ओडिशा में जैविक खेती की पहल
आज जब साफ तौर पर रासायनिक खेती के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं तो इसके मद्देनजर देश के कई कोनों में जैविक खेती की ओर किसानों का रूझान बढ़ा है;
- बाबा मायाराम
हर घर में पशुपालन होता था। खेती के साथ पशुपालन होता जुड़ा था, जिससे खेतों के लिए गोबर खाद मिंल जाती थी, और पशुओं के लिए फसलों के ठंडल या भूसा चरने के लिए हो जाता था। बैल खेतों की जुताई करते थे। उनके घर भी गाय-बैल थे। इसी परंपरा को जारी रखते हुए वे खेत की तैयारी के लिए गोबर खाद, नीम की खली का इस्तेमाल करते हैं। नीम, एक कीटनाशक के रूप में भी बहुत उपयोगी है।
आज जब साफ तौर पर रासायनिक खेती के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं तो इसके मद्देनजर देश के कई कोनों में जैविक खेती की ओर किसानों का रूझान बढ़ा है। इसी कड़ी में ओडिशा में भी किसानों में इस बारे में चेतना आई है, और कुछ किसान जैविक खेती की ओर मुड़े हैं। आज इस कॉलम में ओडिशा में जैविक खेती की पहल पर चर्चा करना चाहूंगा, जिससे खेती की नई पहल के बारे में जाना जा सके।
हाल ही में मेरी पश्चिम ओडिशा के कुछ युवा किसानों से मुलाकात हुई, जो जैविक खेती का प्रयोग कर रहे हैं। ये किसान, जय किसान आंदोलन से भी जुड़े हैं। इनमें से एक किसान हारा बनिया हैं। वे बरगढ़ जिले के सरकंडा गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने बताया किब वे बचपन से ही खेती करते आ रहे हैं। खेती और पेड़ लगाना, उन्होंने परिजनों से ही सीखा है।
आगे बढ़ने से पहले यहां बताना उचित होगा कि पश्चिम ओडिशा में हीराकुंड बांध की नहरों से धान की खेती होती है। यहां रासायनिक खेती हो रही है, जिससे खेती की लागत भी बढ़ी है, मिट्टी-पानी का प्रदूषण बढ़ा है और लोगों के स्वास्थ्य पर असर हुआ है। बरगढ़ जिले में कैंसर के मरीजों की संख्या काफी बढ़ गई है।
किसान कार्यकर्ता हारा बनिया बताते हैं कि उनकी 5 एकड़ जमीन है। उसमें से करीब आधी जमीन पर जैविक खेती करते हैं। खेत में फसल के अलावा, उन्होंने कई प्रजाति के पेड़-पौधे भी लगाए हैं। यानी वे वृक्ष खेती भी करते हैं। बारिश के पानी को संजोने के लिए दो तालाब भी हैं। जिससे भूजल भी रिचार्ज होता है। उनके खेत में बोरवेल भी है।
उनके खेत में दो सौ पेड़ आम के हैं। चालीस पेड़ कटहल और इतने ही नारियल पेड़ लगाए हैं। इसके साथ अमरूद, अंजीर, पपीता, लीची, चीकू, संतरा, केला इत्यादि भी हैं। जैविक सब्जियां भी उगाई हैं। एक दो बार मेरे लिए भी जैविक सब्जियां लेकर आए।
उन्होंने बताया कि पेड़ लगाने की प्रेरणा एक पुरानी कहावत से मिली, जो इस प्रकार है कि 3 माह की फसल धान है, 10 वर्ष की फसल पेड़ है, और जिंदगी भर की फसल शिक्षा है। इसका अर्थ है कि धान की फसल तीन महीने में तैयार हो जाती है, पेड़ दस साल में अपना पूर्ण रूप लेता है, जबकि शिक्षा एक ऐसी फसल है, जिसका लाभ जीवन भर मिलता है।
वे बताते हैं कि खेत में देसी धान भी लगाते हैं, जिसका चावल पूरे साल भर खाने के काम आता है। देसी धान में झुली और सरसों फूल प्रजाति लगाते हैं। बचपन को याद करते हुए उन्होंने बताया कि पहले उनके खेत में मिश्रित खेती होती थी। मूंगफली, मूंग, झुनगा, मडिया इत्यादि लगाते थे। मूंग बोने से खेत में नत्रजन की कमी नहीं होती थी, द्विदली फसलें नत्रजन के लिए अच्छी मानी जाती हैं। मिट्टी की उर्वरता बनी रहती थी।
हर घर में पशुपालन होता था। खेती के साथ पशुपालन होता जुड़ा था, जिससे खेतों के लिए गोबर खाद मिंल जाती थी, और पशुओं के लिए फसलों के ठंडल या भूसा चरने के लिए हो जाता था। बैल खेतों की जुताई करते थे। उनके घर भी गाय-बैल थे।
