बारिश की बूंदों को सहेजने आदिवासी बहा रहे पसीना...!

इंदौर ! झाबुआ की उजाड़ धरती पर भीषण गर्मी में इन दिनों सैकड़ों आदिवासी बारिश की रजत बूंदों की मनुहार करने में जुटे हैं।;

Update: 2017-05-12 04:49 GMT

मनीष वैद्य

हलमा के सामूहिक श्रम से बदलेंगे हालात
11 नए तालाब और 6 जंगल ले रहे आकार
झाबुआ की उजाड़ धरती को पानीदार बनाने का जतन

इंदौर !   झाबुआ की उजाड़ धरती पर भीषण गर्मी में इन दिनों सैकड़ों आदिवासी बारिश की रजत बूंदों की मनुहार करने में जुटे हैं। वे बारिश के पानी को सहेजने के लिए अपने आसपास गांवों में कुछ नए तालाब और जंगल बनाकर कई सालों से तपते अंचल को पानीदार बनाने की कोशिश में जुटे हैं। उनकी आँखों में अपनी धरती पर हरियाली और खुशहाली का सपना झिलमिला रहा है।
इंदौर से करीब दो सौ किमी दूर झाबुआ के सुदूर अंचल खेडा में पहाडिय़ों के बीच नया तालाब आकार ले रहा है, वह भी बिना किसी खर्च। आसपास के आदिवासी सामूहिक श्रम की अपनी पीढिय़ों पुरानी हलमा परंपरा से इसे बना रहे हैं। सरकार के लिए यह काम करीब 75 लाख की लागत का होता, जिसे ये बहुत कम महज डीजल खर्च (करीब 75 हजार रूपये यानी 10 फीसदी) में बनाकर पूरा करेंगे। अकेले खेडा ही नहीं, 11 गांवों में ऐसे ही तालाब बनाए जा रहे हैं। कुछ गांवों में पहले से तालाब तो थे पर टूट-फूट जाने से और गाद भर जाने से अनुपयोगी हो चुके थे। रामा ब्लाक के साढ गाँव में सरकार ने कुछ साल पहले एक करोड़ की लागत से तालाब बनाया था, लेकिन इसकी पाल टूट गई. इस बार आदिवासियों ने खुद आगे बढकर इसकी मरम्मत और गहरीकरण किया है।
आदिवासी अपने आसपास के जंगलों को भी अब मातावन बनाकर संरक्षित कर रहे हैं। शिवगंगा अभियान के तहत छायन और घटिया सहित छह गांवों में जंगल चयनित किए हैं। इनमें पेड़ काटने पर पाबंदी लगाने के साथ ही नए पौधे पेड़ बनने की तैयारी में है। अगले साल इसे बढ़ाकर 25 जंगल का लक्ष्य है। झाबुआ इलाके में सदियों से ऊंची-नीची पहाडिय़ों के बीच दूर-दूर तक पेड़-पौधे विहीन उजाड़-उसर जमीन यहाँ की स्थाई पहचान रही है। ढालू जमीन होने से बारिश का अधिकाँश पानी नदी-नालों में बह जाता है। जमीनी पानी के रिसाव नहीं होने से यहाँ न तो हरियाली पनपती है और न ही जल स्तर बन पाता है। पानी नहीं होने से यहाँ के लोगों की जि़न्दगी भी फीकी रहती है। खेतों में बारिश के बाद दूसरी फसल नहीं होती और इन्हें रोजी-रोटी के लिए हर साल ठंड से गर्मियों तक सात-आठ महीने पलायन करना पड़ता है।
लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं। आदिवासी अब बारिश के पानी का मोल समझ चुके हैं। बीते सालों में उन्होंने हलमा की ताकत से नए तालाब बनाए और बड़ी बात यह हुई कि इनसे वहाँ लोगों को बहुत फायदा हुआ। हरियाली बढ़ी और खेतों में फसलें आने लगी। अब वे इसे आगे बढ़ा रहे हैं। इन आदिवासियों ने झाबुआ शहर से लगी हाथीपावा की पहाड़ी पर 50 हजार कंटूर ट्रेंच बनाकर इसे हरियाली का बाना तो ओढाया ही, अब बहादुरसागर तालाब गर्मियों में भी पानी से भरा रहता है।
इनका कहना है
हलमा आदिवासियों की पुरानी रिवायत है। इसमें आदिवासी समाज सामूहिक श्रमदान से प्रकृति और पर्यावरण के लिए निशुल्क काम करता है। यह परंपरा इस समाज से विस्मृत होती जा रही थी लेकिन इसे पुनर्जीवित कर हमें सौ तालों की एक चाबी मिल गई है, हलमा पर्यावरण के लिए बड़ी ताकत बन रहा है। गाँव के सारे दु:ख का निजात इसी से संभव है। हमारा असली मकसद तो झाबुआ के सभी तेरह सौ गांवों तक पानी पंहुचाना है ताकि यहाँ के आदिवासी समृद्ध हो सकें।
महेश शर्मा
संयोजक, शिवगंगा अभियान झाबुआ

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