जनांदोलनों पर लगाम लगाने की तैयारी
गृहमंत्री होने के नाते श्री शाह की जिम्मेदारी है कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के हर पहलू पर बारीकी से काम करें और अपने अधीन आने वाली पुलिस को काम सौंपे;
- सर्वमित्रा सुरजन
गृहमंत्री होने के नाते श्री शाह की जिम्मेदारी है कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के हर पहलू पर बारीकी से काम करें और अपने अधीन आने वाली पुलिस को काम सौंपे। लेकिन आंदोलनों के अध्ययन की जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है। क्या अमित शाह इस अध्ययन के आधार पर अब ऐसा कोई कानून बनाने की राह पर हैं जिसमें आंदोलन करना ही गैरकानूनी बन जाएगा।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो (बीपीआरडी) को निर्देश दिया है कि वह आज़ादी के बाद देश में हुए सभी आंदोलनों, खासतौर पर 1974 के बाद हुए आंदोलनों के 'वित्तीय पहलुओं', नतीजों और 'पर्दे के पीछे सक्रिय ताक़तों' की जांच कर एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर (एसओपी) तैयार करे, ताकि भविष्य में 'निहित स्वार्थों द्वारा कराए जाने वाले बड़े आंदोलनों' को रोका जा सके। शब्दों पर गौर फरमाएं, वित्तीय पहलू, यानी आंदोलनों का खर्च कहां से पूरा होता है, कौन लोग हैं, जो आंदोलनकारियों को आर्थिक सहायता मुहैया कराते हैं। नतीजों यानी किसी भी आंदोलन का आखिरी असर क्या हुआ। जैसे जे पी आंदोलन का नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के विरोधियों को गठजोड़ कर सत्ता में आने का मौका मिला। अन्ना आंदोलन का नतीजा यूपीए सरकार के पराभव के तौर पर सामने आया। इसके बाद मोदी सरकार आ गई और इसमें शाहीन बाग या किसान आंदोलन हुए, लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकला। किसान आंदोलन के बाद जरूर तीनों कृषि कानून वापस हुए, लेकिन इसमें किसानों से किए वादे अब तक पूरे नहीं हुए, लिहाजा इन्हें बेनतीजा ही माना जाए। इसके अलावा भी जो विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं, उन पर पुलिस के डंडे और आंसू गैस किस तरह बरसते हैं इन्हें देश लगातार देख रहा है। यानी अमित शाह अपनी सरकार आने के पहले हुए आंदोलनों के नतीजे ही समझना चाह रहे होंगे। इस अध्ययन में पर्दे के पीछे सक्रिय ताकतों की जांच का भी उल्लेख है। सीधे शब्दों में कहें तो साजिशकर्ता की शिनाख्त सरकार करना चाहती है। मोदी-शाह की नज़र में शायद जनांदोलन लोकतंत्र की पहचान नहीं, बल्कि सत्ता के खिलाफ साजिश ही हैं।
न जाने इस सरकार को किसका डर है, जो हमेशा यही सोचती रहती है कि उसके खिलाफ साजिश हो रही है। राहुल गांधी दो-तीन का अवकाश लेने विदेश जाते हैं, तो उसमें उसे साजिश दिखती है। कांग्रेस सरकार के किसी फैसले की पड़ताल करे, कोई शोध करे तो उसमें भी उसे साजिश दिखती है। इन साजिशों के तार अक्सर अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस से जोड़ दिए जाते हैं, जो दुनिया भर में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए संस्थाओं को वित्तीय सहायता देते हैं। शाहीन बाग, किसान आंदोलन, भारत जोड़ो यात्रा हर जगह भाजपा या उसके समर्थकों ने जॉर्ज सोरोस एंगल ढूंढ ही लिया था। बहरहाल, इस अध्ययन में जॉर्ज सोरोस को प्रत्यक्ष तौर पर कोई विषय नहीं बनाया गया है, लेकिन पर्दे के पीछे कहने का अर्थ यही है कि सरकार मानकर चल रही है जनांदोलन स्वत: स्फूर्त नहीं होते हैं। इस अध्ययन के बाद एक प्रक्रिया तैयार होगी, जो भविष्य में बड़े आंदोलनों को रोकेगी। अगर ऐसा कोई अध्ययन रूस, चीन, उ.कोरिया, सऊदी अरब, इजरायल आदि में होता तो आश्चर्य नहीं होता। लेकिन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में क्या लोकतंत्र के मायने बदलने की पूरी तैयारी की जा रही है।
अब तक मीडिया तो पूरी तरह सरकार का भोंपू बन ही गया है। सूचना का अधिकार कानून इतना कमजोर हो चुका है कि जनता अब सही सूचना की हकदार नहीं रह गई है। सरकार पर सवाल उठाने वालों को या तो बिना जमानत दिए बरसों की हिरासत में रखा जा रहा है या अन्य तरीकों से उनका मुंह बंद करवाया जा रहा है। लोगों तक सही जानकारी बमुश्किल पहुंच रही है, क्योंकि नयी तकनीकी से फर्जी खबरों और वीडियों की भरमार हो चुकी है। ये हालात लोकतंत्र के लिए भले नुकसानदायक हों, सत्ता के लिए तो मुफीद हैं, फिर भी सरकार को आंदोलन से डर क्यों लग रहा है, यह सोचने वाली बात है।
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक श्री शाह ने आंदोलन के अध्ययन के यह निर्देश जुलाई में इंटेलिजेंस ब्यूरो द्वारा आयोजित दो दिवसीय नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रैटेजीज कॉन्फ्रेंस-2025 में दिए थे। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है, 'बीपीआरडी को खास तौर पर यह जांचने के लिए कहा गया है कि इन आंदोलनों के पीछे कारण क्या थे, उनका पैटर्न कैसा रहा और उनके नतीजे क्या निकले। साथ ही यह भी देखा जाए कि इन विरोधों के पीछे कौन-कौन से और किस तरह के लोग सक्रिय थे। गृह मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाला बीपीआरडी इस दिशा में एक समिति बनाने की प्रक्रिया में है। यह समिति पुराने केस फाइलों के लिए राज्यों की पुलिस विभागों और उनकी अपराध जांच शाखाओं (सीआईडी) से तालमेल बिठाएगी। रिपोर्ट के अनुसार अमित शाह ने कथित तौर पर कहा है कि कुछ 'स्वार्थी ताकतें' देश को अस्थिर करने के लिए बड़े आंदोलन कराती हैं। इनमें कारण, पैटर्न, नतीजे और पर्दे के पीछे काम करने वाले लोग शामिल होते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, शाह ने कहा है कि आंदोलनों के 'वित्तीय पहलुओं' की जांच के लिए बीपीआरडी को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), वित्तीय खुफिया इकाई और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) जैसी वित्तीय जांच एजेंसियों को भी साथ लाना चाहिए।
गृहमंत्री होने के नाते श्री शाह की जिम्मेदारी है कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के हर पहलू पर बारीकी से काम करें और अपने अधीन आने वाली पुलिस को काम सौंपे। लेकिन आंदोलनों के अध्ययन की जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है। क्या अमित शाह इस अध्ययन के आधार पर अब ऐसा कोई कानून बनाने की राह पर हैं जिसमें आंदोलन करना ही गैरकानूनी बन जाएगा। भारत में जनांदोलनों का लंबा इतिहास रहा है, जिनसे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं। कपड़े पर धूल दिखे, सलवट आए, तह ठीक से न हो पा रही हो, तो उसे एक बार कस के झटका जाता है, फिर सब दुरुस्त हो जाता है। ठीक ऐसा ही लोकतंत्र के साथ भी है। व्यवस्था की कमियों पर नागरिकों का गुस्सा, किसी फैसले को सुधारने, नयी दिशा तलाशने, इन सबके लिए जगह बनाने का काम आंदोलन करते हैं।
मोदी सरकार में बहुमत के जोर पर लिए जाने वाले फैसलों, संविधान में संशोधन करने की कोशिशों और लोकतंत्र की भावना के खिलाफ किए जाने वाले कामों पर विपक्ष ने बार-बार सवाल उठाए हैं और कई बार यहां तक कहा है कि क्या मोदी-शाह देश को पुलिस स्टेट में बदलना चाहते हैं। क्या डंडे के जोर पर ही शासन चलेगा। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए काम करने वाले कई गैर सरकारी संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी दबाव से मुक्त होकर काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी इसी तरह के सवाल उठाते आए हैं। हालांकि सरकार पर इनका कुछ खास असर नहीं पड़ा। पहले, दूसरे और अब तीसरे कार्यकाल में भी मोदी सरकार की रीति-नीति में कोई अंतर नहीं दिखा। बल्कि कुछ ऐसे कामों में जिन पर सरकार पहले थोड़ा बहुत झिझक या हिचक के साथ आगे बढ़ती थी, अब वो झिझक भी पूरी तरह दूर हो चुकी है, क्योंकि भाजपा ने यह मान लिया है कि सत्ता अब उसके हाथों से कहीं और नहीं जाने वाली। इसका ताजा उदाहरण भारत का पाकिस्तान के साथ ेिक्रकेट मैच खेलना है। पहले पुलवामा और फिर पहलगाम इन दो आतंकी हमलों के बाद भी देश में अपनी मर्जी का नैरेटिव भाजपा ने मीडिया के जरिए चलवा लिया, जिसमें पाकिस्तान पर तो ऊंगली उठी लेकिन मोदी सरकार को तमाम सवालों से बरी किया गया। भाजपा जानती है कि जनता की नाराजगी या चिंता को कैसे डायवर्ट करना है। मणिपुर में अकल्पनीय और अकथनीय हिंसक माहौल बना, हजारों जिंदगियां तबाह हो गईं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ढाई साल वहां नहीं गए। अब गए तो बड़े आराम से बोल कर आ गए कि मणिपुर के नाम में ही मणि है। मणिपुर अब भी अशांत है, लेकिन भाजपा विपक्ष की खिल्ली उड़ा रही है कि लो मोदीजी तो अब मणिपुर जाकर आ गए, अब कौन सा मुद्दा उठाओगे।
यानी भाजपा के लिए मोदी ही केंद्र है, मोदी ही मुद्दा हैं, मोदी ही सत्ता हैं, मोदी ही ताकत हैं। खुद मोदी भी ऐसा ही मानते हैं। उनके भाषण सुन लीजिए, मैं शिवभक्त हूं, जहर निगल लेता हूं। ये मोदी की गारंटी है, घुसपैठियों पर कार्रवाई करूंगा। मोदी माफ कर भी दे, जनता माफ नहीं करेगी। हर वाक्य में मैं या मोदी का उपयोग प्रधानमंत्री करते हैं। आज तक हिंदुस्तान ने ऐसे किसी प्रधानमंत्री को नहीं देखा, जो इस कदर आत्ममुग्ध या आत्मकेन्द्रित हो कि उसे अपने सिवाए कोई नजर ही नहीं आए। अब क्या ये भी मानना पड़ेगा कि हिंदुस्तान ने ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं देखा जो विपक्ष से, जनता से, जनता के आंदोलन से और अपनी सत्ता खोने के ख्याल से भी घबराता है।