इसी परंपरा को जारी रखते हुए वे खेत की तैयारी के लिए गोबर खाद, नीम की खली का इस्तेमाल करते हैं। नीम, एक कीटनाशक के रूप में भी बहुत उपयोगी है।
किसान कार्यकर्ता किशोर भाई हैं, वे भी उनके घर के लिए जैविक धान की खेती करते हैं, जिससे साल भर जैविक भोजन मिलता है। इसके अलावा, उन्होंने जय किसान आंदोलन के कार्यालय समता भवन में कई तरह की हरी पत्तीदार सब्जियां लगाई हैं। जैसे कोलियारी, मुनगा (सहजन), करेला, मूली, बैंगन, कुंदरू इत्यादि।
इसके अलावा, समता भवन में कई फलदार पेड़ भी हैं। जामुन, नींबू, अमरूद, सीताफल, केला, पपीता इत्यादि हैं। इन पेड़ों में कई रंग-बिरंगी चिड़ियाएं आती हैं, घोंसला बनाती हैं, और गीत गाती है।
जय किसान आंदोलन के संयोजक लिंगराज बताते हैं कि जैविक खेती के बारे में किसानों में चेतना आई है। वे रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को भी समझते हैं। बढ़ती बीमारियां, मिट्टी का उपजाऊपन कम होना, और बढ़ते कर्ज से किसान परेशान हैं।
लिंगराज भाई बताते हैं कि जैविक खेती के लिए उनका संगठन सदैव ही प्रयासरत रहा है। वर्ष 2012 में जीरो बजट खेती के प्रणेता सुभाष पालेकर के शिविरों का आयोजन भी करवाया था। इसके बाद कुछ किसान जैविक खेती की ओर मुड़े हैं।
बरगढ़ शहर में जैविक हरी ताजी सब्जियों का सप्ताह में दो दिन रविवार और बुधवार को बाजार लगता है, जिसमें से 4-5 किसान, सुभाष पालेकर के प्रशिक्षण शिविर से प्रशिक्षित हुए हैं।
उन्होंने कहा कि इसके बावजूद भी हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। उनका मानना है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकारी नीतियों में भी बदलाव की जरूरत है। इसका एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि ओडिशा मिलेट मिशन सरकारी योजना है। इस कारण मिलेट्स का उत्पादन बढ़ा है और विपणन में अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई है। यानी जैविक खेती को सरकारी प्रोत्साहन जरूरी है।
हालांकि उनका संगठन हमेशा ही जैविक खेती की पैरवी करता है। और इससे प्रभावित होकर कुछ जैविक खेती करने लगे हैं। इस दिशा में और भी प्रयास जारी हैं।
इस तरह की पहल ने किसानों को जैविक खेती की ओर मोड़ा है। उन्हें जैव खाद व जैव कीटनाशक बनाने का प्रशिक्षण देते रहते है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण भी हो रहा है और खेती में लागत खर्च कम हो रहा है। और लोगों को जैविक उत्पाद व जैविक भोजन उपलब्ध हो रहा है। किसान आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं।
इसके अलावा, जैविक खेती का विस्तार किचिन गार्डन ( सब्जी बाड़ी) तक हुआ है। इस काम में कुछ चुनौतियां भी सामने आई हैं, जैसे जैविक उत्पादों का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है। जिस दाम पर रासायनिक कृषि उत्पाद बिकते हैं, उसी दाम पर जैविक कृषि उत्पाद बिकते हैं।
जलवायु बदलाव के दौर में वृक्ष खेती बहुत उपयोगी है। क्योंकि यह कार्बन उत्सर्जन को तो कम करता ही है, खेती में जो अनिश्चितता उसे भी दूर करती है। मिश्रित खेती और विविधता की खेती से मिट्टी-पानी का संरक्षण होता है। इसमें मशीनीकरण की भी जरूरत नहीं है, वह भी जलवायु के लिए अनुकूल है। देसी खेती के साथ परंपरागत ज्ञान भी जुड़ा है, यह पारंपरिक देशज ज्ञान सालों से विकसित हुआ है, जो अब लुप्त हो रहा है। इसे बचाने की बहुत जरूरत महसूस हो रही है।
कुल मिलाकर, ओडिशा की जैविक खेती, वृक्ष खेती और किचिन गार्डन की पहल भले ही छोटी है, पर सराहनीय, प्रेरणादायी व अनुकरणीय है। इससे जैविक भोजन तो मिलता ही है, साथ ही जैव विविधता, परंपरागत ज्ञान, और पर्यावरण का भी संरक्षण होता है। क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे?