शिखर पर धर्मध्वजा, हाशिए पर संविधान

19 वींसदी के मध्य में कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि धर्म 'जनता के लिए अफीम' है - जो वंचित लोगों को वर्तमान से अलग कर देता है;

Update: 2025-11-26 22:02 GMT
  • सर्वमित्रा सुरजन

धर्म का ज्ञान देने में जरा सी कसर नहीं रहना चाहिए, यही उद्देश्य मीडिया का दिखा। अच्छी बात है कि मीडिया हर घटना और प्रकरण की आदि से अंत तक सारी जानकारी दे। जो कुछ आज हो रहा है उससे अतीत कैसे जुड़ा है और भविष्य पर इसका क्या असर होगा, यह बताना भी पत्रकारों का दायित्व है।

19 वींसदी के मध्य में कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि धर्म 'जनता के लिए अफीम' है - जो वंचित लोगों को वर्तमान से अलग कर देता है, तथा प्रगतिशील राजनीति में उनकी भागीदारी को कमज़ोर कर देता है। मार्क्स ने तब पश्चिम में धर्म का प्रभाव और गरीबों का संघर्ष देखा था। लेकिन उनकी दो सदी पहले कही गई ये बात अब भारत के संदर्भ में पूरी तरह सटीक उतर रही है।

भारत में प्रदूषण, बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की आत्महत्या, छात्रों में आत्महत्या का बढ़ता चलन, पारिवारिक टूटन, महिला उत्पीड़न, अपराध, शैक्षणिक संस्थानों के स्तर में आती गिरावट, रूपए की गिरती कीमत, बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष जैसी अनेकानेक समस्याएं फन काढ़े खड़ी हैं। अखबार उठा कर देखिए तो ऐसी ही खबरें भरी पड़ी हैं। जनता ने अच्छे दिनों की उम्मीदों के बीच इनके साथ ही रहना सीख लिया है। और अब लग रहा है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए जनता को पूरी तरह धार्मिक उन्माद में झोंकने की कला में महारत हासिल कर ली है।

26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने से ठीक एक दिन पहले 25 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के शिखर पर धर्म ध्वजा फहराई। प्रधानमंत्री का कार्यक्रम था तो तमाम चैनलों ने इसे पूरा कवरेज दिया और प्रिंट मीडिया भी हिंदुत्व में रंगा नजर आया। कुछ शीर्षकों पर गौर फरमाइए-

सदियों के घाव भर रहे, 500 साल का संकल्प पूरा- मोदी

शिखर पर धर्म ध्वजा

राम मंदिर- संकल्प की पूर्णाहुति

ऐसे ही शीर्षकों से अखबारों को रंगा गया है। इसके साथ ही ध्वज पर कौन से चिह्न बने हैं, उनके मतलब क्या है, अभिजीत मुहूर्त क्या है, क्यों इसी मुहूर्त में राम मंदिर के शिखर पर ध्वज फहराया गया, इनकी विस्तृत जानकारी दी गई है।

धर्म का ज्ञान देने में जरा सी कसर नहीं रहना चाहिए, यही उद्देश्य मीडिया का दिखा। अच्छी बात है कि मीडिया हर घटना और प्रकरण की आदि से अंत तक सारी जानकारी दे। जो कुछ आज हो रहा है उससे अतीत कैसे जुड़ा है और भविष्य पर इसका क्या असर होगा, यह बताना भी पत्रकारों का दायित्व है। जैसे राम मंदिर किस तरह बना और इसके लिए देश में नए सिरे से विभाजन की रेखा कैसे खींची गई, यह जानकारी मीडिया में फिर से आना चाहिए थी। यह बताना भी जरूरी है कि इसी साल छत्तीसगढ़ में वक्फ बोर्ड ने 15 अगस्त पर हर मस्जिद पर, मदरसा और दरगाह पर तिरंगा लहराने का आदेश जारी किया था। इसे राष्ट्रीय एकता और गौरव के लिए जरूरी बताया था। अब तिरंगा तो एवरेस्ट से लेकर अंडमान के द्वीपों तक कहीं भी लहराए, वाकई गौरव की अनुभूति ही होती है। लेकिन आजादी के मौके पर खास तौर पर मुस्लिम धर्मस्थल पर तिरंगा लहराने का आदेश प्रकारांतर से मुस्लिमों से उनके देशभक्ति की परीक्षा लेने जैसा है, जो सरासर अन्याय और अपमान है।

देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान बना तो जिन्हें इस्लाम के नाम पर बने देश में जाना था, वे चले गए। लेकिन जो नहीं गए, उन्हें पराए होने का अहसास कराने का क्या मतलब। देश पर हरेक नागरिक का समान हक है और हरेक नागरिक को समान हक भी है। लेकिन मोदी सरकार में इस हक पर बार-बार आघात हो रहा है, उस पर तुर्रा यह कि सबका साथ और सबका विकास। अगर मस्जिदों पर तिरंगा लहराने का आदेश होता है, अगर 15 अगस्त पर हर घर में तिरंगा फहराने की अपील होती है, तो राम मंदिर पर भगवा ध्वज फहराकर इसे सदियों का संकल्प पूरा होना क्यों कहा जा रहा है। क्या भाजपा ने सत्ता इसी मकसद से हासिल की है कि उसे हर हाल में भारत को हिंदू राष्ट्र ही बनाना है।

बता दूं कि प्रधानमंत्री ने ध्वज फहराने के बाद कहा कि 'सदियों के घाव और पीड़ा आज भर रहे हैं।' इस एक वाक्य से उन्होंने फिर उस धार्मिक विभाजन की याद दिलाई जो बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद समाज में बनी। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और ऐसे कई हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद पर चढ़कर, उस पर प्रहार कर गिरा दिया। किसी भी सभ्य समाज के लिए ऐसी घटना शर्मनाक होनी चाहिए थी। लेकिन भारत में तब से लेकर आज तक ऐसा जश्न मनाया जा रहा है मानो हम अब रोजाना चांद पर आवाजाही करने लगे हैं या पूरी दुनिया में हमारा दबदबा है, हमारी जनता को भोजन, पानी, आवास, बिजली, इलाज, शिक्षा किसी की दरकार नहीं है।

ध्यान रहे कि बाबरी मस्जिद का मामला अदालत में कई दशक से चल रहा था। लेकिन राम मंदिर बनाने का संकल्प लिए मोदी सरकार ने जब दिल्ली संभाली तो इस मामले की सुनवाई में तेज़ी आ गई। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में फैसला सुनाया कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन केंद्र सरकार को दी जाती है। केंद्र सरकार एक ट्रस्ट बनाकर वो ज़मीन हिन्दुओं को सौंप दे। वहां एक राम मंदिर का निर्माण कराया जाए। अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि मस्जिद को गिराना गलत था। वो एक ऐतिहासिक धरोहर थी। लेकिन इस गलती को करने वाले कौन लोग हैं और उन्हें अब तक सजा क्यों नहीं मिली, इस सवाल का कोई जवाब सरकार या अदालत के पास नहीं है। अयोध्या पर फैसला सुनाने वाले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, रिटायर होने के बाद भाजपा की मदद से राज्यसभा के सांसद बन गए और एक अन्य न्यायाधीश डी वाय चंद्रचूड़ बता चुके हैं कि राम मंदिर पर फैसला देने से पहले वे देवी की मूर्ति के सामने बैठे थे।

ये बातें पहले भी कही जा चुकी हैं, लेकिन इन्हें बार-बार दोहराना इसलिए जरूरी है ताकि लोग एक ऐसे अन्याय को न भूलें, जिसे भाजपा धर्म का नाम देकर जायज ठहराती है। हिंदू धर्म ने कभी नफरत की शिक्षा नहीं दी। बल्कि बाहें खोलकर हर नए विचार का स्वागत किया। किसी विचार से अगर असहमति रही तो उसे जाहिर किया, लेकिन अपने अहंकार में उसे गलत नहीं ठहराया। ऐसी उदारता और प्रगतिशीलता के कारण ही प्राचीन भारत की ख्याति फैली। हिंदू धर्म, संस्कृत के ग्रंथों की तरफ विदेशी विद्वान आकर्षित हुए। लेकिन भाजपा का धर्म विशुद्ध सत्ता की राजनीति से प्रेरित है।

