व्यवस्था से टूटता भरोसा लोकतंत्र के लिए गंभीर संकट

देश की एक और जघन्य और बर्बर अमानवीय घटना ने देशवासियों को एक बार फिर हिला कर रख दिया है;

Update: 2024-08-20 08:36 GMT

- डॉ. लखन चौधरी

विधायिका और कार्यपालिका की भूमिका न्यायपालिका से अलग है। संविधान में निश्चित रूप से शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत है। न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका की भूमिका अपने हाथों में नहीं ले सकती है, लेकिन हस्तक्षेप कर सकती है। अदालतें ऐसी जगह बन रही हैं जहां लोग समाज के लिए अभिव्यक्ति को बुलंद आवाज देने के लिए आते हैं। तात्पर्य यह हैं कि न्याय एवं न्याय प्रणाली से टूटता भरोसा लोकतंत्र के लिए गंभीर संकट की ओर इशारा करता है।

देश की एक और जघन्य और बर्बर अमानवीय घटना ने देशवासियों को एक बार फिर हिला कर रख दिया है। सरकारें, किसी भी दल की हों, व्यवस्थाएं उसी तरह चल रहीं हैं। व्यवस्थाओं में आमूल-चूल बदलाव एवं परिवर्तन की बातें भी अब लोगों को विश्वास दिलाने में असफल साबित होने लगी हैं। निर्भया कांण्ड से लेकर आज तक इस तरह की कुत्सित, निंदनीय घटनाएं रूकने की बात तो दूर, कम होने तक का नाम नहीं ले रहीं हैं। ठीक है कि समाज में मानसिक विकृतियां, मनोविकार की स्थिति लगातार बढ़ रही है, जिसके अनेकानेक कारण हैं, लेकिन इस तरह की घटनाओं के पीछे के मनोविज्ञान को भी समझने की दरकार है। आज सरकारों की वोटबैंक की राजनीति के कारण अपराधियों में डर, भय खत्म हो रहा है। लगातार चलने वाले बोझिल कानूनी कार्रवाइयों से अपराधियों का हौसला पस्त नहीं हो पा रहा है, लिहाजा इस तरह की अमानवीय घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रहीं हैं।

भारतीय उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने विगत दिनों भारतीय न्याय व्यस्था यानि भारतीय कानूनी प्रणाली के बारे में जो बातें कहीं हैं, वह वाकई बहुत गंभीर है। आजादी के 75 सालों में भारतीय न्याय व्यस्था से आम आदमी वाकई निराश हुआ है। सत्ता, कुर्सी, बड़े एवं जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग उचित-अनुचित तरीके से कानून एवं न्याय आदि की व्याख्याएं अपनी सहूलियत एवं अपने बचाव के हिसाब से करने लगे हैं। ऐसे में आम जनता के लिए न्याय की उम्मीद पालना या न्याय पर भरोसा करना ही निरर्थक सा ही तो लगता है?

सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ का कथन है कि ञ्चइतिहास में कानूनी प्रणाली का एक तरह से दुरूपयोग हुआ है। दरअसल कानूनी प्रणाली अन्याय-भेदभाव के लिए एक तरह से हथियार की तरह होती है लेकिन इसी कानूनी प्रणाली ने हाशिए पर रह-रहे बहुसंख्यक समुदायों को नुकसान पहुंचाने का काम किया है।' सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का कहना है कि लीगल सिस्टम को अक्सर समाज के हाशिए पर रहे समुदायों को दबाने के हथियार के लिए इस्तेमाल किया गया है। समाज में होने वाले भेदभाव और अन्याय को धीरे-धीरे सामान्य माना जाने लगा, जिससे कुछ समुदाय समाज की मुख्य धारा से अलग होते चले गए, इसके चलते हिंसा और बहिष्कार की घटनाएं बढ़ती चली गईं।

ऐसे वक्त में कानूनी प्रणाली ने भी हाशिए पर रह-रहे समुदायों के खिलाफ इतिहास में हुई गलतियों को कायम रखने में अहम भूमिका निभाई। भारत में जाति प्रथा के चलते निचली जातियों के लाखों लोगों को शोषण का शिकार होना पड़ा। महिलाओं और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को दबाया गया। इतिहास अन्याय के ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है। आज अधिकार मिलने के बाद भी महिलाओं के साथ हिंसा हो रही हैं। भारत में आजादी के बाद शोषण सहने वाले समुदायों के लिए कई नीतियां बनाई गईं। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और प्रतिनिधित्व के अवसर दिए गए।

हालांकि संवैधानिक अधिकारों के बावजूद समाज में महिलाओं को भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव पर बैन लगने के बाद भी पिछड़े समुदायों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं सामने आती हैं। सीजेआई ने कहा कि बुरा संविधान भी अच्छा बन सकता है, बशर्ते उसे चलाने वाले अच्छे लोग हों। अंबेडकर कहते थे कि 'संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर वे लोग खराब निकलें, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाएगा तो संविधान का खराब साबित होना तय है। वहीं, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, अगर जिन लोगों को इसे अमल में लाने की जिम्मेदारी दी गई है, वे अच्छे हैं तो संविधान का अच्छा साबित होना तय है।' भले ही न्यायाधीशों को जनता नहीं चुनती, लेकिन समाज में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है, न्यायपालिका का समाज के विकास में 'स्थिर प्रभाव' है।

समाज में अदालतों की भूमिका पर चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने बड़ी टिप्पणी की है। उन्होंने कहा, समाज प्रौद्योगिकी के साथ तेजी से बदल रहा है। भारत के बहुलतावादी समाज में न्यायाधीशों का तटस्थ रहना बेहद जरूरी होता है। न्यायाधीशों को 'समय के उतार-चढ़ाव' से परे रहना चाहिए। भारत जैसे बहुलवादी समाज के संदर्भ में कोर्ट को सभ्यताओं, संस्कृतियों की समग्र स्थिरता में भूमिका निभानी है। सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के हिस्से के रूप में अदालतें नागरिक समाज और सामाजिक परिवर्तन की खोज के बीच जुड़ाव का केंद्र बिंदु बन गई हैं। लोग केवल नतीजों के लिए ही नहीं, बल्कि संवैधानिक परिवर्तन की प्रक्रिया में आवाज उठाने के लिए भी अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं। यद्यपि यह एक जटिल सवाल है कि लोग अदालतों में क्यों आते हैं? और इसके कई कारण हैं।

विधायिका और कार्यपालिका की भूमिका न्यायपालिका से अलग है। संविधान में निश्चित रूप से शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत है। न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका की भूमिका अपने हाथों में नहीं ले सकती है, लेकिन हस्तक्षेप कर सकती है। अदालतें ऐसी जगह बन रही हैं जहां लोग समाज के लिए अभिव्यक्ति को बुलंद आवाज देने के लिए आते हैं। तात्पर्य यह हैं कि न्याय एवं न्याय प्रणाली से टूटता भरोसा लोकतंत्र के लिए गंभीर संकट की ओर इशारा करता है। यदि समय रहते सरकार इस पर गंभीरता से विमर्श नहीं करती है, तो आने वाले दिनों में समाज में अराजकता की स्थिति निर्मित होने को रोक पाना असंभव हो सकता है।

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