कहते हंै:  साढ़े तीन गज की धोती पहने हुए, तिहरे तागे लपेटे हुए, गले में जयमाला और हाथ में माला लिए हुए इन कमबख्तों को हरि के संत नहीं करना चाहिए। ये लोग तो बनारस के ठग हैं, मुझे ऐसे संत अच्छे नहीं लगते जो टोकरे भर-भर कर पेड़े गटक जाते हैं। बरतन मांजकर ऊपर खाना खाते हैं, कहीं किसी की भोजन पर छाया न पड़ जाय और लकड़ी धोकर जलाते हैं।
राज्य की ओर से की गई न्याय व्यवस्था के आडम्बर पर चोट करते हुए कबीर कहते हैं: 'काजी! तुमसे ठीक तरह बोलते नहीं बना, हम तो दीन बेचारे, ईश्वर के सेवक हैं और तुम्हारे मन को राजसी बातें भाती हैं, लेकिन इतना समझ लो कि ईश्वर, धर्म के स्वामी ने कभी अत्याचार करने की आज्ञा नहीं दी।

एक और स्थान पर काजी को नसीहत देते हुए वे कहते ह: ये पागल, तू दीन से सहानुभूति नहीं रखता, इसलिये तेरा जन्म किसी काम का नहीं है।
कबीर ने अपनी वाणी द्वारा अपने युग की आचार प्रवणता और सामाजिक अन्याय तथा हिन्दू, मुसलमानों के वैमनस्य पर लगातार आक्रमण करते हुए जिन मानवीय आदर्शों की स्थापना की वे निश्चय ही युगानुरूप थे। यह कहकर कि- सांई के सब जीव हैं, कीरी कुं जर दोय। उन्होंने मानव मात्र की समानता का सिद्धांत प्रचारित किया और ईश्वर की धर्मोपासना के लिए सबके समान अधिकार की मांग की, विराट जनआन्दोलन के प्रमुख और कृति नेता के रूप में उन्होंने जो कहा उसमें उस युग का चित्रण और भविष्य के लिए जीवन्त संदेश है।

कबीर एक ऐसे युग संधि के काल में पैदा हुए थे जिसमें हिन्दू और मुसलमान जातियों के उच्च वर्गों में एक दूसरे के प्रति चाहे जितनी असहिष्णुता क्यों न रही हों लेकिन निम्न वर्ग और जातियों में परस्पर एक-दूसरे के निकट आने और मिलजुल कर रहने की भावना बलवती होती जा रही थी। उस युग की आवश्यकता यह थी कि कोई सर्वसाधारण के अनियंत्रित विक्षोभ और विद्रोह को एक सरल और सीधा मार्ग दिखा सके। कबीर ने निर्गुण प्रेम भक्ति का मार्ग दिखाया और उन्होंने प्रेम को ही साध्य और साधन माना।
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै, सो पंडित होय।

भगवत्प्रेम के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए वे चाहते थे कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की हैसियत से मिले। उन्होंने जातिगत, वंशगत, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत और शास्त्रगत, विशेषताओं के फैले हुए जाल को छिन्न-भिन्न करने के लिए एक अदम्य साहस के साथ उच्च वर्ग की मान्यताओं की तीखी आलोचना की। पंडित ओर शेख दोनों पर व्यंग्य कसे, उनकी झकझोर देने वाली व्यंग्योक्तियों में ही उस युग की सारी समस्याएं मूर्त हो जाती हैं।

छत्तीसगढ़ की धरती पुण्यमयी है जहां कबीर के मत का गहरा प्रभाव रहा है। कबीर के मत को गुरुघासीदास ने भी विस्तार दिया। यह भी दृष्टव्य है कि यहां निर्गुण निराकार के मतावलंबी बहुत बड़ी सख्ंया में है तो सगुणोपसकों की आबादी भी काफी फैली है परन्तु परस्पर, सौमनस्य का स्नेह सूत्र, इतना संस्पृक्त है, परस्पर गुंफित है कि उसे अलग से देखा जाना सहज संभव नहीं है। छत्तीसगढ़ के सगुणोपासकों के बड़े-बड़े वार्षिक मेलों में निरगुनियां लोगों की सोत्साह भागीदारी की भव्यता होती है, वहां कबीर पंथियों, रामनामियों और सतनामियों के मेलों में सगुर्णोंपासकों का सहज सहयोग सार्वदेशिक परिप्रेक्ष्य में अनुकरणीय, सराहनीय और भेद में अभेद का दुभेद्य दृष्टांत है।

मेरा मानना है कि हमारे पूर्व पुरुषों ने जब भी अन्याय का प्रतिरोध किया तो सर्वधर्म समभाव को स्थापित करना उनका लक्ष्य रहा है। वे अपने आचरण से शिक्षा देते थे। तिल-तिल जीवन को जलाकर प्रेम का प्रकाश प्रसारित करना उनका हेतु रहा है। अत: आज हमें सावधान होकर समाज हित में यह समझना होगा कि महापुरुषों की वाणी का लक्ष्यार्थ अन्यथा न होने पावे, उनके विराट व्यक्तित्व को हम उनके झंडा बरदार बनकर संकुचित सोच की ओर ले जाने की चूक न कर बैठे। समाज सुधार की दुंदुभि बजाकर, दिशाहीन भीड़ को भड़कावे के भाड़ की ओर ले जाने की दिशा में जाने अनजाने भ्रमित करने के, कुकृत्य से बचाये रखने की सतर्कता सामूहिक उत्तरदायित्व निभाने के लिए सचेष्ट रहें।

कबीर सदैव प्रासंगिक रहेगें क्योंकि उन्होंने जो संदेश दिया है प्राणी मात्र का हित ही उनका हेतु रहा है। उनके विचारों का खूब प्रचार हो और उनके आचरण का अनुकरण भी। करनी को पराया काम मानकर कथनी को केवल पकड़ा, प्रलाप के सिवाय कुछ नहीं होगा।

 

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