दालमोठ बनाम बिस्कुट, मामला गंभीर है
सोशल मीडिया पर खबर आई है कि उत्तर प्रदेश के गोण्डा में अपर जनपद एवं सत्र न्यायाधीश ने अपने अर्दली को चाय और बिस्कुट ठीक से न मिलने पर नोटिस थमा दिया;
- सर्वमित्रा सुरजन
अगर खबर सच्ची है तब तो मामला संगीन है कि क्या जज को जानबूझकर पुरानी दालमोठ पेश करने का कोई षड्यंत्र रचा गया और अगर खबर काल्पनिक है, तब भी गंभीर चिंता का विषय है कि क्या दालमोठ और बिस्कुट को चर्चा में लाने की यह कोई चाल है। क्योंकि आमतौर पर तो सरकारी बैठकों में चाय के साथ समोसे, ढोकले, कलाकंद आदि परोसे जाते हैं। लेकिन सिविल जज और सत्र न्यायाधीश जब साथ बैठे हों और बात केवल बिस्किट और दालमोठ में निपट जाए, क्या यह नाइंसाफी नहीं है।
सोशल मीडिया पर खबर आई है कि उत्तर प्रदेश के गोण्डा में अपर जनपद एवं सत्र न्यायाधीश ने अपने अर्दली को चाय और बिस्कुट ठीक से न मिलने पर नोटिस थमा दिया। नोटिस में अर्दली राकेश कुमार से स्पष्टीकरण मांगा गया है कि सिविल जज के आने पर चाय/बिस्कुट लाने के लिए कहने पर ऐसी दालमोठ क्यों लाई गई, जिससे गंध आ रही थी। इस खबर में कितनी सच्चाई है यह तो पता नहीं लेकिन सोशल मीडिया पर जो नोटिस वायरल हो रहा है, उसमें जज की तरफ से लिखा गया है- 'आज दिनांक 30 मई को लंच समय में मेरे विश्राम कक्ष में सिविल जज (जू.डि.) / एफटीसी नवीन, गोंडा सुश्री शर्मिष्ठा साहू मिलने आई थीं जिस पर मेरे द्वारा आपको चाय/बिस्कुट लाने हेतु कहा गया, जबकि आपके द्वारा केवल दो चाय लाई गई। मेरे द्वारा पुन: बिस्कुट लाने के लिए कहा गया, किंतु आपके द्वारा बिस्कुट न लाकर पुरानी खराब स्थिति में जिसमें से गंदी गंध आ रही थी, दालमोठ रखी गई। आलमारी में दो डिब्बे में अच्छी स्थिति में बिस्कुट रखे हुए थे। बावजूद आपके द्वारा जानबूझकर खराब पुरानी दालमोठ रखी गई, जो कि फेंकने की स्थिति में थी। इस सम्बन्ध में आप अपना स्पष्टीकरण दिनांक 31 मई को समय 10.30 बजे प्रस्तुत करें कि इस प्रकार की जानबूझकर घोर त्रुटि आपके द्वारा क्यों की गई।'
अगर खबर सच्ची है तब तो मामला संगीन है कि क्या जज को जानबूझकर पुरानी दालमोठ पेश करने का कोई षड्यंत्र रचा गया और अगर खबर काल्पनिक है, तब भी गंभीर चिंता का विषय है कि क्या दालमोठ और बिस्कुट को चर्चा में लाने की यह कोई चाल है। क्योंकि आमतौर पर तो सरकारी बैठकों में चाय के साथ समोसे, ढोकले, कलाकंद आदि परोसे जाते हैं। लेकिन सिविल जज और सत्र न्यायाधीश जब साथ बैठे हों और बात केवल बिस्किट और दालमोठ में निपट जाए, क्या यह नाइंसाफी नहीं है।
राहुल गांधी को देखना चाहिए कि नेहरूजी ने कैसा भारत बनाकर छोड़ा है, जहां किसी को रोजाना मखाने खाने मिलते हैं और किसी को पुरानी दालमोठ परोसी जाती है।
नेहरूजी के बाद शास्त्रीजी, इंदिराजी, राजीवजी सबने शासन कर लिया, किसी का ध्यान इस विसंगति पर नहीं गया। सब पता नहीं क्या-क्या करते रहे। कोई जय जवान, जय किसान कहता रहा, किसी ने पाकिस्तान के दो हिस्से कर दिए, कोई पंचायतों को मजबूत करने में लगा रहा और साथ में देश में कम्प्यूटर लेकर भी आ गया। ये सब करने से क्या भारत का भला हो गया।
आईआईटी, आईआईएम, एम्स न भी बनते तब भी भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए रोजाना शाखाएं कार्यरत थी हीं, वहीं से निकले लोग आज राडार से बचने के नुस्खे हमारे लड़ाकू विमानों को देते हैं। और राहुल गांधी की हिमाकत देखिए, उन्हीं से सवाल करते हैं कि हमारे कितने विमान पाकिस्तान ने गिराए हैं। राहुल गांधी भारतीय परंपरा में पढ़े-लिखे होते तो जानते कि बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले। लेकिन नहीं, वो तो वही अटके हैं कि ट्रंप ने फोन कब किया, क्या कहा और उसके बाद यहां प्रधानमंत्री ने क्या किया। अब जो किया सो किया, लेकिन क्या उससे जो कुछ घटा है, वो बदल जाएगा, नहीं न। तो फिर वही-वही सवाल दोहराने का क्या मतलब।
2004 से राहुल गांधी सांसद चुने जा रहे हैं, कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने, अध्यक्ष बने, अब नेता प्रतिपक्ष बन गए, लेकिन राजनीति के तकाजे समझ ही नहीं रहे हैं। ये समय बड़े-बड़े सवालों पर चिंतन करने का है, जिससे देश में सब कुछ कुशलमंगल रहे। कहां अमेरिका, पाकिस्तान, रूस, चीन के सवालों पर उलझे हुए हैं। देखिए मोदीजी को वो इन सबमें नहीं उलझते, मन की बात करते हैं। जिसमें देश के लोगों से जुड़े जरूरी सवाल रहते हैं।
जैसे जून के आखिरी में मोदीजी जब मन की बात करेंगे तो शायद गोंडा के दालमोठ प्रकरण पर कुछ उच्चकोटि के विचार देश के सामने रखेंगे। सबसे पहले तो इस बात पर संज्ञान लिया जाएगा कि यह खबर सोशल मीडिया पर आई कैसे। खबर में सच्चाई है तो यह नोटिस किसी सोशल मीडिया यूजर के हाथ कैसे लगा। अगर खबर गलत है तो भी इसके पीछे मंशा क्या है। फिर कुछ जरूरी सवालों पर मोदीजी की राय सामने आएगी, जैसे जज महोदय के आदेश के बावजूद अर्दली ने बिस्किट की जगह पुरानी दालमोठ पेश कर जो नाफरमानी की है, उसके पीछे कारण क्या है। क्या अर्दली ने अपने से ऊंचे ओहदे पर बैठे इंसान को इसके जरिए चुनौती पेश की है। क्या अर्दली अर्बन नक्सल गैंग से प्रेरित है। बस्तर से तो नक्सलियों का सफाया मोदी-शाह की युति कर चुकी है, लेकिन अर्बन नक्सलियों से निपटने के लिए अभी रणनीति तैयार हो रही है, इसके लिए अपने 140 करोड़ भाई-बहनों से मोदीजी सहयोग मांगेगे।
अर्दली राकेश कुमार के नाम से यह स्पष्ट नहीं हो रहा है कि वे किस जाति और वर्ग के हैं। इससे मामला और भी पेचीदा हो जाता है। क्योंकि यहां फिर राहुल गांधी गड़बड़ कर चुके हैं। समाज का एक्सरे करने की बात कर पूरे समाज को यह एहसास करा दिया कि कोई गंभीर बीमारी का शिकार समाज हो गया है। जबकि इससे पहले सब आराम से चल रहा था। किसी को उसकी कमजोरी के बारे में खुलकर कहना अशिष्टता होती है, इसलिए शिष्टाचार के नाते समाज में पसरी बीमारी का जिक्र सरकार नहीं करती थी, ताकि किसी को बुरा न लगे। लेकिन राहुल गांधी को तो शिष्टाचार निभाना आता ही नहीं, इसलिए