बराबरी का हक और बराबरी का दिखावा

अपने उपन्यास एनिमल फॉर्म में जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा है- ऑल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल दैन अदर्स;

Update: 2023-11-30 02:28 GMT

- सर्वमित्रा सुरजन

बहरहाल, इस नोटिस को देखकर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि नगरीय जीवन में अब यह आम चलन हो गया है। लगभग हर बहुमंजिला इमारत में कामगारों के लिए अलग लिफ्ट की व्यवस्था है, जिसे सर्विस लिफ्ट कहा जाता है। कोरोना काल में अलग लिफ्ट के नियम का और कड़ाई से पालन होने लगा, क्योंकि संपन्न तबके के लोग यही मानकर चलते हैं कि सारी गंदगी और बीमारियां झुग्गियों में रहने वाले लोग ही उन तक पहुंचाते हैं।

अपने उपन्यास एनिमल फॉर्म में जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा है- ऑल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल दैन अदर्स। यानी सभी जानवर समान हैं , लेकिन कुछ जानवर दूसरों की तुलना में अधिक समान हैं। बराबरी के दिखावे पर यह अनुपम उदाहरण सोशल मीडिया साइट एक्स की एक पोस्ट को देखकर याद आया।

इसमें एक नोटिस की तस्वीर शेयर की गई थी। नोटिस में अंग्रेजी में लिखा था- हाउस मेड्स, डिलीवरी ब्वॉयज़, एंड वर्कर्स शुड नॉट यूज़ पैसेंजर्स लिफ्ट. इन केस दे आर कॉट, दे विल बी फाइन्ड रू. 1000. ये किस शहर और किस सोसाइटी में लगा हुआ नोटिस है, ये तो पता नहीं, और ये भी कहना कठिन है कि जिन लोगों के लिए यह गैरकानूनी नोटिस चिपकाया गया है, उनमें से कितनों को इसकी भाषा समझ आई होगी। यह नोटिस अंग्रेजी में है, और देश के कामगार तबके के अधिकतर लोग प्रांतीय भाषाओं और बोलियों को ही जानते हैं। इस नोटिस को जिस किसी ने भी तैयार किया है, उसने किस आधार पर पकड़े जाने पर एक हजार रूपए के जुर्माने की बात लिखी है, यह भी समझ से परे है।

क्योंकि लिफ्ट में जाना कोई कानूनन अपराध नहीं है। पकड़े जाने जैसी शब्दावली ऐसे लग रही है, मानो चोरी या कत्ल करते हुए कोई पकड़ा गया है। वैसे इस चेतावनीनुमा नोटिस में जो कुछ भी लिखा है, वो नए भारत का कड़वा सच है। करीब 12-15 पहले खबर पढ़ी थी कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का गढ़ बन चुके गुड़गांव की एक बहुमंजिला इमारत में घरेलू सहायकों और कुत्तों के लिए अलग लिफ्ट की व्यवस्था की गई है और वहां रहने वाले बाशिंदों के लिए अलग लिफ्ट है। तब देश में यूपीए सरकार थी और मीडिया उद्योगपतियों का पूरी तरह से गुलाम नहीं बना था, इसलिए ऐसी खबरें अखबारों में छप जाया करती थीं। हालांकि समाज में भेदभाव तब भी मौजूद था, अब भी उतनी ही सघनता से विद्यमान है। फर्क इतना ही है कि अब जैसे ही मौका मिलता है, भेदभाव तरल होकर समाज में खुल कर बहने भी लगता है। एक दशक पहले तक समाज में इंसानियत के लिहाज की मात्रा थोड़ी अधिक थी, आंखों में शर्म थोड़ी बहुत दिख जाती थी। अब वह सब बड़ी तेजी से विलुप्त होता जा रहा है। बिल्कुल आयातित चीतों की तरह।

बहरहाल, इस नोटिस को देखकर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि नगरीय जीवन में अब यह आम चलन हो गया है। लगभग हर बहुमंजिला इमारत में कामगारों के लिए अलग लिफ्ट की व्यवस्था है, जिसे सर्विस लिफ्ट कहा जाता है। कोरोना काल में अलग लिफ्ट के नियम का और कड़ाई से पालन होने लगा, क्योंकि संपन्न तबके के लोग यही मानकर चलते हैं कि सारी गंदगी और बीमारियां झुग्गियों में रहने वाले लोग ही उन तक पहुंचाते हैं। यह तथ्य पता नहीं कितने लोगों को याद है कि देश में कोरोना का प्रवेश हवाई यात्रा करने वालों की बदौलत हुआ है। यह भी सोचने की बात है कि आखिर किन कारणों से झुग्गी-झोपड़ियों या निचली बस्तियों में गंदगी और बीमारी फैलती है। क्यों वहां के लोग अच्छी हवा और पानी से वंचित रहते हैं। कौन उनके हक को मारकर अपनी जेबें और कोठियां भर रहा है। चंद लोगों के विलासितापूर्ण जीवन का भुगतान लाखों लोगों को क्यों करना पड़ रहा है। ऐसे सवाल समाज में अक्सर असुविधा पैदा कर देते हैं, इनके जवाब ढूंढने में खुद का सामना आईने से हो जाता है।

