ललित सुरजन की कलम से - असम का नागरिकता रजिस्टर : भावी के संकेत

अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन की एक चार सदस्यीय सत्यान्वेषण टीम ने 1980 में असम समस्या के अध्ययन के लिए असम व प. बंगाल की यात्रा की थी;

Update: 2025-06-03 03:08 GMT

'अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन की एक चार सदस्यीय सत्यान्वेषण टीम ने 1980 में असम समस्या के अध्ययन के लिए असम व प. बंगाल की यात्रा की थी। मैं उस टीम का एक सदस्य था। वहां से लौटकर मैंने जो रिपोर्टिंग की थी उसका एक हिस्सा, जो शायद आज प्रासंगिक है, नीचे प्रस्तुत है-

विदेशियों को भगाने की बात तो की जाती है, लेकिन आखिर विदेशी कौन हैं? पिछले 20 साल से भी ज्यादा समय से रह रहे लोगों को भी क्या विदेशी कहकर बाहर निकाला जा सकता है? जो और पहले आए, उनकी तो बात ही छोड़िए। देश विभाजन के बाद भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से मुसलमान आकर कछार जिले में बस गए।

हर कोई मानता है कि वे बहुत अच्छे और मेहनती किसान हैं। जनगणना में उन्होंने अपने आपको असमिया दर्ज कराया। उनके बच्चे असमिया ही बोलते-पढ़ते हैं। आज वे कहां जा सकते हैं? 1

960 के बाद भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से बंगाली हिंदू भी आए। उनके पुनर्वास की प्रक्रिया आज तक चल रही है। असम ही नहीं, देश के अन्य प्रान्तों में भी उन्हें बसाया जा रहा है।

1960 के दशक में पुनर्वास मंत्रालय की एक योजना के अनुसार 15000 बंगाली विस्थापित परिवार असम में बसाए जाने थे, जब कि म.प्र. में पुनर्वास का कोटा 25000 परिवार का था। ऐसे आंकड़ों को आंदोलन के नेता भूल जाना चाहते हैं, क्योंकि वे उनके मकसद के खिलाफ जाते हैं। वे चाहते हैं कि 1951 के बाद जो भी बाहर से आया हो, वह भले ही असम में रहे, लेकिन उसके पास नागरिकता का प्रमाणपत्र हो।

क्या यह प्रस्तावित नागरिकता प्रमाणपत्र उसे दूसरे दर्जे का नागरिक नहीं बना देगा? फिर उसके साथ क्या सलूक किया जाएगा? दूसरी बात यह प्रमाणपत्र कौन जारी करेगा- वही सरकारी कर्मचारी।

क्या गारंटी है कि प्रमाणपत्र जारी करने में भ्रष्टाचार नहीं होगा! यदि अवैध रूप से आए पूर्वी पाकिस्तानी नागरिकों को जमीन और बैंक ऋण ये अधिकारी दे सकते थे तो प्रमाणपत्र में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता?'

(देशबन्धु में 02 अगस्त 2018 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2018/08/blog-post_1.html

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