वो खुलकर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों से कह देते हैं कि आपके हाथ में शक्ति है ही नहीं, जहां से फैसले लिए जाते हैं, नीतियां बनाई जाती हैं, वहां आप हैं ही नहीं। इसलिए वो एक्सरे की बात पूरे देश में करते फिर रहे हैं। जिसके बाद सरकार को जाति जनगणना कराने का ऐलान करना पड़ा। तो देखने वाली बात ये है कि क्या अर्दली राकेश कुमार भी जाति जनगणना का पक्षधर है या उसे वर्ण व्यवस्था के तहत बने खांचों में जीना मंजूर है। क्या बिस्कुट की जगह दालमोठ परोस कर उसने जाति जनगणना का कोई संकेत तो नहीं दिया।
बिस्कुट की जगह दालमोठ परोसने के पीछे क्या कोई कारोबारी या अंतरराज्यीय विवाद है, यह भी देखा जाएगा। दालमोठ तो आगरे की ही मशहूर है, लेकिन बिस्कुट कौन सी कंपनी का था, कहां बना था और कहां से खरीदा गया था। दालमोठ को पुरानी पड़ने तक बची क्यों रहने दिया गया। क्यों उसे न खाकर सरकारी धन की बर्बादी की गई। क्या इसमें योगी प्रशासन ने कोई चूक की, यह देखना होगा। इस पूरे प्रकरण में विचारणीय पहलू यह भी है कि जज महोदय ने अलमारी में बिस्कुट के दो पैकेट अच्छी स्थिति में रखे होने का जिक्र किया है, अर्थात वे उच्च कोटि के ईमानदार जज हैं। क्योंकि वे चाहते तो बिस्कुट के दो पैकेट अपनी हिफाजत में अपनी दराज़ में रख सकते थे। लेकिन उन्होंने सरकारी संपत्ति पर अनायास कब्जा करने की कोई चेष्टा नहीं जताई।यह उन तमाम सांसदों के लिए मिसाल है जो मंत्री या सांसद न रहने पर भी सरकारी बंगले में टिके रहते हैं। गोंडा के अपर सत्र न्यायाधीश ने उन सरकारी अफसरों के लिए भी मिसाल पेश की है जो तिजोरी भरने के बाद दीवारों में नोट चुनवा कर रखते हैं। इनकी वजह से इनकमटैक्स और ईडी पर काम का अतिरिक्त बोझ बढ़ता है।
दालमोठ बनाम बिस्कुट प्रकरण में यह भी विचारणीय है कि जब अर्दली ने केवल चाय की दो प्यालियां पेश कीं और फिर बिस्कुट लाने का आदेश हुआ, लेकिन फिर भी पुरानी दालमोठ पेश की गई, इस सबमें जो वक्त बर्बाद हुआ, उसकी भरपाई कौन करेगा। दालमोठ में एक से ज्यादा नमकीनों का मिश्रण होता है, कुछ-कुछ इंडिया गठबंधन की तरह, कुछ सख्त, कुछ चटपटे, कुछ तीखे तत्व होते हैं। तो क्या अर्दली ने इस बात से प्रेरित होकर दालमोठ परोसी, इसे भी परखना चाहिए। यह सीधे सरकारी कर्मचारी की राजनैतिक पक्षधरता को दिखाता है। साथ ही महत्वपूर्ण सवाल यह है कि दालमोठ लाने जे जाने के बीच चाय गर्म बनी रही या ठंडी हो गई। क्योंकि कुछ भी हो जाए चाय की शान के साथ समझौता नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी तो शायद कॉफी पीते हैं, वो क्या जानें कि चाय बेचने और चाय पीने का सुख क्या होता है।
बहरहाल अभी जस्टिस फॉर बिस्कुट या बायकॉट पुरानी दालमोठ हैशटैग के साथ सोशल मीडिया पर नया अभियान खड़ा करने की जरूरत है। हमारे कितने विमान गिरे, किसने सरेण्डर किया, सीज़फायर का आदेश कहां से हुआ, ऐसे फालतू सवालों में वक्त बर्बाद करने से अच्छा है कि बड़े सवालों पर देश मन की बात करे।