इसलिए बेहतर यही होता है कि ऐसे मामलों की तह में जाएं ही नहीं और जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दें। जब देश गुलाम था, तब लोगों को खरीदने-बेचने का चलन था, दास प्रथा चलती थी, निचली जाति या हैसियत के लोगों को धन और सत्ता की शक्ति से संपन्न लोगों की चाकरी करनी पड़ती थी। देश आजाद हो गया, तो संविधान निर्माताओं ने भारत की इस सामाजिक सच्चाई को समझते हुए नियम-कानून बनाए। सबके लिए बराबरी का अधिकार निश्चित किया। हालांकि वे भी जानते थे कि भारत अपनी भेदभाव वाली मानसिकता से इतनी जल्दी नहीं उबर पाएगा, फिर भी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और अपनी ओर से नए भारत को जो बेहतरीन तोहफा दे सकते थे, वो संविधान के रूप में दिया। अफसोस ये है कि इस संविधान का पूरा लाभ उन नागरिकों को ही नहीं मिल रहा है, जिन्हें खास तौर पर ध्यान में रखते हुए बराबरी के अधिकार को शामिल किया गया है। चाकरी, गुलामी, दासता, जो कह लें, शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों की बदौलत अब भी समाज में विद्यमान हैं।

तीन दिन पहले ही देश की सरकार ने संविधान दिवस मनाया है। मोदी सरकार के आने के बाद से 26 जनवरी के साथ-साथ 26 नवंबर का महत्व भी बढ़ा दिया गया है।इस बार तो प्रधानमंत्री मोदी ने इस दिन मन की बात भी की, क्योंकि महीने का आखिरी रविवार था। खैर, 26 नवंबर के ही दिन हमारे रिहायशी इलाके के व्हाट्सऐप गु्रप पर एक चर्चा छिड़ी, जिसमें इस बात पर कुछ लोगों ने आपत्ति जतलाई कि सोसाइटी परिसर के भीतर मौजूद ब्यूटी पार्लर में घर में काम करने वाली मेड्स यानी सहायिकाओं को क्यों प्रवेश दिया जा रहा है। बाकायदा सवाल उठाया गया कि फेशियल, मेनिक्योर, पेडिक्योर या बाल कटवाने के लिए ये सहायिकाएं उस पार्लर में कैसे जा सकती हैं, और इनके पास इतने पैसे कहां से आते हैं कि ये पार्लर का खर्च उठा सकें। कुछ लोगों ने यह मांग भी उठाई कि पार्लर के मालिक के खिलाफ शिकायत कर इसे बंद करवाना चाहिए। इस सवाल को देखकर मन भीतर तक वितृष्णा से भर उठा कि आखिर सभ्य समाज में रहने वाला इंसान इतनी गिरी हुई सोच कैसे ला सकता है और इतना दुस्साहस कैसे जुटा सकता है कि ऐसे सवाल उठाए।

हालांकि ये देखकर संतोष हुआ कि कुछ लोगों ने फौरन ऐसे सवाल का प्रतिवाद किया और पूछा कि हम इन मेड्स से अपना घर साफ करवा सकते हैं, इनका बनाया भोजन ग्रहण कर सकते हैं, अपने बच्चों को इनके भरोसे छोड़ सकते हैं, लेकिन अगर ये अपने सौंदर्य पर अपने पैसे खर्च करना चाहें और संपन्न घरों की महिलाओं की तरह पार्लर में जाएं, तो किसी को तकलीफ क्यों होनी चाहिए।

कामगारों के लिए अलग लिफ्ट से होते हुए बात पार्लर जाने पर आपत्ति तक पहुंच गई, लेकिन मूल सवाल वही बना हुआ है कि आखिर धर्म, जाति, नस्ल और आर्थिक स्थिति का यह भेदभाव किस तरह खत्म होगा। संविधान ने केवल रास्ता दिखाया है, उस पर चलने की इच्छाशक्ति समाज को ही दिखानी होगी। फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग काफी चर्चित हुआ था, जिसमें वे एक बिल्डिंग को खरीदते हैं और कहते हैं कि आपने इसके 10 लाख रूपए और मांगे होते तो भी मैं दे देता। आज से बीस बरस पहले जब ये बिल्डिंग बन रही थी, तो मेरी मां ने इसमें ईंटें उठाई थीं। आज मैं ये बिल्डिंग अपनी मां को तोहफे में देने जा रहा हूं।

अब जिंदगी तो कोई फिल्म नहीं है, जिसमें इस तरह के संवाद कहने-सुनने मिलें। ऊंची इमारतों से लेकर, चौड़ी सड़कों और उत्तरकाशी के सिलक्यारा में बन रही सुरंग तक, सबमें मजदूरों का खून-पसीना लगा होता है। एक बार निर्माण हो जाने के बाद इन पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाता है। मजदूर न लाखों-करोड़ों के घरों में कभी रह पाते हैं, न इन सड़कों पर रफ्तार भरने वाली गाड़ियों पर सवार हो पाते हैं। उन्हें उनकी मजदूरी के अतिरिक्त कोई तोहफा भी नहीं मिलने वाला। लेकिन संविधान में उनको जिस बराबरी का हक मिला हुआ है, उसे किसी भी तरह न मारा जाए, इतना ही ध्यान समाज रख ले तो गैरबराबरी दूर करने में यह बड़ा कदम होगा। फिर किसी बेटे को अपनी मां को तोहफा देने के लिए बेईमानी की राह पर नहीं चलना पड़ेगा।

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