अयोध्या में ध्वज फहराने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, 'ये धर्मध्वज प्रेरणा बनेगा कि प्राण जाए, पर वचन न जाए अर्थात जो कहा जाए, वही किया जाए। ये धर्मध्वज संदेश देगा-कर्मप्रधान विश्व रचि राखा अर्थात विश्व में कर्म और कर्तव्य की प्रधानता हो। ये धर्मध्वज कामना करेगा- बैर न बिग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा यानी भेदभाव, पीड़ा, परेशानी से मुक्ति और समाज में शांति एवं सुख हो।'

अभी तो पता नहीं कि खुद मोदीजी ने इस ध्वज से ऐसी कितनी प्रेरणा हासिल की। लेकिन अगर वे वाकई प्राण जाए पर वचन न जाए या भेदभाव से मुक्ति की बात कर रहे हैं, तो बेशक ऐसे सौ ध्वज और अपने आसपास फहरा लें, ताकि उन्हें याद रहे कि 2014 में जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार का वादा किया था, देश से काले धन को मिटाने के लिए 2016 में नोटबंदी की थी, किसानों की दोगुनी आय, सबके लिए मकान, सबके लिए साफ पानी जैसे वादे किए थे। लेकिन 2025 के छठ में भी लोगों ने गंदे पानी में ही अर्घ्य दिया और खुद मोदी के लिए अलग से पानी की व्यवस्था की गई, ताकि गंदगी उन्हें बीमार न कर दे। कोरोना काल में बनाए गए पीएम केयर्स फंड का खुला हिसाब तक मोदी नहीं देते और ज्ञान देते हैं कि विश्व में कर्म और कर्तव्य की प्रधानता हो। अच्छी बातों को केवल दोहराने से अच्छाई कायम नहीं होती है, उसे व्यवहार में भी उतारना पड़ता है। फिलहाल भाजपा और खुद मोदी के व्यवहार में यह कमी साफ दिखती है।

भेदभाव मुक्त समाज बनाने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के उद्घाटन से लेकर राम मंदिर के शिलान्यास और उद्घाटन तक दलित, आदिवासी राष्ट्रपतियों को नहीं बुलाया, खुद सारे काम किए, ताकि सारी तस्वीरें उन्हीं की रहें और अभी धर्म ध्वज फहराया तब भी अयोध्या के सांसद अवधेश प्रसाद को नहीं बुलाया। सपा सांसद अवधेश प्रसाद ने कहा है कि रामलला के दरबार में धर्म ध्वजा स्थापना कार्यक्रम में मुझे न बुलाए जाने का कारण मेरा दलित समाज से होना है। उन्होंने कहा कि यह राम की मर्यादा नहीं, किसी और की संकीर्ण सोच का परिचय है। राम सबके हैं। मेरी लड़ाई आमंत्रण को लेकर नहीं है, बल्कि सम्मान, बराबरी और संविधान की मर्यादा के लिए है।

राम तो वाकई सबके हैं, भाजपा उन पर अपना कॉपीराइट जताती है, भगवान को राजनीति का मोहरा बनाती है, मीडिया इसका प्रचार करता है और इसकी चपेट में आई जनता के लिए धर्म वाकई उस अफीम की तरह बन चुका है, जो उन्हें तकलीफों के गायब होने का अहसास तो कराता है, लेकिन तकलीफें वहीं बनी हुई हैं। जनता जिस आदर्श राम राज्य की कल्पना करती है, वह केवल संविधान के शासन से ही स्थापित होगा। इसके लिए संविधान का बचना जरूरी है, मगर अभी लोग राममंदिर के शिखर पर धर्म के झंडे को लहराते देख खुश हैं।

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